नवीन कुमार पाण्डेय
उत्तर प्रदेश में कुछ बीजेपी कार्यकर्ताओं को प्रवक्ता का पद तो नहीं दिया गया था, लेकिन उन्हें वक्त-बेवक्त टीवी चैनलों के डिबेट प्रोग्राम्स में भाग लेने भेज दिया जाता था। एक बार अमित शाह यूपी आए तो उनमें से एक कार्यकर्ता को उनसे बात करने का मौका मिल गया। शाह ने उन्हें सामने देख टोका और पूछा कि क्या चल रहा है। शाह के सवाल पर कार्यकर्ता ने अपने मन की बात कह दी। उन्होंने कहा कि सब ठीक है, बस एक दिक्कत यह है कि हम टीवी चैनलों पर जाते तो हैं, लेकिन पार्टी की तरफ से कोई अथॉरिटी नहीं मिलने के कारण हमारी बातों का वजन थोड़ा कम होता है। उन्होंने कहा कि बस इसी डीलिंग में दिक्कत होती है। इस पर शाह ने आव देखा ना ताव और झट से कह दिया- परेशानी होती है तो छोड़ दो। कार्यकर्ता की स्थिति ऐसी हो गई कि काटे तो खून नहीं। यह कहानी हाल ही में एक वरिष्ठ पत्रकार ने एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में बताई। आज बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ताओं की लिस्ट देख लीजिए, ज्यादातर दूसरी पार्टियों से आए हैं। तो क्या बीजेपी में ऐसे लोगों की कमी है जो उसकी विचारधारा को सही तरीके से मीडिया के सामने रख सके? क्या बीजेपी में इस हद तक ब्रेन ड्रेन है कि उसके संस्कारों में पले-बढ़े नेता पार्टी का बचाव करने के लायक भी नहीं होते?
हीनता भाव से ऊबर नहीं पा रही पार्टी?
जानकार कहते हैं कि जनसंघ के वक्त से ही पार्टी पर हीनता भाव हावी रहा है। उसे अपने प्रतिस्पर्धी ज्यादा काबिल नजर आते हैं, अपने लोग अयोग्य। एक विचार यह है कि बात काबिलियत की नहीं रणनीति की है। तब की जनसंघ, फिर बीजेपी ने अपने खिलाफ विरोध का स्वर कमजोर करने के उद्देश्य से विरोधियों को ही अपने पाले में लाने की रणनीति अपनाई। इसमें कोई संदेह नहीं कि विरोधी को मिलाना एक ‘मास्टर स्ट्रोक’ है, लेकिन अति सर्वत्र वर्जयेत। संतुलन सभी सिद्धांतों का नाभिनाल है। संतुलन खोने पर बड़े से बड़ा सिद्धांत अपनी प्रासंगिकता खो देता है।
विरोधियों को अंडा, अपनों को डंडा!
पहले जब प्रतिस्पर्धियों को अपने खेमे में लाया जाता था तो उनका एक कूलिंग पीरियड होता था। बीजेपी दूसरी पार्टियों से आए नेताओं को पहले अपने संस्कारों में ढालती थी, फिर कुछ ऑफर करती थी। अब मोदी-शाह की बीजेपी ने नियम बदल दिया है। ऐसा लगता है कि बीजेपी खुद हर मौके पर ऑफर हाथों में लेकर खड़ी हो जाती है। जिसे ऑफर पसंद आता है वो कंसल्ट करता है और डील फाइनल। अब कोई कूलिंग पीरियड नहीं, आते ही पाइए। ऐसे में वर्षों से सेवा करते कार्यकर्ता ठगे महसूस करते हैं। ऊपर बताई गई यूपी के कार्यकर्ता की कहानी याद कर लीजिए। सोचिए, एक तरफ दूसरों के लिए आओ और पाओ की नीति जबकि अपनों के लिए लगे रहो का दंड!
विनाश काले विपरीत बुद्धि
यह दंड ही है। मोदी-शाह की बीजेपी के चाल-चलन पर गौर करेंगे तो दिखेगा कि अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को दंड देने की परिपाटी दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही है। दूसरी तरफ जितना घोर विरोधी, उतना बड़ा ऑफर। यह पार्टी के कार्यकर्ताओं से लेकर मतदाताओं एवं विभिन्न क्षेत्रों के समर्थकों तक पर लागू होता है। ऐसा लगता है कि मोदी-शाह की बीजेपी ने यह मान लिया है कि बीजेपी के कार्यकर्ता, मतदाता और समर्थक स्वाभाविक तौर पर निम्नतर होते हैं और विरोध करने वाले सौ फीसदी उच्च कोटि के। फिर प्रतिस्पर्धा या विरोधी और दुश्मन में फर्क होता है। कृपाशंकर सिंह जैसे नेता को न केवल पार्टी में लाना बल्कि तुरंत चुनाव का टिकट देना बताता है कि आज की बीजेपी किस कदर अपनों को छोड़कर दूसरों की तरफ भागती है। लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में बीजेपी की फजीहत के कारणों का विश्लेषण आज भी हो रहा है और सभी मान रहे हैं कि निराश कार्यकर्ताओं ने जोर नहीं लगाया।
बंगाल के वोटरों को छोड़ा, मुसलमानों को ज्यादा हक
ये बीजेपी ही है जिसने पश्चिम बंगाल में अपने मतदाताओं को राज्य प्रायोजित हिंसा का शिकार होने दिया और दिखावे के विरोध-प्रदर्शन के सिवा जमीन पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की ताकि आगे ममता बनर्जी की सरकार, उनकी पार्टी टीएमसी के गुंडे और शासन-प्रशासन बीजेपी समर्थकों को अनुचित रूप से प्रताड़ित करने की सोच भी न सके। लोकसभा के चुनाव हों या विधानसभा के, हर बार बीजेपी को वोट देने वालों की बेरहमी से मारा-पीटा गया, उनकी निर्मम हत्याएं हुईं, घर-बार जला दिए गए, परिजनों पर अत्याचार हुए, औरतों का बलात्कार हुआ, डर के मारे पड़ोसी राज्यों में पलायन करना पड़ा, लेकिन बीजेपी ने उन्हें संरक्षण देने का प्रयास तो छोड़िए, ऐसा जताने की कोशिश भी नहीं की। दूसरी तरफ जो बीजेपी को कभी वोट नहीं देते- मुसलमान। बीजेपी के बड़े-बड़े नेता, प्रवक्ता बड़े गर्व से कहते हैं कि मुसलमानों को उनकी आबादी से ज्यादा केंद्रीय योजनाओं का लाभ दिया जाता है। ध्यान रहे सरकार की योजनाओं में भेदभाव नहीं होना अलग बात है, हक से ज्यादा देना बिल्कुल अलग।
स्टॉकहोम सिंड्रोम में फंसती जा रही बीजेपी
दरअसल, मोदी-शाह की बीजेपी स्टॉकहोम सिंड्रोम का बुरी तरह शिकार हो चुकी है। स्टॉकहोम सिंड्रोम दुश्मनों पर दिल उड़ेलने का द्योतक है। मोदी-शाह की बीजेपी का दिल दुश्मनों के लिए धड़कता है, जितना बड़ा दुश्मन उतना ही ज्यादा प्यार। दिलीप मंडल का मामला ही देख लीजिए। बीजेपी ने मंडल के समानांतर कमंडल की राजनीति का सहारा लिया। आज वह उसी मंडल की राजनीति के प्रचारक से आशीर्वाद पाने को ललायित है! जिंदगी भर बीजेपी की नीतियों का विरोध करने, सामाजिक न्याय की आड़ में जातीय विद्रोह की जमीन तैयार करने में जुटे दिलीप मंडल ने थोड़ा सुर क्या बदला, बीजेपी तुरंत ऑफर लेकर आ गई! वो तो सोशल मीडिया पर खिल्लियां उड़ने लगीं तो उनकी पोस्टिंग को होल्ड कर दिया गया। ये कोई अकेला मामला नहीं है।
जितना कट्टर विरोधी, उतना बड़ा ऑफर
बीजेपी में पद-प्रतिष्ठा मिलने के पैटर्न पर गौर करने से ऐसा लगता है कि अगर किसी को कुछ पाना हो तो बीजेपी की नीतियों का पूरी ताकत से विरोध करना शुरू कर दे। यह शॉर्टकट फॉर्म्युला सिद्ध होता दिख रहा है कि जितने बड़े ऑफर की आकांक्षा हो, उतनी कट्टरता से बीजेपी का विरोध करो और अगर बहुत बड़ा पाना हो तब तो सीधे मोदी-शाह को निशाना बनाओ। बहुत चांस है कि काम बन जाएगा। अगर आप भारत-भारतीयता या सनातन प्रेम में पड़े हैं तो बीजेपी का कोप भोगने को तैयार रहिए। साधु-संत या सनातन प्रेमी छोटा नियम तोड़ते ही जेल जाएंगे, लेकिन मौलाना माइक पर हिंदुओं के संपूर्ण विनाश, भारत को जलाने की बात करे तब भी मौजा ही मौजा। आज हालत यह है कि छोटे-छोटे बच्चे भी उछल-उछल कर नारे लगाते हैं- सर तन से जुदा, सर तन से जुदा।
पहले आतंकी वारदातों में इकट्ठा सौ-दो सौ मरते थे, आज आम हत्याएं हो रही हैं। जिहादियों का अजेंडा परफेक्ट आगे बढ़ रहा है। वो बम विस्फोट से नहीं तो एक-एक कर ही हिंदुओं को निपटा रहे हैं। मोदी-शाह की बीजेपी ने हिंदुओं का स्ट्रीट पावर खत्म कर दिया। इसलिए मुकाबला करना तो दूर, अब हिंदुओं के लिए इस्लामी अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना भी दूभर हो गया। यह अदालतों ने भी भांप लिया है। कई बार अदालतें स्ट्रीट पावर के पक्ष में फैसला देती हैं।
घुसपैठियों पर रहम, हिंदू शरणार्थियों से नजर फेरी
याद कीजिए, दिल्ली में घुसपैठिये रोहिंग्या और बांग्लादेशियों को बसाने की कैसी योजना बनी थी। केंद्रीय शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने मोदी 2.0 सरकार में ट्वीट करके जानकारी दी थी कि दिल्ली में इन घुसपैठियों के लिए आवास योजना लाई जाएगी। इस पर ऐसी फजीहत हुई कि सरकार को कदम वापस खींचने पड़े। दूसरी तरफ मुस्लिम देशों से सबकुछ लुटाकर भारत आए हिंदुओं की दुर्दशा कौन नहीं जानता। इसी दिल्ली के मजनू के टीले पर सैकड़ों हिंदू परिवार आज भी नरक की जिंदगी जी रहे हैं। मोदी सरकार ने उनके लिए कौन सी आवास योजना लाई, कोई बता सकता है?
देश-संस्कृति के विरोधियों को सम्मान!
देवदत्त पटनायक सनातन धर्म के कथाकार की आड़ में सनातन विरोधी एजेंडे पर काम करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं रह गया है। लेकिन सरकार के संस्कृति मंत्रालय की तरफ से कार्यक्रम का आयोजन हुआ तो उसी देवदत्त पटनायक को बतौर वक्ता आमंत्रित किया गया। कई बार ऐसा लगता है कि बीजेपी भारत और भारतीयता के समर्थकों को कोई सहयोग या समर्थन नहीं देती, उलटे इसके भारत और सनातन विरोधी प्रचारकों को प्लैटफॉर्म भी मुहैया कराती है। बीजेपी की लगातार तीसरी बार सरकार बनी है, लेकिन कितने लोगों को आज भी पता है कि सीताराम गोयल और रामस्वरूप कौन थे? अगर ये दोनों वामपंथी खेमे के होते तो आज हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति उनको जानता, उनकी किताबें पढ़ता, उनका उल्लेख करता। सीताराम गोयल ने भारत में मुसलमानों द्वारा ध्वस्त हिंदू मंदिरों की लिस्ट तैयार की है, प्रमाण के साथ। हर भारतीय को सीताराम गोयल और रामस्वरूप की पुस्तकें पढ़नी चाहिए। इंटरनेट पर उनकी सभी पुस्तकें मुफ्त में उपलब्ध हैं।
आडवाणी को अरेस्ट करने वाले बने केंद्रीय मंत्री
ये मोदी-शाह की बीजेपी ही है जिसने रिटायर्ड आईएएस आरके सिंह को न केवल पार्टी जॉइन करवाई बल्कि केंद्रीय मंत्री बनाया। ये वही आरके सिंह हैं जिन्होंने सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा पर निकले लाल कृष्ण आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार करवाया था। कांग्रेस नेता कृपाशंकर सिंह का मामला तो अनोखा ही है। उन्होंने बीजेपी के लिए क्या-क्या नहीं कहा और उन्हें लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पार्टी में लाकर उत्तर प्रदेश की जौनपुर सीट से टिकट भी दे दिया।
‘मुल्ला’ मुलायम को पद्म पुरस्कार, वीर सावरकर की पूछ नहीं
मोदी-शाह की बीजेपी अपने विरोधियों पर कितना मेहरबान रहती है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसकी सरकार ने उस मुलायम सिंह यादव को पद्म पुरस्कार से नवाजा जिन्होंने मुख्यमंत्री रहते अयोध्या में कारसेवकों पर गोलियां चलवाईं। कितनी हैरत की बात है कि अयोध्या आंदोलन की अगुवाई अन्य संगठनों के साथ बीजेपी ने ही की थी। जिन शरद पवार की पार्टी एनसीपी को नैचुरली करप्ट पार्टी कहा गया, उन्हें भी पद्म पुरस्कार इसी सरकार ने दिया। प. बंगाल के दिवंगत मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को मोदी सरकार ने पद्म पुरस्कार ऑफर किया और उन्होंने लेने से इनकार कर दिया। दूसरी तरफ, वीर सावरकर को आज तक भारत रत्न दिए जाने की मांग पर कोई विचार तक नहीं हुआ। कहां मुलायम, शरद, बुद्धदेव और कहां सावरकर। दुश्मनों के प्यार में पड़ी बीजेपी की बुद्धि नहीं मारी गई तो और क्या हुआ? 1968 में एक फिल्म आई थी- आखें। उसमें एक गाना है- गैरों पे करम, अपनों पे सितम… मोदी-शाह की बीजेपी का कुछ यही हाल है। कोई पता कर सकता है कि मणिशंकर अय्यर और दिग्विजय सिंह जैसों को बीजेपी की तरफ से कितनी बार ऑफर्स मिले हैं।