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दलित प्रश्न को लेकर, द्रविड़ किले में पड़ गई हैं दरारें

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वी. गीता

बीते 6 मार्च, 2024 को मद्रास उच्च न्यायालय की न्यायाधीश अनीता सुमंत ने ‘सनातन धर्म’ मामले में अपना फैसला सुनाया। सितंबर, 2023 में तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने तमिल प्रोग्रेसिव राइटर्स एंड आर्टिस्ट्स एसोसिएशन द्वारा ‘सनातन धर्म का उन्मूलन’ विषय पर आयोजित एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए अपने भाषण में कहा था कि कोई भी धर्म, जो चिरकाल से अस्तित्व में है – जैसा कि सनातन धर्म का दावा है – का पाषाणवत बन जाना अपरिहार्य है। सनातन धर्म के साथ भी यही हुआ और उसी के चलते इस धर्म ने जाति-प्रथा को वैधता प्रदान की और नफरत तथा हिंसा को शह दी। उदयनिधि का तर्क था कि ऐसी स्थिति में, किसी खतरनाक बीमारी की तरह, सनातन धर्म का उन्मूलन आवश्यक है। उदयनिधि ने कहा कि सनातन धर्म के ‘शाश्वत’ मूल्यों में आस्था रखने वालों के विपरीत, द्रविड़ और साम्यवादी विचारधाराएं अतीत के हर तत्व की समालोचना की पक्षधर हैं और परिवर्तन में विश्वास रखती हैं। उन्होंने राज्य की ‘द्रविड़’ सरकार की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए कहा कि उसके कारण राज्य में शांति और बंधुत्व की संस्कृति का बोलबाला है जबकि सनातन धर्म का पालन करने का दावा करने वाले नफरत फैलाते हैं और दूसरों को दुख देते हैं।

मंत्री की टिप्पणियों पर आपत्ति जताते हुए मद्रास उच्च न्यायलय में एक रिट याचिका दायर की गई। याचिकाकर्ता का कहना था कि उदयनिधि के खिलाफ ‘क्यो वारंटो’ (किस अधिकार से) रिट जारी कर उनसे पूछा जाए कि उन्हें अपने पद पर बने रहने का कानूनी हक क्यों और कैसे हासिल है। याचिकाकर्ता के वकीलों का तर्क था कि मंत्री ने जान-बूझकर या अनजाने में सनातन धर्म के अर्थ को तोड़ा-मरोड़ा है और यह भी कि सनातन धर्म, जातिगत कर्तव्य और जातिगत पेशे निर्धारित करने वाले वर्ण-धर्म से भिन्न है। याचिकाकर्ता का तर्क था कि सनातन धर्म, दरअसल, हिंदू धर्म का ही दूसरा नाम है, और इस तरह मंत्री ने हिंदू धर्म को बदनाम किया है। 

न्यायाधीश सुमंत ने अपने फैसले में कहा कि रिट याचिका को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि मंत्रियों की अपात्रताओं की कानूनी सूची में से कोई भी अपात्रता इस मामले में लागू नहीं होती। “संविधान की दृष्टि से यह सूची अलंघनीय है….एक लक्ष्मण रेखा है, जिसे लांघा नहीं जा सकता।” मगर, उन्होंने आगे लिखा कि एक मंत्री द्वारा धार्मिक मूल्यों की किसी भी प्रणाली के उन्मूलन का आह्वान करना निश्चित रूप से दूसरों को ठेस पहुंचाने वाला है। वे “एक समुदाय विशेष – हिंदुओं – के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे” और उनका भाषण “दुष्प्रचार की श्रेणी में आता है।” जज ने याची को नेकनीयत बताते हुए कहा कि उसने अदालत का दरवाज़ा इसलिए खटखटाया, क्योंकि उसे लगा – जो सही भी था – कि उदयनिधि “विघटनकारी और बांटने वाली प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने के दुराचरण में रत थे।” न्यायाधीश ने यह भी लिखा कि सनातन धर्म के संबध में मंत्री की टिप्पणियां तत्संबंध में मूल संस्कृत ग्रंथों के बारे में अज्ञानता का नतीजा हैं। मंत्री के वकीलों द्वारा अदालत में सनातन धर्म के बारे में प्रस्तुत उद्धरणों की चर्चा करते हुए जज ने लिखा कि वे अनजाने ग्रंथों से लिए गए हैं और इसलिए विश्वसनीय नहीं कहे जा सकते। अदालत का यह फैसला अजीब है। पहली बात तो यह है कि फैसले में ऐसे व्यक्तियों और दलों, जिन्हें हम द्रविड़ आंदोलन का हिस्सा कह सकते हैं, द्वारा हिंदू धर्म और सनातन धर्म की आलोचनाओं के घिसे-पिटे प्रत्युत्तरों को दोहराया गया है। ये बातें करीब एक सदी से कही जा रही हैं – तभी से जब 1917 में साउथ इंडिया लिबरल फेडरेशन या जस्टिस पार्टी द्वारा गैर-ब्राह्मण आंदोलन शुरू किया गया था, जो द्रविड़ आंदोलन की जन्मदात्री थी। उस समय तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी में सार्वजनिक नियोजन और शैक्षणिक संस्थानों में ब्राह्मणों के एकाधिकार के खिलाफ लोग उठ खड़े हुए थे, जातिगत पदक्रम और अछूत प्रथा की सख्त शब्दों में आलोचना हो रही थी और ब्राह्मण चिंतकों और विचारकों द्वारा उन्हें औचित्यपूर्ण ठहराए जाने का विरोध किया जा रहा था। जैसाकि उम्मीद की जा सकती थी, ब्राह्मणों ने अपनी सोच का बचाव किया। ऐसा करते समय उनकी भाषा कटु हुआ करती थी और उनके विरोधियों के प्रति तिरस्कार का भाव उसमें स्पष्ट झलकता था। और जो ब्राह्मण ऐसा नहीं भी करते थे, उनके पूर्वाग्रह भी उनके विरोधियों से छिपे नहीं रहते थे।

जुलाई, 1916 में तत्कालीन सम्मानित सुधारक जस्टिस टी. सदाशिव अय्यर ने साप्ताहिक ‘न्यू इंडिया’ में जो लिखा, उस पर गौर फरमाएं। उन्होंने कहा कि “समाज में विद्यमान ब्राह्मण-विरोधी भावनाएं, दरअसल, बौद्ध धर्म के उत्तरवर्ती विचारों और ईसाई धर्म के प्रचारकों की सोच की प्रतिध्वनि भर हैं। इसका आशय ब्राह्मणों के अहंकार को नकारना नहीं है और ना ही किसी व्यक्ति के जन्म और उसके सामाजिक दर्जे या पेशे के बीच किसी अपरिवर्तनीय अंतर्संबंध को प्रतिपादित करना है, बल्कि इसका उद्देश्य यह बताना है कि हिंदू धर्म के आलोचक उसके प्राचीन मूल्यों से अनभिज्ञ हैं।” अय्यर की दृष्टि में यह साफ़ था कि सनातन धर्म को त्यागा नहीं जाना चाहिए, क्योंकि वह तो एक भव्य, विशाल और चिरस्थायी वृक्ष है। अगर उस पर बने घोंसले सड़ गए हैं, तो नए घोंसले बनाए जाने चाहिए, मगर “उन्हें बनाने में पुराने घोंसलों की जो सामग्री इस्तेमाल योग्य है, उसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए और ये नए घोंसले उसी वृक्ष की उसी शाखा पर बनने चाहिए, जहां पुराने घोंसले थे।” उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि भविष्य में जन्म-आधारित पहचान का स्थान चरित्र और योग्यता पर आधारित पहचान को लेना चाहिए, मगर वर्ण-भेद बना रहना चाहिए, भले ही उनमें इस तरह के सुधार कर दिए जाएं कि एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जाना संभव हो सके। उन्होंने यह भी लिखा कि अछूत प्रथा का उन्मूलन होना चाहिए और तथाकथित पंचमों को शूद्रों की श्रेणी में लाया जाना चाहिए।

गैर-ब्राह्मण चिंतकों, जिनमें से कई ने आगे चलकर गैर-ब्राह्मण आंदोलन में अहम किरदार निभाए, को इस तरह के तर्क स्वीकार्य नहीं थे। वे चाहते थे कि सामाजिक मूल्यों में आमूलचूल परिवर्तन हों और इस संदर्भ में वे द्रविड़ सभ्यता और संस्कृति के विशिष्ट चरित्र का हवाला देते थे। उनका कहना था कि प्राचीन तमिल ग्रंथ जिन आदर्शों को प्रतिपादित करते हैं, वे जाति और अंतर्निहित असमानता पर आधारित ब्राह्मणवादी मत के विपरीत हैं। उनकी यह मान्यता भी थी कि ब्राह्मण, दरअसल आर्य हैं, जिन्होंने द्रविड़ों की धरती दक्षिण भारत में अनाधिकार प्रवेश किया और तत्कालीन स्थानीय संस्कृतियों, जो उनकी संस्कृतियों से कहीं ज्यादा समतावादी थीं, को बदनाम और विकृत करना शुरू कर दिया। 

ये मत कई दशकों तक दोहराए जाते रहे और उनका संश्लेषण होता रहा– द्रविड़ आंदोलन के पूर्ववर्ती आत्मसम्मान आंदोलन के चरमोत्कर्ष के दौर को छोड़कर, जब उन्हें एक अलग स्वरुप में देखा-समझा जाता था, उग्र, तार्किक और लोकतांत्रिक सोच के प्रतिबिंब के रूप में ज्यादा तथा सभ्यतागत मूल्यों के रूप में कम। आत्मसम्मान आंदोलन के कर्ताधर्ताओं ने अपनी नजर में केवल द्रविड़ और तमिल संस्कृतियों में अंतर्निहित भिन्नताओं पर जोर देने की बजाय, समानता, बंधुत्व और वैचारिक स्वतंत्रता की अपनी मांग को उचित ठहराने के लिए वैश्विक लोकतांत्रिक और समाजवादी संस्कृति का सहारा लिया।

इस अर्थ में उदयनिधि के भाषण से उपजी कानूनी लड़ाई की पटकथा काफी पुरानी थी। मगर एक महत्वपूर्ण अंतर भी है। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) – जो स्वयं को जस्टिस पार्टी, आत्मसम्मान आंदोलन और द्रविड़ कड़गम की राजनैतिक उत्तराधिकारी मानती और बताती है – सन 1967 से लेकर अब तक तमिलनाडु में काफी लंबी अवधि तक सरकार में रही है। उसके विचारक न केवल इस पटकथा से परिचित हैं, वरन् उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया है कि यह पटकथा, और विशेषकर द्रविड़ सोच के मूल तत्व, पूरे राज्य के लोगों की साझा राजनैतिक समझ का हिस्सा बन जाएं। मगर साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि यह सोच मात्र भाषा और भाषणों का हिस्सा बनकर रह गई है और इसके वास्तविक निहितार्थ को समझने वाले कम ही हैं। भारत के सार्वजनिक जीवन में इन दिनों हिंदू दक्षिणपंथ का बोलबाला है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 2014 से केंद्र सरकार पर काबिज है। ऐसे में दकियानूसी हिंदू विचारधारा से मुकाबला करने में इस सोच की उपयोगिता ने उसे एक नया जीवन दिया है। लेकिन यह देखा जाना बाकी है कि यह सोच कितने बेहतर तरीके से और किस हद तक आम नागरिकों को प्रभावित कर रही है एवं उसका शासन-व्यवस्था और समुदायों, वर्गों और जातियों के अंतर्संबंधों पर किस तरह का असर पड़ रहा है। 

पिछले कुछ वर्षों में प्रकाशित दो पुस्तकें “शासन के द्रविड़ मॉडल” की पड़ताल करने में हमारी मदद करती हैं। यह पड़ताल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस मॉडल को हिंदू दक्षिणपंथ की राजनीति और संस्कृति द्वारा फैलाए जा रहे ज़हर के हरण के लिए सबसे अचूक औषधि के रूप में बताया जा रहा है। 

द्रविड़ विमर्श 

ए. कलईयासरण एवं एम. विजयभास्कर द्वारा लिखित और 2021 में प्रकाशित पुस्तक “द द्रविड़ियन मॉडल : इंटरप्रेटिंग द पॉलिटिकल इकॉनमी ऑफ़ तमिलनाडु” के अनुसार, तामिलनाडु में शासन का एक व्यवहार्य और प्रजातांत्रिक द्रविड़ मॉडल स्थापित किया जा चुका है। यह माना जाता है कि इस मॉडल के निम्नलिखित तत्त्व हैं– जाति-आधारित कृषि अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण के ज़रिये समावेशी और उत्पादक आर्थिक प्रगति; जाति-आधारित आरक्षण के माध्यम से सामाजिक न्याय की स्थापना; अनेकानेक जनकल्याणकारी योजनाओं के ज़रिए सभी लोगों को लाभ पहुंचाना; और संघीय राजनीति।

लेखकों का तर्क है कि शासन के इस मॉडल को इसलिए विकसित किया गया है ताकि द्रविड़ आंदोलन की स्थापना के पीछे जो आदर्श थे, उन्हें हासिल किया जा सके और यह भी कि यह मॉडल गंभीर और संगठित राजनैतिक प्रयासों का नतीजा है। इस प्रक्रिया में सबसे पहले उन सबाल्टर्न वर्गों और जातियों को गोलबंद किया गया, जिन्हें ब्राह्मणवादी वर्ण-जाति व्यवस्था के कारण सदियों से समानता और मनुष्य के दर्जे से वंचित रखा जाता रहा था। पुस्तक के अनुसार, इस गोलबंदी को डीएमके ने एक राजनैतिक ताकत में तब्दील किया। इसके लिए आर्थिक और सामाजिक न्याय पर केंद्रित विचारों – जो तमिल भूमि में 20वीं सदी की शुरुआत से उपस्थित थे – को आमजनों में प्रसारित किया गया। 

(बाएं से) सी.एन. अन्नादुरै, एम करुणानिधि, एम.जी. रामचंद्रन, जयललिता व एम के स्टालिन

‘द द्रविड़ियन मॉडल’, चुनिंदा दस्तावेजों, बहसों और द्रविड़ विचारकों, विशेषकर वे जो डीएमके से जुड़े हुए थे, के प्रयासों की पड़ताल के आधार पर द्रविड़ विचारधारा और राजनीति के विकास का अध्ययन करती है। कलईयासरण एवं विजयभास्कर का कहना है कि द्रविड़ विचारधारा – विशेषकर समानता और न्याय के प्रति उसका दृष्टिकोण, जिसे तमिलनाडु के प्रथम मुख्यमंत्री सी.एन. अन्नादुरै ने स्वर दिया – राज्य की सरकारों की नीतियों का आधार रहा है। 

लेखकों का कहना है कि द्रविड़ विचारधारा ने यह सुनिश्चित किया है कि निजी क्षेत्र के दबाव के बावजूद, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में सरकार ने राज्य के हाशियाकृत नागरिकों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी की अवहेलना नहीं की। आरक्षण, छात्रवृतियों और दलितों सहित आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से अन्य पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधानों के ज़रिये शिक्षा तक पहुंच का प्रजातांत्रिकरण किया गया। इसी तरह, अस्पतालों के मजबूत नेटवर्क के निर्माण और स्वास्थ्य सेवाओं के कुशल प्रबंधन के जरिए लोक-स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाया गया। 

लेखकों का यह भी कहना है कि तमिलनाडु में पूंजीवाद के फलने-फूलने को भी इकतरफा विकास बतौर नहीं देखा जाना चाहिए। वहां जो भी पूंजी संचय और निवेश हुआ है, उसे भारत के औद्योगिक बुर्जुआ वर्ग के आर्थिकी पर नियंत्रण के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसके साथ ही, वहां राज्य-समर्थित औद्योगीकरण भी हुआ है, जो अर्थव्यवस्था को जाति व्यवस्था के चंगुल से मुक्त करने के लिए ज़रूरी था। शहरीकरण और औद्योगिक विकास ने यह सुनिश्चित किया है कि गरीबों के पास यह मौका रहे कि वे जाति-आधारित कृषि व्यवस्था से बाहर निकल सकें और उन पारंपरिक पेशों को त्याग सकें, जिनका जातिगत सोच ने जानते-बूझते अवमूल्यन और निम्नीकरण किया है।

लेखकगण यह स्वीकार करते हैं कि इन नीतियों से सभी सबाल्टर्न वर्ग समान रूप से लाभान्वित नहीं हुए हैं। मगर उनका दावा है कि ऐसा कोई भी वर्ग नहीं है जिसके हितों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया गया है। हर प्रकार की असमानताओं को महत्व दिया गया है और द्रविड़ परियोजना के चलते, इन सबको राजनैतिक स्पेस मिला है। यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं है और यह इसलिए संभव हो सकी है क्योंकि शासकों और शासितों के बीच एक अनकहा समझौता था। 

दूसरी पुस्तक, 2022 में प्रकाशित ‘रूल ऑफ़ द कॉमनर : डीएमके एंड द फार्मेशन्स ऑफ़ द पॉलिटिकल इन तमिलनाडु 1949-1967’ में कहा गया है कि इस समझौते को न्याय की चाहत रखने वाले सभी दावेदारों की वामपंथी-लोकलुभावन गोलबंदी के रूप में देखा जाना चाहिए। ये सारे दावेदार एक-दूसरे के समकक्ष नहीं हैं और उनमें से कुछ के हितों में परस्पर टकराव भी हो सकता है। लेखक राजन कुरई कृष्णन, रवींद्र श्रीरामचंद्रन एवं वी.एम.एस. सुबागुनरंजन का तर्क है कि इन विभिन्न लोगों को ‘द्रविड़’ पहचान के झंडे तले एक साथ लाया गया और यह पहचान शक्तिशाली वर्गीय और जातिगत समूहों, इन समूहों के हितों के रक्षक और प्रतिनिधि एकात्मक राज्य, और उनकी शक्ति को औचित्यपूर्ण ठहराने वाली विचारधाराओं के बरखिलाफ था। इस संदर्भ में अपने आप को ‘द्रविड़’ कहने अर्थ था यह घोषित करना कि आप जाति-व्यवस्था के खिलाफ हैं और समानता व न्याय पर आधारित सभ्यतागत मूल्यों के पक्षधर हैं। इसके साथ ही इसका अर्थ यह भी था कि आप एकात्मक राष्ट्र-राज्य के विचार से असहमत हैं और संघवादी और गणतंत्रात्मक मूल्यों के पैरोकार हैं।

ये दोनों पुस्तकें अपनी बात सरकार और राजनैतिक शक्तिसंपन्न व्यक्तियों के परिप्रेक्ष्य से कहती हैं। ‘रूल ऑफ़ कॉमनर’ विचारों का एक ऐसा संकलन प्रस्तुत करती है, जो, उसके अनुसार, नीतिगत निर्णयों और शासन को प्रभावित करते हैं, ‘द्रविड़ियन मॉडल’ तमिलनाडु में सरकार के प्रयासों के नतीजों की विस्तार से चर्चा करती है और फिर उन्हें द्रविड़ आंदोलन की स्थापना के पीछे के आदर्शों से जोड़ती है। 

कमियां

इस विश्लेषणात्मक ढांचे में दो प्रमुख कमियां हैं। पहली बात तो यह है कि दोनों पुस्तकों के लेखकों ने न जाने क्यों द्रविड़ मॉडल की बात केवल डीएमके के शासनकाल के संदर्भ में की है, जबकि तथ्य यह है कि इस मॉडल के कुछ तत्वों को डीएमके की प्रतिद्वंद्वी ऑल इंडिया अन्‍ना द्रविड़ मुन्‍नेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) ने भी अपने शासनकाल में लागू किया था। एआईएडीएमके के दो नेता – एम.जी. रामचंद्रन और जे. जयललिता – राज्य के मुख्यमंत्री रहे और दोनों ने अपनी पार्टी के आदर्शों को एकात्मक राष्ट्रवाद से जोड़ा। जयललिता ने तो हिंदू दक्षिणपंथ के साथ राजनीतिक गांठ भी जोड़ी। मगर इसके साथ ही, दोनों ने यह भी ध्यान रखा कि वे राज्य की आरक्षण व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ न करें और दोनों ने जनकल्याणकारी योजनाओं पर जोर दिया। इसके साथ ही, दोनों में से कोई भी क्षेत्रीय पूंजीवादी विकास के खिलाफ नहीं थे।  

यह विश्लेषण विचारधाराओं और सरकारों के परस्पर रिश्तों पर भी प्रश्न उठाता है और राजनैतिक सामंजस्य बनाने में औजार के रूप में विचारधाराओं के इस्तेमाल पर भी। इस संदर्भ में पाप्युलिज्म (लोक-लुभावनवाद) शब्द के इस्तेमाल की पड़ताल करना भी महत्वपूर्ण है। कुरई कृष्णन और उनके सहलेखक इस शब्द का प्रयोग उसके ऐतिहासिक अर्थों में न करते हुए उसके विमर्शात्मक अर्थों में करते हैं। लेखकों की इस शब्द की समझ विशिष्ट दस्तावेजों, विशेषकर अन्नादुरई के लेखन, पर आधारित है और वे शासन और शासन प्रणाली की बारीकियों में नहीं जाते। वे इस शब्द को सकारात्मक दृष्टि से देखते हैं और उसके अप्रिय निहितार्थों को नज़रअंदाज़ करते हैं, जिनमें भावनाओं को भड़काने वाले भाषण देना और सुनियोजित रणनीति के ज़रिए आमजनों के सरोकारों को बदलना आदि शामिल हैं। 

हम एआईएडीएमके के लोक-लुभावनवाद को किस रूप में देखें, विशेषकर इसलिए क्योंकि उसने डीएमके द्वारा शुरू किए गए काम को ही आगे बढाया और विस्तार दिया था? क्या द्रविड़ राजनीति के वामपंथी झुकाव के प्रति एआईएडीएमके उतनी ही प्रतिबद्ध थी, जितनी कि डीएमके? चूंकि ऐसा नहीं लगता कि एआईएडीएमके ने द्रविड़ राजनीति के विमर्शात्मक पहलुओं का प्रयोग किया हो, अतः क्या हम इस पार्टी के लोक-लुभावावाद को व्यक्तिगत आकर्षण की राजनीति कह सकते हैं? हम सब जानते हैं कि रामचंद्रन और जयललिता दोनों का चमत्कारिक व्यक्तित्व था और दोनों का जनता में जलवा हुआ करता था। वैसे भी, लोक-लुभावनवाद को उसके प्रभाव और परिणाम के आधार पर ही अच्छा या बुरा कहा जा सकता है और वह किसी विचारधारा का प्रयोजन नहीं हो सकता। 

दूसरी समस्या यह है कि दोनों पुस्तकें एक ऐसे समाज और राजनीति का चित्रण करती हैं, जो द्रविड़ विचारधारा के मामले में एकमत है। लेखक अगर यह स्वीकार करते भी हैं कि इस एकमत में कुछ दरारें हैं तब भी वे ‘लोक-लुभावन’ समझौते में इन दरारों की उनके आर्थिक-सामाजिक संदर्भों में पड़ताल नहीं करते और ना ही वे उन वर्गीय और जातिगत ताकतों का विश्लेषण करते हैं, जिन्होंने इस समझौते का अपने हित में इस्तेमाल करने के प्रयास किए हैं। इस तरह हमारे सामने शासन का एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत किया जाता है, जो अपने आप में मुकम्मल है, जिसमें किसी परिवर्तन की गुंजाइश या ज़रूरत नहीं है, और जिसकी खूबियां जगजाहिर हैं और हमेशा सामने आती हैं। 

इस संदर्भ में एक प्रश्न उठाना लाजिम है। द्रविड़ शासन में जो नीतियां अपनाई गईं, उनसे किसे फायदा हुआ और किसे जो कुछ भी दिया गया उसे चुपचाप स्वीकार करना पड़ा? कौन-सी उपलब्धियां हासिल की जा चुकी हैं और इन उपलब्धियों की क्या सीमाएं हैं? हम द्रविड़ शासन की बैलेंस शीट कैसे बनाएं? 

इन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए हमें कुछ परिघटनाओं को समझना होगा। इनमें से पहली यह है कि तमिलनाडु में औपचारिक रूप से सामाजिक न्याय हो रहा है। वहां जाति-आधारित आरक्षण है और सभी गैर-ब्राह्मण जातियों और कुछ दलित समुदायों को भी आगे बढ़ने के मौके उपलब्ध हुए हैं। मगर इसके साथ ही दलितों के खिलाफ हिंसा भी जारी है। दूसरे, सन् 1980 के दशक से ही स्कूली और कॉलेज शिक्षा का अनियंत्रित निजीकरण हो रहा है, मगर राज्य द्वारा पोषित उच्च शिक्षण संस्थाओं का विस्तार बहुत कम हुआ है। इस स्थिति के समाज पर प्रभाव को भी हमें समझना होगा। तीसरे, नगर-केंद्रित आर्थिक विकास, बिखरा हुआ और असमान है। इसके नतीजे में जाति का पेशे से जुड़ाव समाप्त नहीं हुआ है। जातिगत दर्जे और जीवनयापन के लिए उपलब्ध मौकों के बीच रिश्ते पुनर्परिभाषित तो हुए हैं, मगर केवल श्रमिक वर्गों के लिए। 

इनमें से अंतिम परिघटना विशेष चिंता का विषय है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था, जिसमें पूंजी संचय और रोजी-रोटी कमाने के लिए उपलब्ध विकल्प जाति से संबद्ध हैं, में द्रविड़ मॉडल ने दलितों के बरक्स वर्चस्वशाली हिंदू जातियों, को उपलब्ध आजीविका के विकल्पों के संदर्भ में किस तरह के बदलाव का आगाज़ किया है? लोगों में ऊपर उठने की महत्वाकांक्षाएं जगाने वाली अर्थव्यवस्था में महिलाएं कहां खडीं हैं, विशेषकर इसलिए, क्योंकि उन पर ही मुख्यतः इलाज और शिक्षा हेतु लिए जाने वाले क़र्ज़ – जो परिवारों, जातियों और श्रम व्यवस्थाओं को बनाए रखने के लिए ज़रूरी हैं – का बोझ सबसे ज्यादा पड़ता है। और यह भी कि हम विभिन्न कालखंडों और स्थानों में द्रविड़ समझौते की समालोचनाओं को किस तरह देखें और उन्हें द्रविड़ मॉडल के विभिन्न पहलुओं की कार्यप्रणाली और असफलताओं से कैसे जोड़ें?

इन प्रश्नों से साफ़ है कि जो राजनैतिक पार्टी अथवा आंदोलन बेहतर शासन में या उसके माध्यम से अपनी विचारधारा की सार्थकता की तलाश करते हैं, उन्हें किस तरह की जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। सरकारों के समक्ष जो अर्थव्यवस्था होती है, वह राज्य व निजी क्षेत्र दोनों द्वारा परिचालित होती है और सरकारों को अक्सर इस बात की फ़िक्र नहीं होती कि उनकी नीतियों का सबसे अधिक हाशियाकृत वर्गों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। लोगों को हुई क्षति या उनकी बेदखली के बदले उन्हें बहुत मामूली मुआवजा मिलता है। इसके अलावा, हमारे देश का त्रुटिपूर्ण संघीय ढांचा और चुनावी लोकतंत्र की मजबूरियां भी द्रविड़ शासन को खुलकर काम करने देने में बाधक होती हैं। फिर, लोक-लुभावनवाद के रहते हुए भी, भारत में राज्य सत्ता अपनी मनमानी के लिए जानी जाती है और इसका सामना निर्धन और हाशियाकृत वर्गों को रोजाना पुलिस थाने और तहसीलदार व कलेक्टर के कार्यालयों में करना पड़ता है। इस तरह राज्य तंत्र की कार्यप्रणाली भी नीतियों के परिणामों और प्रभावों को सीमित करती है। 

द्रविड़ समझौते में दलित 

द्रविड़ मॉडल अधिक विश्वसनीय और प्रामाणिक बन सकेगा, यदि हम उसे एक ऐसी परियोजना के रूप में देखें, जिसके कार्यान्वयन की प्रक्रिया अभी चल ही रही है और जिसके लोक-लुभावनवाद का उत्सव मनाने के साथ-साथ, उसकी सूक्ष्मता और सतर्कता से पड़ताल भी की जानी चाहिए – ऐसी पड़ताल, जिसका फोकस उसमें दिखलाई पड़ रही दरारों पर हो। जैसे यदि हम द्रविड़ मॉडल को लागू करने के नतीजों को ऐसे जातिगत टकरावों को फोकस में रख कर देखें, जिनमें दलितों के विरुद्ध हिंसा हुई तो यह मॉडल हमें कैसा दिखलाई देगा? सन् 1950 के बाद से एक भी ऐसा दशक नहीं गुजरा है, जिसमें तमिलनाडु में जातिगत टकराव और हिंसा की घटनाएं न हुई हों और इनमें से हर घटना को हम ऐसे सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों के संदर्भ में देख सकते हैं, जिनका लक्ष्य लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की स्थापना था। ये सभी घटनाएं डीएमके के शासनकाल में नहीं हुईं, मगर उनसे यह तो पता चलता ही है कि कैसे हर एक घटना उन तनावों और समस्याओं को उजागर करती है, जिनका सामना जनता और सरकार दोनों कर रहे होते हैं, विशेषकर एक ऐसे लोकतंत्र में, जिसमें कई कमियां हैं और एक ऐसे गणतंत्र में जिसे असमान और हिंसक सामाजिक व्यवस्था के चुनौतियों का सामना निरंतर करना पड़ता है। 

सन् 1957 में मदुकुलाथुर में हुए दंगों के समय तमिलनाडु में कांग्रेस सत्ता में थी। इन दंगों को सामाजिक और राजनैतिक लोकतंत्र के बीच टकराव के रूप में देखा जा सकता है। जब दलित अपनी शर्तों पर राजनैतिक प्रतिनिधित्व हासिल करने के अपने अधिकार पर जोर देते हैं तो संबंधित इलाके की वर्चस्वशाली जातियों की त्योरियां चढ़ जाती हैं और नतीजे में होती है हिंसा, जैसा कि इस मामले में हुआ था। और यही हालात अब भी हैं। 

डीएमके के पहली बार सत्ता में आने के एक साल के भीतर, सन् 1968 में, कीजवेंमानी में 44 दलितों को जिंदा जला दिया गया। यह घटना बताती है कि जब दलित अपनी श्रम की उचित कीमत मांगते हैं, जब वे सामाजिक गरिमा की बात करते हैं और क्रांतिकारी राजनीति करने के अपने अधिकार की उद्घोषणा करते हैं, तो उन्हें सबक सिखाने के लिए उनके खिलाफ हिंसा की जाती है। आखिर क्या कारण है कि डीएमके सरकार इस भयावह हत्याकांड को रोक नहीं सकी, जबकि उसे पता था कि संबंधित इलाके में वर्गीय और जातीय ध्रुवीकरण अपने चरम पर है? 

शहरी जीवन कुछ हद तक दलितों के लिए मुक्तिदायक होता है। मगर 1978 में एआईएडीएमके के शासनकाल में विल्लुपुरम में दलितों के खिलाफ हुई हिंसा बताती है कि शहरों में जातिगत सीमाओं का धूमिल पड़ना वर्चस्वशाली जातियों को मंज़ूर नहीं है। यह साफ़ है कि आधुनिक आर्थिकी भी वर्चस्वशाली जातियों और दलितों के परस्पर रिश्तों को पूरी तरह नहीं पलटती। वह केवल उन्हें बदल देती है और यह बदलाव क्या होता है, इसे हमें समझना बाकी है। 

सन् 1980 के दशक में राज्य के दक्षिणी जिलों में एआईएडीएमके के शासनकाल में हुई हिंसा से पता चलता है कि जब राज्य या सत्ताधारी दल किन्हीं जाति समूहों को समर्थन देता है तो उसके जवाब में वर्चस्वशाली जातियां गोलबंद हो जाती हैं। और जब दलित, उच्च जातियों का कहा नहीं मानते तो उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है। 

थमीराबरानी डेल्टा के कोडीयांकुलम और उसके आसपास के गांवों में 1990 के दशक में एआईएडीएमके और डीएमके दोनों के शासनकाल में जो हिंसा हुई, वह यह बताती है कि न केवल वर्चस्वशाली जाति समूह बल्कि सत्ताधारी पार्टियां भी दलितों की राजनैतिक स्वायत्तता और समाज में उनके आगे बढ़ने को बर्दाश्त नहीं कर पातीं। दलितों में यह परिवर्तन शिक्षा, उनके बीच से जीवंत बुद्धिजीवियों और नेताओं के उभरने व उनकी बेहतर आर्थिक स्थिति के कारण आए हैं। 

समकालीन तमिल इतिहास का इस तरह से अध्ययन करने से हमें पता चलेगा कि सरकारें और (अ)नागरिक समाज (सत्ताभोगी) क्या करते हैं और यह भी कि राज्य द्वारा अपनी नीतियों के ज़रिए विद्यमान व्यवस्थाओं को बदलने के जाहिरा तौर पर उद्यम के बाद भी उत्पादन और जाति के सामाजिक रिश्ते महत्वपूर्ण बने रहते हैं। इसके साथ ही, इस तरह के अध्ययन से यह भी साफ़ होगा कि दलितों के इतिहास, उनकी महत्वाकांक्षाओं और समानता के उनके उग्र दावों के मामले में द्रविड़ विचारधारा एकमत नहीं है। यह इससे स्पष्ट है कि दोनों पुस्तक यह नहीं बताती कि तमिलनाडु में दलित बुद्धिजीवियों के साथ-साथ दलित राजनैतिक और सामाजिक आंदोलनों ने किस तरह लोकतंत्र के घेरे को व्यापक किया है और समानता व आत्मसम्मान जैसी अवधारणाओं को पुनर्परिभाषित किया है।

दुखद तथ्य यह है कि भले ही दलित, द्रविड़ मॉडल को अपना बताता हो, मगर द्रविड़ मॉडल ने दलितों के सरोकारों को अपने ढांचे में जगह नहीं दी है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है कि दलित समान अधिकारों से वंचित एक सामाजिक तबका है, जिसे द्रविड़ समझौते में शामिल किया जाना चाहिए। बल्कि बात यह है कि दलित अधिकारों और दावों को लोकतंत्र और न्याय के मापक के रूप में देखा जाना चाहिए। केवल सनातन धर्म का विरोध करने से काम नहीं चलेगा। इस मापदंड को अपना कर ही हम हिंदू दक्षिणपंथ के झूठों का पर्दाफाश कर सकते हैं। दकियानूसी हिंदू आस्थाओं का विरोध आवश्यक है, मगर हिंदू दक्षिणपंथ को चुनौती देने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। संपूर्ण समानता और न्याय की स्थापना करके ही हिंदू दक्षिणपंथ से मुकाबला किया जा सकता है। 

(यह आलेख पूर्व में अंग्रेजी में हिमाल साउथ एशियन के वेब पर प्रकाशित है तथा यहां इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित है)

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया)

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