रिया यादव
नए नए पैदा हुए पुरुष अधिकार रक्षक जिनकी अभी सही से दाढ़ी मूँछ भी नहीं आयी हैं जब मुझें पुरुषों पर होने वाले अत्याचारों के लिंक भेजते हैं तो मेरे दिलो दिमाग मे एक खतरनाक अट्टहास होता हैं. इसलिये नहीं कि मैं इन खबरों को झूठ समझती बल्कि इसलिए कि ये कुक्कुरमुत्ते की तरह उगे नए नए पुरुषवादी यह नहीं जानते कि वो जिस शब्द के बारे में अभी सुन रहे हैं मैं उसकी सच्चाई जानकर ही बाहर आई हूँ।
पुरुषवाद, पुरुष आयोग आदि के बारे में मैंने पहली बार 2013 में सुना था जब मैं डॉ. मानवश्री के एक शिविर में उनकी स्प्रिचुअल सेक्स साधिका थी।
कॉन्सेप्ट बहुत आकर्षक था तो इसके बारे में और गहराई में जानने की इच्छा हुई. फिर इस विषय पर काम करने वाले बहुत से लोगों से ऑनलाइन जुड़ना हुआ. कुछ नामी लोग भी थे जिनका MRA (Mens Right Association) में काफी नाम है. इस सच को भी मैंने बहुत अच्छे से जाना कि आजकल महिलाएं ही महिलाओं के लिए बने कानूनों का जमकर गलत इस्तेमाल करती है।
2013 से ही ऐसी कई संस्थाओं के साथ जुड़ना हुआ जो इस मुद्दे पर लोगो को जागरूक करने और ऐसी स्थिति में फंसे पुरुषों की मदद करती थी।
शुरू में यह सब बहुत अच्छा था, लोग भी सही काम कर करे थे, फिर हुआ ये कि यहाँ भी राजनीति शुरू हुई, आंदोलन की कमान सही लोगों की बजाय गलत लोगो के हाथ आ गयी या यूँ कहिये की बंदर के हाथ उस्तरा आ गया।
जिस आंदोलन को पुरूष को झूठे आरोपों से मदद के लिए बनाया गया था उसका उद्देश्य बस येन केन प्रकारेण पुरुष अपराधियो को बचाने का हो गया था। तर्क ये था कि यही काम मे जब महिला अपराधी को जेल नहीं होती तो पुरुष को क्यूँ हो।
पुरुष अपराधियों की फांसी का विरोध किया जाता इस मुद्दे पर की पुणे की दो बहनों द्वारा दर्जनों बच्चों की हत्या के बाद भी उन्हें फाँसी नहीं दी गयी तो पुरुषों को क्यूँ दी जाती है, यहाँ पुरुष अपराध गौण हो गया था।
सबसे बड़ा झटका मुझें तब लगा जब निर्भया मामले में इस पुरुष आयोग में शामिल बहुत से लोगो ने निर्भया ब्लात्कार को बेवजह का तूल बताते हुए अपराधियों की फाँसी का विरोध किया था। ( Nirbhaya’s Accused lawyer A.P Singh also a part of MRA)
2015 तक आते आते इस आंदोलन की कमान ऐसे लोगों के हाथ मे आ गयी जिन्हें इस मुद्दे पर कोई वास्तविक काम नहीं करना था बस पुरुषों को महिलाओं के विरुद्ध करना था। अपने सोशल मीडिया फॉलोवर बढ़ाना था। उनकी नज़र में दुनिया की हर समस्या की वजह औरत थी और समाधान पुरुष।
ले दे कर ये आंदोलन अजीब तर्कों पर सिमट कर बस पुरुषों को बचाने तक सीमित हो गया, महिला कर्मचारी रिश्वत पर गिरफ्तार नहीं होती तो पुरुष क्यूँ हो.
नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ो के तर्क दिये जाते की समाज मे पुरुष आत्महत्या ज्यादा होती है…. बेशक होती है लेकिन क्या सभी आत्महत्याएं घरेलू मामलों या पत्नी द्वारा प्रताड़ित होने पर होती है?? आर्थिक, सामाजिक और भी कारण होते हैं।
पुरुष भी प्रताड़ित हैं इस सत्य पर आप दूसरे सत्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि बहुत सी महिलाएं, पत्नियां घरेलू हिंसा से पीड़ित है, इनके हिसाब से घरेलू हिंसा नाम की कोई चीज़ नहीं होती और ब्लात्कार किसी स्त्री का नहीं होता, बच्चीयों के ब्लात्कार पर ये लोग चुप्पी साध लेते थे।
धीरे धीरे इन लोगो का काम बस सोशल मीडिया पर महिलाओं को गाली देने, अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने और पुरुष अपराधियों को बचाने तक सीमित हो गया.
कहीं भी महिलाओं के पक्ष में लिखें गए लेख पर ये पुरुषवादी अपने पूरे समूह के साथ आते और लेखक/लेखिका पर निजी हमला कर देते।
जिसमें इतनी बेहूदा व अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया जाता था कि कोई भी सभ्य इंसान शर्मिंदा हो जाये। खास बात ये थी इनमें कुछ महिलाएं भी शामिल थी।
पुरुषवाद को करीब से देखने के बाद खुद को इससे दूर करना ही सही लगा, असल मे जितना जहरीला नारीवाद हैं उतना ही जहरीला पुरुषवाद भी। दोनों में बस खुद को श्रेष्ठ दिखाने की होड़ हैं।
जबकि सत्य ये है कि न तो पुरुष श्रेष्ट हैं न स्त्री, दोनों की अपनी अलग महत्ता हैं और एक दूसरे के बिना दोनों अपूर्ण हैं। श्रेष्ट तभी होते हैं जब स्त्री व पुरूष दोनों अपने भेदों व कमजोरियों के साथ एक दूसरे को स्वीकार कर एक होते है।
समाज मे न अकेले पुरुष का कोई महत्व है न ही अकेली स्त्री का।
तो नए नए पुरुषवादियो, स्कूल, कॉलेज passout लड़को कृपया मुझें पुरुषवाद पर ज्ञान न दे। जितना आपकी खोपड़ी में नहीं गया उससे ज्यादा मैं थूक चुकी हूँ। (चेतना विकास मिशन).
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