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नहीं रहे जेपी आंदोलन के सिपाही राजीव ….कुछ श्रद्धांजलियां

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(राजीव हेमकेशव हां यही नाम है। यह आदर्श के उस उच्च रूप और सपने का गवाह है जिसे राजीव पाना चाहते थे। राजीव अपनी जाति की जगह अपने मां-पिता के नाम को ही अपना उपनाम बना दिए थे। यह जेपी आंदोलन के आदर्शों का असर था। राजीव तो जेपी आंदोलन में ही पगे थे। उसकी छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के अभिन्न हिस्से थे। और जेपी के उस सपने को आज तक जिंदा किए हुए थे। जिसे कई लोगों ने ले जाकर या तो सत्ता की गलियों में भटका दिया या फिर किसी दूसरे किस्म के अवसरवाद के शिकार हो गए। लेकिन राजीव ने वह मशाल आज भी जिंदा रखी थी। वैकल्पिक समाज का निर्माण और उसकी चाहत तथा चिंता आखिरी वक्त तक उनके जीवन का प्रमुख कार्यभार बना रहा। सत्ता की कोई बड़ी से बड़ी ताकत भी उन्हें अपने प्रभाव में नहीं ले सकी और न ही किसी दूसरी लालच के वह शिकार बने। पद का मोह और प्रतिष्ठा पाने की चाहत उनमें कहीं दूर-दूर तक नहीं थी। कह सकते हैं कि अपने किस्म की अलहदा शख्सियत। लखनऊ में रहने वाले इसी राजीव का कल निधन हो गया। खबर मिलते ही सोशल मीडिया पर मानो श्रद्धांजलियों का तांता लग गया। लोग अलग-अलग तरीके से उनको याद करने लगे। पेश है ऐसी ही कुछ श्रद्धांजलियां।-संपादक)  

नहीं रहे जेपी आंदोलन के सिपाही राजीव !

एक कार्यकर्ता का जाना 

राजीव जी नहीं रहे। उन्हें डेंगू हुआ और फिर निमोनिया। वे राजीव हेम केशव नाम लिखते थे। जयप्रकाश आंदोलन की कोख से निकली छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जब जुड़े तो जाति सूचक नाम हटा दिया मां पिता का नाम जोड़ दिया। लखनऊ के काल्विन तालुकेदार से निकले और आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की पढ़ाई छोड़कर जयप्रकाश आंदोलन से जुड़ गए। वे राजीव ही थे जिन्होंने मुझे आंदोलनों से जोड़ा आंदोलनकारियों से जोड़ा। छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जोड़ा। बिहार का बोधगया आंदोलन हो या गंगा मुक्ति आंदोलन या फिर ओडिसा के जन आंदोलन सभी जगह वे अस्सी के दशक में मुझे लेकर गए। किशन पटनायक जैसे समाजवादियों से मिलवाना हो या फिर सिद्धराज ढड्ढा या ठाकुर दास बंग जैसे गांधीवादियों से परिचय कराना सभी राजीव ने किया। 

उन्होंने कई संगठन बनाए कई का नेतृत्व मैंने ही किया जिसमें युवा भारत प्रमुख था। वे संगठन बनाते और कार्यकर्ता तैयार करते पर खुद कोई पद नहीं लेते। जीवन भर समता समानता के लिए लड़ते रहे। अगर मुख्यधारा की राजनीति में होते तो बहुत आगे होते पर वे बदलाव की राजनीति से बाहर नहीं गए। शादी ब्याह भी नहीं किया। आंदोलन से जुड़े रहे, लगातार यात्रा करते रहे। लंबी यात्रा उन्होंने मुझे भी करवाई।

मद्रास के गुडवंचरी आश्रम में वाहिनी के शिविर में लेकर गए जहां मेरी मुलाकात जयप्रकाश नारायण के सहयोगी शोभाकांत दास से हुई। वे मद्रास में जड़ी बूटियों के सबसे बड़े कारोबारी थे और उनके घर के बगल में ही रामनाथ गोयनका का घर था जो उनके मित्र थे। शोभाकांत जी गांधी के आह्वान पर आजादी की लड़ाई में कूदे और गिरफ्तार होकर सरगुजा की जेल में रहे। वे जेल से भाग कर फिर भूमिगत आंदोलन में शामिल हो गए। ऐसे लोगों से राजीव जी की वजह से ही मिलना हुआ। 

लखनऊ में दिग्गज समाजवादी सर्वजीत लाल वर्मा हों या फिर चंद्रदत्त तिवारी के विचार केंद्र तक जाना सब उन्हीं की वजह से हुआ। वे ट्यूशन पढ़ाते थे और सारा पैसा राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर खर्च करते थे। बाद में राजीव फिजिक्स नाम से कोचिंग शुरू की और वह काफी चली जिसके सारे संसाधन का इस्तेमाल राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए हुआ। छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ताओं की आर्थिक मदद वे लगातार करते रहे। अन्ना आंदोलन के बाद बाबा रामदेव राजीव दीक्षित और राजीव दोनों के साथ सामाजिक बदलाव की दिशा में कुछ करना चाहते थे पर वह आगे नहीं बढ़ा पर राजीव लगातार बदलाव की उम्मीद में सक्रिय रहे और अंत तक अभी जो डेंगू हुआ वह भी भगत सिंह के कार्यक्रम की तैयारी में लगे रहने के दौरान हुआ। 

1978-79 में जब मैं लखनऊ विश्व विद्यालय छात्र संघ में था तभी उन्होंने हम सब को जोड़ कर कई पहल की। अनूप, अरुण त्रिपाठी, हरजिन्दर, पुनीत टंडन, अतुल सिंघल, अशोक हमराही जैसे बहुत से लोग जुड़ते गए। 

मैंने लखनऊ यूनिवर्सिटी थिंकर्स काउंसिल और छात्र भारती जैसे संगठन उन्हीं की मदद से खड़ा किया। आलोक जोशी, अमिताभ श्रीवास्तव, राजेन्द्र तिवारी, देवेन्द्र उपाध्याय, मसूद, रमन, कर्निमा, निलय कपूर, शाहीन, अपर्णा, शिप्रा दीक्षित जैसे बहुत से छात्र छात्राएं इन्हीं मंच से निकले। हमने लखनऊ वर्ष 1985-86 में छोड़ दिया पर राजीव जमे रहे। संपर्क संबंध बना रहा। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले वे राजीव गांधी फाउंडेशन के मुखिया के साथ मिलने आए थे उसके बाद मुलाकात नहीं हुई। उनकी भांजी रामगढ़ में रहती हैं उन्हीं से सूचना मिली तो पता किया कल उनकी स्थिति बिगड़ चुकी थी। सुबह सुबह ओमप्रकाश ने खबर दी तो 45 साल का संबंध सामने आ गया। 

एक कार्यकर्ता के तौर पर उन्होंने मुझे भी गढ़ा। पहली बार जब बोधगया शिविर गया तब खाना खाने के बाद अपना बर्तन खुद साफ करने की बारी आई तो बहुत झिझका था क्योंकि ऐसा कभी किया नहीं था। फिर पटना से लेकर मद्रास शिविर तक हमारे भी संस्कार बदल गए और हम भी एक कार्यकर्ता में बदल चुके थे। राजीव के पढ़ाए लोग कहां से कहां पहुँच गए। साथियों को उन्होंने संस्कार दिए तो दूसरी पीढ़ी को पढ़ाया भी मेरे दोनों बेटे भी उनसे पढ़े हैं। बहुत याद आएंगे राजीव जी।

गंगा मुक्ति आंदोलन के मुखिया अनिल प्रकाश ने उन पर एक पुस्तक निकालने का सुझाव दिया है जिसमें उनके आंदोलन के साथी लिखेंगे। मैं यह पहल करूंगा। 

अम्बरीष कुमार, वरिष्ठ पत्रकार 

अलविदा राजीव जी!

राजीव अपनी प्रकृति के अनुरूप मुस्कुराते हुए गए। हमें वह कभी बीमार लगे ही नहीं। कभी हुए भी तो लगने नहीं दिया। बुख़ार-उखार तो खैर छोटी चीज़ होती थी। पिछले महीने अचानक मुलाकात हुई तो उसी पुरानी मुस्कान के साथ थे। उन्हें कुछ देने का वादा था, लेकिन अचानक चले गए तो वह हो न सका। 

यह राजीव हेम केशव हैं। हम सबके राजीव जी (राजीव मिश्र / राजीव हेम केशव)। लखनऊ यूनीवर्सिटी के जमाने में हम दोस्त बने। यह पोस्ट इमरजेंसी का दौर था। राजीव जेपी आंदोलन के असर में आईआईटी छोड़कर छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुड़े और पूरी तरह आंदोलन के होकर रह गए। यूनिवर्सिटी में एक ग्रुप उनका था संघर्ष वाहिनी वाला और दूसरा AISF का, तीसरा ABVP का। हम AISF में थे। लेकिन यह वह दौर था जब वैचारिक मतभेद अपनी जगह, दोस्ती अपनी जगह रहती थी। विश्वविद्यालय में भी तब तक वैचारिक सक्रियता का माहौल था।

उसी समय अतुल अनजान (AISF) छात्र संघ अध्यक्ष बने थे और रविदास मेहरोत्रा (ABVP) महामंत्री। अम्बरीष कुमार (अभी जनादेश चर्चा/सत्यहिन्दी वाले) कला संकाय प्रतिनिधि थे। खैर, ये दीगर बातें हैं। अभी बात राजीव यानी तब के राजीव हेम केशव की। यह शायद जेपी आंदोलन के असर में अपनाया गया नाम था।

राजीव जी से मिलने जुलने का मेरा ज़रिया अनूप बना था। अनूप (जो असमय और बहुत पहले चला गया) मेरा बचपन का दोस्त था। हमारा एक स्वतंत्र ग्रुप था, उत्साही दोस्तों का। इसमें अनूप के साथ मैं, हरजिंदर, प्रभात, मुकेश, छविधाम आदि दोस्त सक्रिय थे। एक अख़बार भी टैब्लॉयड निकाल रहे थे- ‘चिंतन बिंदु’। हरजिंदर ने आज ठीक ही लिखा कि अख़बार निकालने का सिलसिला तो ज्यादा आगे नहीं बढ़ा लेकिन जो संग-साथ शुरू हुआ था वह कभी खत्म नहीं हुआ था। 

आज राजीव की अंतिम यात्रा में हमारा वह पहला ग्रुप भी मौजूद था। बाद वाले सारे ग्रुप भी यानी उस दौर के ऐसे लगभग सभी साथी (प्रोफ़ेसर रमेश दीक्षित जैसे कुछ खासे सीनियर भी) जिनसे अलग-अलग समय पर सम्पर्क हुआ, दोस्ती हुई, कुछ प्रगाढ़ तो कुछ सरसरी सी लेकिन कायम आज तक है। हमारे पहले ग्रुप के सभी साथी संगठनात्मक तौर पर संघर्ष वाहिनी या राजीव जी के साथ जुड़ गये और मैं AISF के साथ रहा। अंतर बस इतना ही आया।

यूनिवर्सिटी के दौर में ही हमारा एक और ग्रुप बना- मेरा, चंद्रपाल (सीपी सिंह) और सुशील सिद्धार्थ का और हमने एक विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका भी ‘विधेय’ नाम से निकाली। लेकिन खास बात यही है कि चिंतन बिंदु हो, हाथ से लिखी गई बुलेटिन रही हो या 48 पन्नों का ‘विधेय’, ये पूरा समूह किसी न किसी रूप में आपस में जुड़ा ही रहा। 

राजीव हर कड़ी में अपने तरह से जुड़ते, बिछुड़ते रहे। कई तरह से सहयोगी की अपनी भूमिका को कभी अलग नहीं किया। मुझे याद है AISF के तिरुचिरापल्ली राष्ट्रीय सम्मेलन में जाने के लिए हम लोग जो चंदा जुटा रहे थे उसमें राजीव जी और ज़ैदी साहब (अंग्रेज़ी की सबसे प्रमुख कोचिंग चलाने वाले एसएम सागर ज़ैदी) का बड़ा योगदान था (आज ज़ैदी साहब भी मौजूद थे)। ‘विधेय’ के प्रकाशन खर्च में भी उनका सहयोग था। यह सब यूनीवर्सिटी तक की बातें हैं।  

यूनीवर्सिटी से निकलने के बाद कुछ दिन मैंने ‘नवजीवन’ और फिर ‘दैनिक जागरण’ में काम किया, फिर 1984 की नवम्बर में पटना चला गया पत्रकारिता की आगे की सीढ़ियां चढ़ने। 1996 में लखनऊ वापसी हुई, लेकिन इतना लम्बा वक्फ़ा बाहर रहने के बावजूद वह रिश्ते कभी कमजोर नहीं पड़े। राजीव कभी संघर्ष वाहिनी या किसी अन्य राजनीतिक प्रतिबद्धता के चलते पटना आते तो हिन्दुस्तान के हमारे दफ़तर या फिर हेमंत-नूतन जी के घर पर मुलाक़ात जरूर होती। मेरे घर भी आते। यह राजीव जी का आग्रह और हेमंत जी का दबाव ही था कि संघर्ष वाहिनी के बोधगया सम्मेलन में बतौर अतिथि / पत्रकार वहां गया और दो-तीन दिन गुजारे। यह शायद 1987-88 की बात होगी। 

1996 में हिन्दुस्तान का प्रकाशन लखनऊ से शुरू हुआ और हमारी ‘घर वापसी’ हुई तो अन्य मित्रों की तरह राजीव भी खासे प्रसन्न हुए थे। हमारे “सोपान” के लिए एक-दो कवर स्टोरी भी लिखीं, हालांकि तब तक लेखन/पत्रकारिता वाली दुनिया से वह कुछ दूर हो चुके थे। अन्यमनस्क से थे। मुझे लगता है 1982-83 में ‘अमृत प्रभात’ में मंगलेश डबराल जी के कार्यकाल में उन्होंने जैसी कुछ कवर स्टोरी लिखीं थीं, वह सिलसिला बरकरार रहा होता तो राजीव कुछ अत्यंत प्रखर पत्रकारों में शुमार होते। 

यह सब लिखने की जरूरत इसलिए भी लगी कि आज लखनऊ के बैकुंठ धाम में उन्हें विदा देते वक्त उस दौर के लगभग सारे साथी जो शहर में मौजूद थे, उन्हें इन्हीं या ऐसी ही यादों के साथ याद कर रहे थे। याद आईं कई ऐसी बहसें जहां असहमति के चरम के बावजूद कोई हिंस्र नहीं होता था। 

राजीव तो बिलकुल नहीं। असहमति के उस बिन्दु पर दांतों के बीच दबी उंगली और चेहरे पर एक खास किस्म की ‘मुस्कान’ को हम और अनूप अलग ही तरह से याद करते थे। ज़्यादातर लोगों ने शायद राजीव जी को कभी ग़ुस्से में न देखा हो, लेकिन हमने देखा है। हमने उस ग़ुस्से में भी उनसे चुहल कर दी है।  राजीव मुस्कुरा उठे हैं। मुझे लगता है शायद हम और अनूप होते तो राजीव आज फिर मुस्कुरा उठते। वैसे भी वह बीमार तो थे नहीं।
बस डेंगू का एक झटका आया और उन्हें हिलाकर रख दिया। दो दिन पहले तक लगा कि बिलकुल ठीक होकर निकल आएंगे। चंद्रपाल बता रहे हैं कि चंद रोज़ पहले किसी से कह रहे थे ‘मैं भी चला जाऊंगा किसी दिन हार्ट अटैक से, बिना किसी को परेशान किये…।’ बात तो ठीक ही है, चले गए राजीव बिना किसी को परेशान किए। एक दिन पहले तक फोन पर भी हाल-चाल बताते-बतियाते रहे और निकल लिए धीरे से। मैं जाने के पहले वाला चेहरा नहीं देख सका, लेकिन भरोसा है कि मुस्कान जरूर साथ रही होगी। 

अलविदा राजीव जी!

नागेंद्र प्रताप, वरिष्ठ पत्रकार

यह जय प्रकाश नारायण के 1974 के आंदोलन का पचासवां साल है। छात्रों के आंदोलन से शुरू हुआ जेपी मूवमेंट कैसे गुजरात, बिहार से होता हुआ दिल्ली आ पहुँचा था और फिर कैसे आपातकाल लगा और कैसे इंदिरा गांधी की प्रचंड बहुमत वाली सत्ता की चूलें हिल गईं, यह सब आजाद भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए देशव्यापी जन संघर्ष की एक ऐसी दास्तान है जिसमें आज के भारत में लोकतंत्र की रक्षा के लिए चिंतित और सक्रिय लोगों और जमातों के लिए कई सबक हैं। 

यह बहुत दुखद है कि राजीव हेमकेशव जैसे बहुत से लोग जिन्होंने इस आंदोलन में और उसके बाद के दौर में अपना सब कुछ सिर्फ समाज के लिए दाँव पर लगा दिया था, अब हमारे बीच नहीं हैं। संयोग ही कहूँगा कि राजीव हेमकेशव जी से पिछले कुछ समय से जारी लगातार गंभीर संवाद में एक विचार यह भी सघन होता गया था कि जेपी मूवमेंट के बारे में एक किताब पर काम किया जाए जिसमें उस दौर में सक्रिय रहे तमाम लोगों की बातें, उनके संस्मरण, उनके अनुभव, आंदोलन की सफलता-विफलता के विश्लेषण पर विस्तार से ब्यौरे शामिल किये जाएँ ताकि आज की पीढ़ी को उसे समझने के लिए एक ख़ाका मिले। 

आज जब राजीव जी हमारे बीच नहीं रहे तो यह विचार उनकी और उनके जैसे तमाम लोगों की स्मृति को समर्पित एक परियोजना का रूप ले सके तो यह उन तमाम कार्यकर्ताओं और समूहों के प्रति एक सार्थक श्रद्धांजलि हो सकती है। इस पर विचार करना चाहिए। 

लखनऊ में तो राजीव जी की स्मृति में कोई ऐसा केंद्र बन सके जहाँ सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक विषयों पर किताबों की लाइब्रेरी हो, चर्चा-बैठक-संवाद की जगह निकले तो यह उनकी याद को स्थायी करने की एक अच्छी और सार्थक पहल हो सकती है।

अमिताभ श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकार

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