वह शोषितों के पैगंबर, अन्यायी अधिकार तंत्र के खंडक और गांधी के बाद भारत के मामूली, गरीब आदमी के प्रवक्ता थे। वे निष्णात विद्वान, निस्वार्थ देशभक्त और मुक्त मानव के मसीहा थे। देश के लगभग सबसे बड़े मौलिक राजनीतिक विचारक थे। लोहिया थे, जो अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं की व्यापकता से लेकर सांख्यिकी की सूक्ष्मतम जानकारियों तक लैस होकर राजनीतिक मंच पर उतरे थे।
कनक तिवारी,
1. राममनोहर लोहिया ने क्रांतिकारियों सा जीवन जिया, लेकिन अकाल मौत पाई। सत्तावन वर्षों का उनका जीवन नये भारत के विद्रोही इतिहास का दहकता दस्तावेज है। गांधी का चिंतन, सुभाष का ओज और अपनी मौलिकता के साथ जिये थे लोहिया , जिन्होंने स्वातंत्र्योत्तर भारत की नई पीढ़ी में विद्रोह की सांस फूंकी थी।
वह शोषितों के पैगंबर, अन्यायी अधिकार तंत्र के खंडक और गांधी के बाद भारत के मामूली, गरीब आदमी के प्रवक्ता थे। वे निष्णात विद्वान, निस्वार्थ देशभक्त और मुक्त मानव के मसीहा थे। देश के लगभग सबसे बड़े मौलिक राजनीतिक विचारक थे। लोहिया थे, जो अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं की व्यापकता से लेकर सांख्यिकी की सूक्ष्मतम जानकारियों तक लैस होकर राजनीतिक मंच पर उतरे थे।
उनकी अनुपस्थिति में आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन निस्तेज और समाजवादी आंदोलन स्पंदनहीन हो गया है।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में अपने ही राष्ट्रीय परिवेश में मामूली आदमी के अजनबीपन को खत्म करने और उसकी आत्मा के तादात्म्य की स्थापना की जोरदार कोशिश ने लोहिया को राजनीति में अपने हाथों नई राहें तोड़ने के लिए मजबूर किया।
उनका संपूर्ण जीवन गूढ़ राजनयिक मसलों को भी साधारण आदमी की प्रतिक्रिया के दायरे में डाल देने का सचेतन प्रयास था। राजनीति लोहिया के लिए खुला आसमान था। प्रख्यात अंग्रेज दार्शनिक लेखक बेकन की तरह लोहिया सगर्व यह उद्घोषणा कर सकते थे कि –
“All Knowledge is my province”.
एक मूर्धन्य चिंतक होने के अतिरिक्त लोहिया मृत्युपर्यन्त असाधारण कर्मठता के साथ अपने आदर्शों को साकार करने की दिशा में सतत क्रियाशील रहे। स्वतंत्र भारत में उनसे बड़ा सैनिक ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा। अंततः स्वाधीन भारत की संघर्षधर्मी चेतना के सबसे बड़े जानदार प्रवक्ता के रूप में इतिहास ने उन्हें स्वीकारा भी।
2. लोहिया बहुआयामी व्यक्ति थे। यह कहना ज्यादा उचित होगा कि वैसे तो हर व्यक्ति बहुआयामी होता है। उसके एक हिस्से पर प्रकाश डालने से उस व्यक्ति का सांकेतिक परिचय भर होता है, आकलन नहीं। भारतीय राजनीति के सिरमौर तिलक, गांधी और नेहरू जैसे लोग और मौलाना आजाद भी अद्भुत बौद्धिक प्रतिभा के धनी थे। डाॅ. राममनोहर लोहिया इन तमाम महत्वपूर्ण विचारकों के साथ चलते हुए भी,कभी कभी उनसे छिटक जाते हैं। वे जिस पगडंडी पर चलते हैं, वह उनकी स्वतः की निर्मिति होती है। लोहिया के साथ दिक्कत यह है कि उन पर भारतीय इतिहास ने अपनी नजर ठीक से नहीं डाली। बौद्धिकों में उनका असाधारण प्रभाव था। इसके बावजूद उनके इंद्रधनुषी व्यक्तित्व का विस्तृत आलोचनात्मक अध्ययन उपलब्ध नहीं है। लोहिया को समझने की कोशिश करना कम से कम बीसवीं सदी के ताजा इतिहास और सर्वज्ञात भारतीय ऋषि परंपराओं सहित अधुनातन पश्चिमी विचार को खंगालने का साहसिक उपक्रम है।
3. लोहिया में अदभुत मौलिकता होने के साथ साथ एक चिंतक का एकाकीपन भी है। गांधी को लेकर भी लोहिया में अंधभक्ति नहीं थी। उन्होंने कई मुद्दों और मौकों पर गांधी के विचार को संशोधित करने के प्रयत्न किये हैं। पूरी मनुष्य जाति में एकता के पक्षधर लोहिया को विदेशी जननायकों ने भी आकर्षित किया था। लोहिया ने भी अपनी विदेश यात्राओं के दौरान अपने युवा चिंतन से उन्हें सराबोर किया। जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें कई बार महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौपनी भी चाहीं लेकिन अपने असमझौतावादी रुख के कारण लोहिया ने ऐसे प्रस्तावों को खारिज कर दिया।
देश की समृद्ध ऐतिहासिक परंपराओं के प्रति लोहिया की वैज्ञानिक समझ अपने समय के लिए एक नया दृष्टिबोध तैयार करती थी। उनकी उपस्थिति भारतीय राजनीति और जनजीवन को स्पंदित करती रहती थी। लोहिया ने जयप्रकाश नारायण को पत्र लिखकर अपनी यह परेशानी भी बताई थी कि,यदि जयप्रकाश समाजवादी आंदोलन में मैदानी राजनीति का मोर्चा संभाल लें और लोहिया के लिए बौद्धिक विचार और चिंतन का क्षेत्र छोड़ दिया जाए तो वे दोनों मिलकर देश की राजनीति में महत्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं।
लोहिया के निधन के आठ दस वर्ष बाद जयप्रकाश नारायण ने जब खुद को जन युद्ध में झोंक दिया तो भारतीय राजनीति के कुतुबनुमा बन गये। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। लोहिया चले गये थे। जयप्रकाश काफी अशक्त हो चले थे। भारतीय राजनीति में शीर्ष नेताओं में लोहिया की तरह बहुविध आयामों के बहुत कम नेता हुए हैं।
4. लोहिया प्रचलित अर्थ में धार्मिक नहीं थे। स्वयं को नास्तिक घोषित करते थे। यद्यपि अपनी व्यापक मानवीय संवेदनशीलता के आधार पर सच्चे अर्थों में साधु पुरुष थे। व्यापक सामाजिक जीवन की पृष्ठभूमि में रहकर भी एकाकीपन लोहिया की नियति बन गया था। उन्हें दरिद्रनारायण की पीड़ा से असीम प्यार था। सारी विनोदप्रियता के बावजूद उनका व्यक्तित्व वेदनामय ही रहा। अपनी मजबूत कूटनीतिक व्यूहरचना के बावजूद लोहिया हथकंडों की राजनीति नहीं सीख पाये।
अपनी असफलताओं के बावजूद लोहिया की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि वह संभावनाओं के जननायक थे। परिस्थितियों के तेज परिवर्तन ने उन्हें भावी इतिहास में जो जगह दी होती,उसका आभास लोकसभा में उनके प्रथम प्रवेश से ही हो चला था।
उनमें एक प्रधानमंत्री, राष्ट्रपिता या इस पीढ़ी के शीर्षस्थ विचारक की शक्ल उभर रही थी। अपने आखिरी दिनों में वे उपेक्षित और अनुद्घाटित प्रश्नों के अनाथालय बन गये थे। लोहिया मजाक या चुटकुले का पर्याय नहीं रह गये थे। अपने कुंवारेपन से उपजे आवेश के बावजूद लोहिया गंभीरता से स्वीकार्य हो चले थे। वह वस्तुतः एकाकी लेकिन भीड़ द्वारा स्वयं को अपनाये जाने के लिए सदैव तत्पर थे।
मरणासन्न लोहिया में देश ने अपना भविष्य धुंधलाते देखा, यही दुर्भाग्य है।
— श्री कनक तिवारी,
सुविख्यात चिंतक, लेखक, राजनीतिज्ञ और
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के पूर्व महाधिवक्ता