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सरकारों की तकदीर तय करने वाला सबसे बड़ा मुद्दा बना रोजगार

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लाल बहादुर सिंह

बेरोजगारी का आलम यह है कि इजराइल के खतरनाक वार जोन में काम करने के लिए भारतीय युवा जा रहे हैं। पांच हजार युवा पहले से वहां पहुंच चुके हैं और दस हजार और जाने को तैयार हैं। इजराइल इस समय पुणे में कुशल निर्माण मजदूरों की भर्ती कर रहा है। ठीक इसी तरह तमाम युवा रूस गए जिसमें से कई की अब तक रूस-यूक्रेन युद्ध में मौत हो चुकी है।

स्वयं सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार बेरोजगारी दर में कोई सुधार नहीं हो रहा है। वह ज्यों की त्यों बनी हुई है। इसी तरह रोजगार सृजन का जो मुख्य क्षेत्र है मैन्युफैक्चरिंग, उसमें कोई वृद्धि नहीं हो रही है। यह सबसे चिंता का विषय है।

LFPR में जो वृद्धि दिख रही है, वह दरअसल कृषि क्षेत्र में जो शहर से बेरोजगार लौटे मजदूरों का unpaid फैमिली लेबर है, उसके कारण दिख रहा है।

प्रो. संतोष मेहरोत्रा के अनुसार यह प्रगति की बजाय और अधिक निराशाजनक स्थिति का संकेत है। विकासमान अर्थव्यवस्था में लोगों को गांव से शहर की ओर जाना चाहिए, यहां उल्टी दिशा में पलायन हो रहा है।

याद कीजिए 2014 में मोदी के आने के बाद स्किल विकास का कितना ढिंढोरा पीटा गया, लेकिन आज स्थिति यह है कि तमाम उद्योग यह कह रहे हैं कि युवाओं में स्किल है ही नहीं, जिससे उन्हें रोजगार मिल सके!

दावा किया जा रहा है कि यूपी में MSME की 96 लाख इकाइयां हैं, जबकि पूरे देश में 2.19 करोड़। प्रथमदृष्ट्या यह आंकड़ा ही सही नहीं लगता। अगर इसे मान भी लिया जाय तो असल सवाल तो यह है कि इनसे कितना रोजगार सृजन हुआ है।

और आउटपुट के मामले में क्यों महाराष्ट्र और तमिलनाडु अव्वल हैं और यूपी क्यों इतना पिछड़ा हुआ है? दरअसल रोजगार के सवाल पर सरकारें बहुत कुछ छिपा रही हैं।

यह अनायास नहीं है कि चुनावी राज्यों हरियाणा और जम्मू कश्मीर दोनों जगह रोजगार सर्वप्रमुख मुद्दा बना हुआ है। बेरोजगारी के कारण होने वाला विदेशों की ओर पलायन और नशाखोरी भी बड़े मुद्दे बने हुए हैं।

हाल ही में हरियाणा में सफाईकर्मी पद की भर्ती के लिए 40 हजार स्नातक तथा 6500 परास्नातक युवाओं ने अप्लाई किया है। गौरतलब है कि हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में भी बेरोजगारी और महंगाई ही छाए रहे। भाजपा को बहुमत न मिल पाने में शायद बेरोजगारी के मुद्दे की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही।

यह संतोष की बात है कि युवा मंच जैसे संगठन इसे मुद्दा बनाए हुए हैं। इस सिलसिले में 10 नवम्बर को रोजगार अधिकार अभियान की दिल्ली में बैठक होने जा रही है। उनके बयान में कहा गया है, “देश में आजादी के बाद आज सबसे ज्यादा रोजगार का संकट मौजूद है।

श्रम शक्ति का इतना बड़ा विनाश इससे पहले कभी नहीं हुआ है। आईआईटी जैसे प्रसिद्ध संस्थाओं से भी पढ़े नौजवानों का प्लेसमेंट नहीं हो पा रहा है। इस साल आईआईटी में पढ़े 38% नौजवानों को नौकरी नहीं मिल सकी है। चपरासी, सफाई कर्मचारी के पदों यहां तक कि आउटसोर्सिंग व संविदा कार्य में बड़ी संख्या में उच्च शिक्षा प्राप्त नौजवान आवेदन कर रहे हैं।

मोदी सरकार द्वारा 10 साल पहले केंद्र सरकार के खाली 10 लाख पदों को मिशन मोड में भरने की घोषणा आज तक लागू नहीं हो सकी है। उलटे केंद्र सरकार ने रेलवे, बैंक, बीमा, डाक जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों में लाखों पदों को खत्म कर दिया।

उत्तर प्रदेश सरकार भी पिछले 3 सालों से यही कह रही है कि जितने खाली पद है उन पर तत्काल भर्ती होगी जबकि सच्चाई यह है कि अभी तक वह भर्ती शुरू तक नहीं हो सकी। देश में सरकारी विभागों मे करीब एक करोड़ पद खाली है जिन पर तत्काल भर्ती की जरूरत है।”

युवा नेताओं ने कहा कि रोजगार का सवाल हल किया जा सकता है बशर्ते नीतियों में बदलाव हो। देश में संसाधनों की कोई कमी नहीं है। यदि सुपर रिच तबकों की संपत्ति पर टैक्स लगाया जाए तो हर नागरिक के रोजगार के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, कर्मचारियों को ओल्ड पेंशन स्कीम आदि सामाजिक सुरक्षा का लाभ दिया जा सकता है।

शिक्षा के लगातार निजीकरण के चलते बड़े पैमाने पर नौजवानों को शिक्षा से वंचित होना पड़ रहा है। सरकारी यूनिवर्सिटीज और डिग्री कॉलेज में भी सेल्फ फाइनेंस के नाम पर जो कोर्स चलाए जा रहे हैं, उनकी फीस बहुत ज्यादा है और बच्चे उसमें पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं।

दरअसल इस समय दुनियां के तमाम इलाकों में बेरोजगारी और आर्थिक संकट की राजनीतिक अभिव्यक्ति देखी जा सकती है।इस श्रृंखला में सबसे ताजा कड़ी हमारा पड़ोसी श्रीलंका है। वहां हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव में जनता ने नवउदारवादी रास्ते की पैरोकार दोनों पार्टियों को खारिज करके नए रास्ते का वायदा करने वाले आनुरा कुमार दिशानायके को राष्ट्रपति चुना है।

वैसे तो AKD की पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा का दल मानी जाती है जो हथियारबंद संघर्षों के बीच से निकली है, लेकिन एक दौर में सिंहली अंधराष्ट्रवाद के पक्ष में खड़ा होकर तमिलों के ऊपर उनके द्वारा हमला उनके इतिहास पर काला धब्बा है।

यहां तक कि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान वहां प्रचार करते हुए भी उन्होंने कुछ ऐसा नहीं कहा जिससे यह पता लगे कि अपने उस अतीत को लेकर उन्हें कोई पश्चातताप है या वे उसके प्रति आत्म आलोचनात्मक रुख अख्तियार कर रहे हैं। दरअसल इसी कारण तमिल बहुल उत्तरी इलाके में उन्हें सबसे कम मत मिला।

बहरहाल आर्थिक रूप से बदहाल जनता ने चौतरफा सुधार और अपनी जिंदगी में बेहतरी के लिए श्रीलंका में वोट किया है। जनता दोनों स्थापित शासक पार्टियों के चरम भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद और सबसे बढ़कर विभाजनकारी राजनीति से ऊब चुकी थी।

2022 में जो आरागलया (संघर्ष) हुआ वह मूलतः अर्थव्यवस्था के ध्वस्त होने के खिलाफ जनता का विद्रोह था, जिसमें राष्ट्रपति राजपक्षे को देश छोड़कर भागना पड़ा था। एक तरह से उसी जनक्रांति ने आज के परिणाम की जमीन तैयार की।

हाल ही में बांग्लादेश में जो राजनीतिक उथल पुथल हुई और जिसमें देश की मुखिया शेख हसीना को देश छोड़कर भागना पड़ा, उसका तात्कालिक कारण भले सरकार की आरक्षण नीति थी, लेकिन वह भी मूलतः बेरोजगारी और तानाशाही के खिलाफ युवाओं का विद्रोह था।

इसके पूर्व फ्रांस में भी जनता ने न सिर्फ धुर दक्षिणपंथी नव फासीवादी दल को तीसरे नंबर पर धकेल दिया बल्कि नवउदारवादी मध्यमार्गी दलों को भी पछाड़ते हुए वामपंथी दल को सबसे आगे खड़ा कर दिया।

वामपंथी दलों ने वहां नव उदारवादी नीतियों से रेडिकल अलगाव करते हुए प्रगतिशील आर्थिक कार्यक्रम की घोषणा किया था। यह अलग बात है कि फ्रांस के शासक वर्ग के प्रतिनिधि के बतौर वहां के राष्ट्रपति मैक्रों ने वामपंथी सरकार नहीं बनने दिया, नव फासीवादी पार्टी से हाथ मिलाकर दक्षिणपंथी सरकार का गठन कर लिया।

जाहिर है यह जनादेश का खुला अपमान था जिसके खिलाफ फ्रांस का लोकतांत्रिक जनमत सड़कों पर उतरा हुआ है।

दरअसल यह सब कुछ अब नव-उदारवाद के विरुद्ध वैश्विक परिघटना बन चुका है। दुनिया के अलग-अलग इलाकों में लैटिन अमेरिका, मैक्सिको से यूरोप, अफ्रीका से एशिया तक जनता जगह-जगह इन नीतियों के खिलाफ विभिन्न रूपों में प्रतिरोध में उतर रही है।

उम्मीद है आने वाले दिनों में रोजगार पैदा करने वाली अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए युवा आंदोलन और तेज होगा और निर्णायक मुकाम तक पहुंचेगा।

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