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विकसित दुनिया असहमति की आवाजों को अनदेखा कर दिए जाने तक पहुंच गयी है

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प्रभात पटनायक

दूसरे विश्व युद्ध के बाद के पूरे दौर में, विकसित देशों में अपने अस्तित्व में रहते हुए जनतंत्र, कभी भी इतनी अजीब हालत में नहीं था, जितना आज है। 

जनतंत्र के संबंध में माना जाता है कि इसका अर्थ ऐसी नीतियों का लागू किया जाना है, जो मतदाताओं की इच्छाओं के अनुरूप हों। बेशक, ऐसा नहीं हैं कि सरकारें पहले जनता की इच्छाओं का पता लगाती हों और उसके बाद नीति तय करती हों। जनता की इच्छा और सरकार की नीतियों के बीच अनुरूपता, पूंजीवादी शासन में सामान्य तौर पर इस तरह से सुनिश्चित की जाती है कि पहले सरकार, सत्ताधारी वर्ग के हितों के हिसाब से नीतियां तय करती है और इसके बाद प्रचार मशीनरी के सहारे लोगों को समझाती हैं कि कैसे ये नीतियां अच्छी हैं। 

इस तरह, जनमत और सत्ताधारी वर्ग के तकाजों के बीच अनुरूपता, एक जटिल तंत्र के जरिए हासिल की जाती है, जिसका सार जनमत को घुमाने (manipulation) में छुपा है।

मौलिक मुद्दों पर जनता और सत्ता प्रतिष्ठान का असंबंध

बहरहाल, इस समय जो हो रहा है, इससे बिल्कुल ही अलग है। अपनी ओर केंद्रित सारे प्रचार के बावजूद, जनमत ऐसी नीतियों को चाहता है, जो सत्ताधारी वर्ग द्वारा व्यवस्थित तरीके से चलायी जा रही नीतियों से, बिल्कुल भिन्न हैं। दूसरे शब्दों में सत्ताधारी वर्ग के मनोनुकूल नीतियां, जनमत के साफतौर पर और व्यवस्थित तरीके से उनके खिलाफ होने के बावजूद लागू की जा रही हैं। इसे संभव बनाया जा रहा है, ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों को इन नीतियों के पक्ष में गोलबंद करने के जरिए। यानी राजनीतिक संरचनाओं या पार्टियों के एक विशाल दायरे से, मतदाताओं के बहुमत की इच्छाओं के खिलाफ इन नीतियों का समर्थन कराया जा रहा है। 

इस तरह, वर्तमान स्थिति की पहचान, दो अलग-अलग विशेषताओं से होती है। 

पहली, अधिकांश राजनीतिक संरचनाओं (पार्टियों) के बीच व्यापक सर्वानुमति। और दूसरी, ये पार्टियां जिस चीज पर सहमत हैं उसके और जनता जो चाहती है उसके बीच, अनुरूपता का पूर्ण अभाव। इस तरह की स्थिति, पूंजीवादी जनतंत्र के इतिहास में बहुत ही अभूतपूर्व है। इतना ही नहीं, इन नीतियों का संबंध इस या उस मामले से संबंधित मामूली प्रश्नों से नहीं है बल्कि युद्ध और शांति के मौलिक मुद्दों से है।

अमेरिका का उदाहरण ले लें। तमाम उपलब्ध जनमत सर्वेक्षणों के अनुसार, उस देश में जनता का बहुमत, फिलिस्तीनी जनगण के खिलाफ इस्राइल के नरसंहारकारी युद्ध से स्तंभित है। वे इसके पक्ष में हैं कि अमेरिका इस युद्ध को रुकवाए और इस युद्ध को लंबा खिंचवाने के लिए, इस्राइल के लिए हथियारों की आपूर्ति नहीं करता रहे। लेकिन, अमेरिकी सरकार इससे ठीक उल्टा कर रही है और इसका जोखिम लेकर भी कर रही है कि यह लड़ाई बढ़कर ऐसे युद्ध का रूप ले सकती है, जो समूचे मध्य-पूर्व को अपनी चपेट में ले सकता है। 

इसी प्रकार, अमेरिका में जनमत यूक्रेन युद्ध के जारी रहने के पक्ष में नहीं है। वह वार्ता के जरिए शांति के माध्यम से इस टकराव के अंत के पक्ष में है। लेकिन, अमेरिकी सरकार ने (यूके के साथ मिलकर) व्यवस्थित तरीके से, शांतिपूर्ण समझौते की सभी संभावनाओं को विफल करने का काम किया है। 

पहली बात तो लड़ाई शुरू ही मिन्स्क समझौतों के उसके विरोध ने ही करायी थी, जिसका संदेश तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री, बोरिस जॉन्सन के कीव दौरे के जरिए यूक्रेन को दिया गया था। और अब भी, जब पुतिन ने शांति कायम करने के लिए कुछ प्रस्ताव दिए थे, उसने यूक्रेन को अपना कुस्र्क हमला छेड़ने के लिए उकसाया, जिसने शांति की सारी उम्मीदों को ही खत्म कर दिया।

जनमत के विरुद्ध सत्ता प्रतिष्ठान की सर्वानुमति

यह उल्लेखनीय है कि अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों ही, नेतन्याहू तथा जेलेंस्की को हथियार देते रहने की इस नीति पर सहमत हैं और इसके बावजूद सहमत हैं कि जनमत शांति चाहता है और यूक्रेन के किसी भी दुस्साहस में नाभिकीय टकराव भड़क उठने का खतरा लगा हुआ है।

तमाम प्रचार का निशाना बनाए जाने के बावजूद, जनता क्या चाहती है और राजनीतिक प्रतिष्ठान क्या कर रहा है, उनके बीच इस विरोध से वैसे तो सभी विकसित देश ग्रसित हैं, लेकिन यह विरोध जैसा तीखा जर्मनी में है वैसा और कहीं नहीं है। यूक्रेन युद्ध का सीधे जर्मनी पर जैसा असर पड़ रहा है, वैसा और किसी विकसित देश पर नहीं पड़ रहा है क्योंकि जर्मनी, अपनी ऊर्जा की जरूरतों के लिए पूरी तरह से रूस की प्राकृतिक गैस पर निर्भर था। रूस पर पाबंदियां लगाए जाने से, जर्मनी में गैस की तंगी पैदा हो गयी है और अमेरिका से कहीं महंगे स्थानापन्न के आयात ने, गैस की कीमतों को उस हद तक बढ़ा दिया है, जहां जर्मन मजदूरों के जीवन स्तर पर इससे भारी चोट पड़ रही है। जर्मनी के मजदूर इसका तकाजा करते हैं कि फौरन यूक्रेन युद्ध खत्म हो। लेकिन, इस टकराव के शांतिपूर्ण समाधान में न तो सत्ताधारी गठबंधन कोई दिलचस्पी दिखा रहा है, जिसमें सोशल डेमोक्रेट, फ्री डेमोक्रेट तथा ग्रीन्स शामिल हैं और न ही मुख्य विपक्ष, जिसमें क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स तथा क्रिश्चियन सोशलिस्ट्स शामिल हैं। उल्टे जर्मन राजनीतिक प्रतिष्ठान इसकी आशंकाओं को भड़काने में लगा हुआ है कि रूसी सेनाएं जर्मनी की सीमाओं पर पहुंच जाएंगी, जबकि विडंबनापूर्ण सचाई यह है कि जर्मनी की ही सेनाएं हैं जो इस समय, रूस की सीमाओं पर लिथुआनिया में तैनात हैं!

यूक्रेन युद्ध को खत्म कराने की अपनी बदहवासी में, जर्मन मेहनतकश नव-फासीवादी, एएफडी ओर रुख कर रहे हैं, जो युद्ध के खिलाफ होने दिखावा करती है (हालांकि हम जानते हैं कि सत्ता के कहीं आस-पास भी आते ही, यह पार्टी अपरिहार्य रूप से अपने इस वादे को तोड़ देगी) और लोग सहरा वागेननेख्त की नयी वामपंथी पार्टी की ओर रुख कर रहे हैं, जिसने युद्ध के मुद्दे पर ही, अपनी मातृ पार्टी डाइ लिंके से टूट कर अलग रास्ता अपनाया है।

जनमत के विरुद्ध एकता: असली मुद्दे गायब

ठीक यही बात गज़ा में नरसंहार के प्रति जर्मनों के रुख के संबंध में भी सच है। जहां जर्मन आबादी का अधिकांश इस नरसंहार के खिलाफ है, जर्मन सरकार ने इस्राइली नरसंहार के हर तरह के विरोध को इस आधार पर वास्तव में जुर्म ही बना दिया है कि यह ‘‘सामी-विरोध’’ या यहूदीविरोध है। उसने तो नरसंहार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए आयोजित की जा रही है उस कन्वेंशन तक को नहीं होने दिया, जिसमें यानिस वरोफकिस जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त वक्ताओं को आमंत्रित किया गया था। 

इस्राइल के हमले के हर प्रकार के विरोध को पीटने के लिए लाठी की तरह ‘‘सामी-विरोध’’ की दलील का इस्तेमाल, अन्य विकसित देशों में भी फैला हुआ है। ब्रिटेन में, लेबर पार्टी के पूर्व-नेता, जेरेमी कॉर्बिन को कथित रूप से ‘‘सामी-विरोधी’’ होने के नाम पर, लेकिन वास्तव में फिलिस्तीनी लक्ष्य के लिए उनके समर्थन की वजह से, उनकी अपनी पार्टी से ही निकाल दिया गया। और अमेरिका में, शिक्षा परिसरों के अधिकारियों ने, देश भर में शिक्षा परिसरों में फिलिस्तीन के मुद्दे पर फूटे विरोध प्रदर्शनों के खिलाफ इसी आरोप का इस्तेमाल किया था।

जनमत की ओर से मुंंह फेरकर चले जाने यह काम सामान्य रूप से किया जाता है, युद्ध और शांति के इन ज्वलंत प्रश्नों को राजनीतिक बहस के दायरे से पूरी तरह से बाहर ही रखे जाने के जरिए। मिसाल के तौर अमेरिका के आगामी राष्ट्रपति चुनाव में चूंकि दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वी, डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस इस्राइल के लिए हथियारों की आपूर्ति पर एक राय हैं, राष्ट्रपति चुनाव की किसी भी बहस में या राष्ट्रपति पद के लिए किसी अभियान में, यह मुद्दा आने ही नहीं जा रहा है। जहां अन्य मुद्दे, जिन पर उनके बीच मतभेद हैं, बहस के केंद्र में बने रहेंगे, वहीं यह महत्वपूर्ण मुद्दा जो जनता को प्रभावित करता है और जिस पर जनता की राय, इन प्रतिद्वंद्वियों से भिन्न है, बहस का मुद्दा बनने ही नहीं जा रहा है।

इस्राइल समर्थक बड़ी पूंजी का खेल

इस्राइली कार्रवाइयों के लिए राजनीतिक प्रतिष्ठान  के समर्थन का एक कारण, जो कि नगण्य सा कारण किसी तरह नहीं है, इस तरह के समर्थन के लिए, इस्राइल परस्त दानदाताओं से उदारता से मिलने वाला चंदा है। डेल्फी इनीशिएटिव  (21 अगस्त) की एक रिपोर्ट के अनुसार, ब्रिटेन में लेबर पार्टी के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री, केर स्टॉर्मर के आधे मंत्रिमंडल को इस बार का चुनाव लड़ने के लिए, जिसके फलस्वरूप वे सत्ता में आए हैं, इस्राइल-परस्त स्रोतों से पैसा मिला था। इसी पत्रिका के उसी अंक में यह खबर भी आयी थी कि ब्रिटिश संसद के कंजर्वेटिव सदस्यों में से एक-तिहाई को चुनाव के लिए, इस्राइल-परस्त स्रोतों से पैसा मिला था। दूसरे शब्दों में इस्राइल-परस्तों का पैसा ब्रिटेन में दोनों प्रमुख पार्टियों को उपलब्ध था। यह इस्राइली कार्रवाइयों के लिए समर्थन को, एक उभयपक्षीय मामला बना देता है।

दूसरी ओर, फिलिस्तीन का साथ देने वालों के साथ क्या होता है, अमेरिकी कांग्रेस के दो सदस्यों, जमाल बोमेन और कोरी बुश के मामलों से स्पष्ट हो जाता है। ये दोनों ही अश्वेत प्रगतिशील प्रतिनिधि थे, जो फिलिस्तीनी लक्ष्यों के समर्थक हैं और इस्राइली नरसंहार के कठोर आलोचक हैं। इन दोनों को ही अमेरिकन-इस्राइल पब्लिक अफेयर्स कमेटी (एआईपीएसी) के हस्तक्षेप से चुनाव में हरवा दिया गया। इस इस्राइल परस्त ताकतवर लॉबी ने इस काम के लिए करोड़ों डालर खर्च किए थे। डेल्फी इनीशिएटिव की 31 अगस्त की खबर के अनुसार, बोमेन को हरवाने के लिए 1 करोड़ 70 लाख डालर खर्च किए गए थे और कोरी बुश के खिलाफ विज्ञापन अभियान में 90 लाख डालर खर्च किए गए थे। यह दिलचस्प है कि कोरी बुश के खिलाफ अभियान में, गज़ा पर इस्राइल के हमले का जिक्र ही नहीं किया गया क्योंकि एआईपीएसी को पता था कि इस खास मुद्दे पर जनता ने, कैरी बुश को ही समर्थन दिया होता, न कि उनके प्रतिद्वंद्वी को और इसने तो उन्हें हराने के इस लॉबी के मंसूबों पर ही पानी फेर दिया होता। 

इस सब का कुल मिलाकर यही अर्थ है कि विकसित देशों में, सभी को प्रभावित करने वाले, युद्ध और शांति जैसे मुद्दे पर एक बुनियादी फैसला, अपनी जनता की इच्छाओं के ही खिलाफ एक ऐसे राजनीतिक प्रतिष्ठान द्वारा लिया जा रहा है, जिसका वित्त पोषण निहित स्वार्थी लॉबियों द्वारा किया जा रहा है।

इस तरह विकसित दुनिया, प्रचार के जरिए ‘असहमतियों के मेनिपुलेशन’ से संक्रमण कर, असहमति की आवाजों को और यहां तक कि बहुत की असहमति की आवाजों को भी, जो प्रचार से अप्रभावित साबित हो रही हों, पूरी तरह से अनदेखा कर दिए जाने तक पहुंच गयी है। यह जनतंत्र के क्षीणन के एक नये चरण को दिखाता है, एक ऐसा चरण जिसकी पहचान राजनीतिक प्रतिष्ठान  के अभूतपूर्व नैतिक दीवालियापन से होती है। परंपरागत राजनीतिक प्रतिष्ठान  का इस प्रकार का दीवालियापन, फासीवाद के विकास के लिए पृष्ठभूमि भी मुहैया कराता है। बहरहाल, फासीवाद चाहे वास्तव में सत्ता में आए या नहीं आए, विकसित समाजों में जनतंत्र के क्षीणन (attenuation) ने जनता को पहले ही अभूतपूर्व हद तक अधिकारहीन बना दिया है। 

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। )

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