अग्नि आलोक
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स्त्री, पुरुष और प्रकृति

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          सोनी कुमारी 

स्त्री और पुरुष की शारीरिक संरचना में बदलाव है, मानसिकता में भी बदलाव है, और आत्मिक स्तर पर भी यह बदलाव दृष्टिगोचर होता है।

स्त्री :
अर्थात्, स् + त्र् + ई ।

  • स् का अर्थ है स्थित होना, धारण करना,
  • त्र् का अर्थ है तीन गुण,
  • ई का अर्थ है कामना।
  • स्त्री का अर्थ हुआ :
    वह मनुष्य ‌जो तीनों गुणों में बद्ध होकर कामनाओं को धारण करता है, उनमें ही रमण करता है।
    वैदिक संस्कृति में मान्यता है कि सृष्टि तीन गुणों से आप्लावित है, सत्त्व-गुण, रज-गुण और तम-गुण।

पुरुष :
अर्थात्, पुर् + उष्।

  • पुर् है नवद्वारों की मनुष्य देह, और
  • उष् है ऊर्ध्व चेतना, उषाकाल जैसा प्रकाश, आत्मप्रकाश जो मूर्धा में
    प्रकट होता है।
  • पुरुष वह मनुष्य है,
    जिसने आत्मप्रकाश का बोध/दर्शन कर लिया है, सूक्ष्म ‌इडा़, पिंगला तथा सुषुम्ना नाड़ियों को जाग्रत कर, हृदयस्थ अनाहत चक्र में, सुषुप्तावस्था में, महर्लोक में। ऐसे पुरुष को द्विज कहा गया है, यज्ञोपवीत संस्कार के अंतर्गत।
    ऐसा पुरुष निष्काम होकर तीनों गुणों में वर्त्तता है। त्रिगुणात्मिका स्व-प्रकृति, माया का स्वामी माना गया है। यही पुरुषार्थ है, पुरुष होना है।
    इसका सरल उपाय श्रीमद्भगवद्गीता में है, निष्काम कर्मयोग, अर्थात्, कर्मफल में आसक्ति/आश्रित हुए बिना ‌कर्त्तव्य कर्म करना। ऐसे पुरुष को‌ ही योगी और संन्यासी कहा गया है, अध्याय ६, श्लोक १ में।
    अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।
    स संन्यासी च योगी च निर् अग्निर्,न च अक्रिय:॥
    ऐसा पुरुष ही संन्यासी है, योगी है, चाहे वह गृहस्थाश्रम में, परिवार में हो, या फिर संन्यास आश्रम में विरक्त साधु हो, न कि क्रियाविहीन तथा अग्नि से विमुख रहने वाला।

प्रकृति :
कर्म किए बिना कोई भी मनुष्य नहीं रह सकता तथा कर्म प्रकृति ही करती है, अहंकार तत्त्व से। मूढ़ जन अहंकार के वशीभूत होकर यह मान लेते हैं कि वह स्वयं कर्त्ता हैं।
“प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकार विमूढा़त्मा कर्त्ता अहं इति मन्यते ॥”
~श्रीमद्भगवद्गीता ( 3.27 )

हां, पुरुष कामदेव को भस्म कर, निष्काम होकर, बिना किसी विशेष धारणा या संकल्प के, ध्यान-योग में, अथवा कर्मफल में निर्लिप्त, अनासक्त, अनाश्रित रह कर, स्व-प्रकृति का स्वामित्व प्राप्त कर सकता है।
ध्यान-योग, योगासन तथा प्राणायाम, अत्युत्तम विधा है जिससे, निष्काम तप और निष्काम कर्म, दोनों का संयोजन संभव है। आत्मबोध इसी विधा का सृष्टि में परिपक्व ‌श्रेष्ठतम फल है।

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