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श्रमणत्व और संन्यास:ब्राह्मण-ग्रंथों का अंत्यपरीक्षण

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जब कर्मकांड ब्राह्मणों की आजीविका और पद-प्रतिष्ठा का माध्यम बन गए, तो प्रवृत्तिमूलक शाखा को भारत की प्रधान अध्यात्म परंपरा सिद्ध करने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। कभी धर्म-शास्त्रों की आड़ में, तो कभी नए-नए देवताओं के नाम पर लोगों को बरगलाकर वे अपना उल्लू सीधा करते रहे।

ओमप्रकाश कश्यप

ब्राह्मण परंपरा में संन्यास का खूब महिमा-मंडन हुआ है। क्या ब्राह्मण-ग्रंथों में वर्णित संन्यास की परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी आजीवकों, जैनों और बौद्धों के श्रमणत्व की परंपरा? इसकी खोज के लिए हमें भारतीय वाङ्गय की पड़ताल करनी होगी। लेकिन इसमें एक समस्या है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के इतिहास के बारे में कुछ भी जानना हो तो आदिस्रोत के रूप में विद्वानों का ध्यान सबसे पहले वेद-वेदांगों की ओर जाता है। इसलिए नहीं कि वे भारतीय साहित्य और संस्कृति के सबसे प्रामाणिक और इकलौते स्रोत हैं, बल्कि इसलिए कि लंबे समय से यह बात लोगों के दिलो-दिमाग में बैठा दी गई है कि ब्राह्मण संस्कृति ही भारत की प्रमुख और प्राचीनतम संस्कृति है। इन ग्रंथों में भीषण दोहराव और अभी हाल तक, बिना किसी दायित्वबोध के किया गया प्रक्षेपण है। ऐसे में यह तय करना न केवल बहुत कठिन, बल्कि असंभव है कि किस ग्रंथ का कितना हिस्सा पुराना है और कितना प्रक्षेपित। वैदिक परंपरा को भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पर्याय मान लेने से जैन और बौद्ध धर्मों की साहित्य संपदा, जो पहले से कहीं ज्यादा और प्रामाणिक है– धर्म विशेष की मान लिए जाने के कारण, प्राथमिक स्रोत का गौरव हासिल नहीं कर पाती।

मुख्यत: भारतीय अध्यात्म की दो धाराएं मानी जाती हैं– प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक। प्रवृत्तिमूलक का श्रेय ऋषियों को जाता है। वे यज्ञों के संचालक थे; और उनके माध्यम से देवताओं को प्रसन्न कर, अपने यजमान के लिए सुख, वैभव और खुशहाली की कामना करते थे। हिंदू धर्मग्रंथों का बड़ा हिस्सा इसी को समर्पित है। ब्राह्मणों के लिए प्रवृत्तिमूलक अध्यात्म इतना महत्वपूर्ण रहा कि वेद, वेदांग, पुराण सहित अन्य महाकाव्यों का बड़ा हिस्सा इसी की प्रशस्ति में जुटा रहा। आगे चलकर जब कर्मकांड ब्राह्मणों की आजीविका और पद-प्रतिष्ठा का माध्यम बन गए, तो प्रवृत्तिमूलक शाखा को भारत की प्रधान अध्यात्म परंपरा सिद्ध करने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। कभी धर्म-शास्त्रों की आड़ में, तो कभी नए-नए देवताओं के नाम पर लोगों को बरगलाकर वे अपना उल्लू सीधा करते रहे। बावजूद इसके कुछ अरसा, ज्यादा से ज्यादा सौ साल पहले तक, जनसाधारण का बड़ा हिस्सा निवृत्तिमूलक शाखा का अनुयायी ही बना रहा।

निवृत्तिमूलक शाखा के प्रस्तोता-संवाहक श्रमण, परिव्राजक आदि थे, जो सांसारिक प्रलोभनों को त्यागकर ‘मुक्ति’ की आकांक्षा में यायावरी करते थे। मुक्ति संबंधी उनकी अवधारणा ब्राह्मणों के मोक्ष से एकदम अलग थी। मोक्ष के लिए आराध्य को प्रसन्न कर, उसकी अनुकंपा प्राप्त करना आवश्यक था। जबकि श्रमण दर्शनों में मुक्ति की अवधारणा ज्ञान-साधना के क्षेत्र में पूर्णत्व प्राप्ति के साथ जुड़ी थी, जिसे जैन दर्शन ‘कैवल्य’ और बुद्ध ‘निर्वाण’ कहते थे। ख़ास बात यह कि उसके लिए मृत्यु तक इंतजार करना आवश्यक नहीं था। मानवमात्र के लिए कल्याणकारी मार्ग प्रशस्त करना ही उसका ध्येय था। वहीं दूसरी प्रवृति-मार्गी यज्ञ-संस्कृति में दिखावे, हिंसा, असहिष्णुता और कर्मकांडों की भरमार थी। उसके प्रवर्त्तक आत्मकेंद्रित ऋषि थे, जिनकी दुनिया आश्रमों तक सिमटी रहती थी। बाहरी संसार से उनका संबंध यज्ञ-बलि के लिए पशु और दूसरी समिधा का इंतजाम करने तक सीमित था। इसके विपरीत श्रमण संस्कृति अहिंसक, प्राणीमात्र के प्रति विनयशील, अपरिग्रही, लोक-कल्याण की कामना पर केंद्रित तथा यज्ञ संस्कृति से हजारों वर्ष पुरानी थी। आजीवक दार्शनिक पशु-पक्षी, वन-वनस्पति, जड़-जंगम सभी के प्रति विनम्र रहने का उपदेश देते थे। कुछ तो इतने विनयशील थे कि उनकी शाखा का नाम ही ‘वैनायिक’ पड़ गया था। कौन कितना अहिंसक और अपरिग्रही हो सकता है, इसके लिए भी उनमें होड़ मची रहती थी। ऐसे श्रमणों की एक शाखा का नाम था– हस्तितापस। वे अहिंसा पर जोर देते थे। उनका कहना था कि जीव हत्या मत करो। बहुत से लोगों की भूख मिटाने के लिए यदि मांस भक्षण अपरिहार्य हो जाए तो अनेक जीवों को मारने के बजाए हाथी जैसे बड़े जीव को मारकर काम चला लेना चाहिए।

ऋग्वेद के वातरश्ना मुनि

ऋग्वेद में मुनियों का उल्लेख दसवें मंडल में हुआ है। खास बात यह है कि इस मंडल को प्रक्षेपित मंडलों में सबसे बाद का माना गया है। यहां उन्हें ‘वातरश्ना’ कहा गया है–

मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मला।
वातस्यानु ध्राजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत। (ऋग्वेद 10.136.2)

इसका अर्थ है– वायु ही जिसकी मेखला (कटिवस्त्र) है। वे गैर-ब्राह्मण परंपरा के निर्वसना और चिर-यायावर श्रमण थे। एक जगह टिकते नहीं थे। हमेशा विचारोन्माद में डूबे, वायु के पंखों पर सवार रहते थे। लगातार चलने से उनकी देह मैली (वसते मला) पड़ चुकी थी। उनसे संबंधित ऋचा के ‘दृष्टा’ मुनि हैं– जूति, वातजूति, विप्रजूति, वृषाणक, करिक्रत, एतशः और ऋष्यशृंग। ब्राह्मणों का स्वभाव रहा है कि किसी भी घटना या वस्तु की उत्पत्ति का श्रेय वे किसी न किसी देवता को देते आए हैं। यदि कार्य-विशेष के लिए कोई देवता उपयुक्त न लगे तो नया देवता गढ़ने में भी संकोच नहीं करते।

उपरोक्त ऋचा में मुनियों को देवताओं का सखा बताया गया है।[1] संन्यास को ब्राह्मण संस्कृति का हिस्सा घोषित करने के लिए भी उन्होंने देवताओं की कल्पना की। इसके लिए पुराने ग्रंथों में प्रक्षेपण किया गया। महाभारत के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के बाद प्रजापति ब्रह्मा ने सनकः ससनन्दन, सनत कुमार आदि सात मानस पुत्रों को जन्म दिया था। वे उन्हें सृष्टि संचालन की जिम्मेदारी सौंपना चाहते थे, मगर वे सातों जागतिक प्रलोभनों से मुक्त होकर वन को चले गए थे।[2]

जैन धर्म व बौद्ध धर्म के प्रवर्तक क्रमश: महावीर एवं बुद्ध तथा ऋग्वेद संहिता का मुख पृष्ठ (चौखंबा इंडोवेस्टर्न पब्लिशर्स, वाराणसी)

‘इंडियन साधुज’ में गोविंद सदाशिव घुर्ये महावीर और बुद्ध के अलावा तीन नाम ऐसे गिनाते हैं, जिन्हें वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते हैं। वे हैं– नारद, सनतकुमार और दत्तात्रेय। नारद और सनतकुमार को ब्रह्मा का मानसपुत्र माना जाता है। इनकी ऐतिहासिकता को स्थापित नहीं किया जा सकता। तीसरे दत्तात्रेय के जन्म से भी मिथकीय आख्यान जुड़ा हुआ है, जिसके अनुसार वे अत्रि की पत्नी अनुसूइया के पुत्र थे और उनका जन्म त्रिदेवों के वरदान के फलस्वरूप हुआ था। दत्तात्रेय (तीन शक्तियों द्वारा सौंपा गया) नाम से भी इसी की प्रतीति होती है। दत्तात्रेय और संन्यास का तथाकथित संबंध नारद पुराण के ‘दत्तात्रेयस्तोत्रम से स्थापित होता है, जिसमें उन्हें ‘दिगंबर दयामूर्ते’, ‘जितेंद्रियजितज्ञाय’, ‘दिगंबराय दिव्याय’, ‘वस्त्रेचाकाशभूतले’ (धरती से आकाश तक जिसका वस्त्र है) आदि कहा गया है।[3] यह स्त्रोत महज हजार-आठ सौ वर्ष पुराना है। महाभारत में दुर्वासा का जिक्र हुआ है, जिसमें मुनीत्व का कोई लक्षण नहीं था। किसी शास्त्र में कोई ऐसा ज्ञान नहीं है, जो उनकी ‘मननशीलता’ को प्रमाणित करता हो। राजमहलों में जाकर सुंदर युवतियों से सेवा कराना, शाप का भय दिखाकर लोगों से मनचाहा काम लेना ही उनके ‘मुनीत्व’ का अभीष्ट था। बावजूद इसके ‘जाबालोपनिषद’ में जिन ऋषियों (संवर्तक, आरुणि, श्वेतकेतु, दुर्वासा, ऋभु, निदाघ, जड़भरत, दत्तात्रेय और रैवतक आदि) को परमहंस की कोटि का माना गया है, उनमें दुर्वासा भी शामिल हैं।[4]

संन्यास ब्राह्मण धर्म की सनातन परंपरा नहीं

क्या ये मुनि संन्यासी भी होते थे? वैदिक परंपरा के अनुसार यह अनिवार्य नहीं था। संन्यास आरंभ में वैदिक संस्कृति का हिस्सा था ही नहीं। ‘बृहदारण्यक उपनिषद’ में याज्ञवल्क्य अपनी दो पत्नियों कात्यायनी और मैत्रेयी के साथ सुखमय गृहस्थ जीवन जीते हुए भी मुनि का दर्जा रखते थे। ‘छांदोग्योपनिषद’ में राजा जनश्रुति द्वारा भेंट की गई कन्या को स्वीकारने के बावजूद रैक्व के मुनीत्व पर कोई आंच नहीं आती। सिद्धांतशास्त्री पंडित कैलाश चंद्र के शब्दों में, “वैदिक लोग गंभीर नैतिक नहीं थे। उनकी ऋचाओं में पाप को मानने वाले वाले मनुष्य की टोन में भावी जीवन के लिए कोई चेतावनी नहीं थी… इसी तरह चार आश्रमों की व्यवस्था भी पीछे से आई। ब्राह्मण को ब्रह्मचारी और गृहस्थ के रूप में जीवन बिताने के बाद संन्यासी हो जाना चाहिए, यह नियम वैदिक साहित्य में नहीं मिलता।’[5] बजाय इसके वानप्रस्थी होने के अनगिनत उदाहरण हैं। वानप्रस्थी होना असल में वरिष्ठ नागरिक की भूमिका में आने जैसा था; जो मुख्यत: क्षत्रियों में प्रचलित था। ऋषिगण तो आश्रमों में सपत्नीक रहा करते थे।”

“आरंभिक ब्राह्मण-ग्रंथों में संतानोत्पत्ति को मनुष्य का सर्वोपरि धर्म बताया गया है। उसके लिए सभी आश्रमों, यहां तक कि ब्रह्मचर्य की भी उपेक्षा की जा सकती थी। तीसरे आश्रम के रूप में वानप्रस्थ का उल्लेख अवश्य कुछ उपनिषदों में प्राप्त होता है। बृहदारण्यक उपनिषद में गृहस्थ आश्रम छोड़ने से पहले याज्ञवल्क्य अपनी पत्नियों, मैत्रेयी और कात्यायनी से चर्चा करते हैं।[6] इस उपनिषद में ‘श्रमण’ शब्द भी आया है, लेकिन उसका ब्राह्मण परंपरा से कोई संबंध नहीं दिखता। याज्ञवल्क्य जनक को समझाते हैं कि ‘सुषुप्तावस्था में पिता अपिता हो जाता है, माता अमाता हो जाती है…चांडाल अचांडाल, पौल्कस अपौल्कस, श्रमण अश्रमण और तापस अतापस हो जाते हैं… पुरुष पाप-पुण्य दोनों से असंबद्ध हो जाता है।”[7] धर्मसूत्रों में संन्यास को लेकर अलग-अलग विचार आए हैं। मसलन, हिंदू धर्म ग्रंथ ‘गौतमधर्मसूत्र’ में कहा गया है कि “अध्ययन पूरा करने के पश्चात ब्रह्मचारी को चारों आश्रमों में से किसी भी आश्रम को अपनाने की छूट होती है। वह गृहस्थ, संन्यासी अथवा वानप्रस्थ में से किसी भी एक को चुन सकता है।”[8] ‘आपस्तंब धर्मसूत्र’ में वानप्रस्थ को संन्यासाश्रम (मौन) से पीछे रखा गया है। उसके अनुसार आश्रम चार हैं– गार्हस्थ्य, आचार्यकुल, मौन (संन्यास) और वानप्रस्थ्य।[9] संन्यासी व्यक्ति को सभी सुखों तथा शरण का परित्याग कर, भिक्षा के सहारे जीना चाहिए और सतत परिव्रजनशील रहना चाहिए। वानप्रस्थ में व्यक्ति वन में प्रवेश कर जाता है। यह अधिकार उसी को है, जिसने ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन किया हो। ब्रह्मचर्य पर अन्यत्र भी ज़ोर दिया गया है। ‘जाबालोपनिषद’ में जनक के पूछने पर याज्ञवल्क्य कहते हैं–

“सबसे पहले ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। उसे समाप्त कर गृहस्थ बनना चाहिए। तदनंतर वानप्रस्थी बनना चाहिए। वानप्रस्थ के बाद संन्यास का प्रावधान है। लेकिन यदि संसार से विरक्ति हो जाए तो किसी भी आश्रम के पश्चात प्रव्रज्या ग्रहण की जा सकती है। व्रती हो या अव्रती, स्नातक हो या अस्नातक… जो भी स्थिति हो– प्रव्रज्या तब ग्रहण करनी चाहिए, जब विषयों से पूर्ण विरक्ति हो जाए।”[10]

आश्रम पद्धति को लेकर मनुस्मृति का लेखक विरोधाभास का शिकार लगता है। एक स्थान पर वह तीन वेद, तीन लोक और तीन आश्रमों की बात करता है; फिर यह कहकर कि पिता गार्हस्पत्य अग्नि का पर्याय है– तीनों में गृहस्थाश्रम को प्रधान घोषित कर देता है।[11] अगले अध्याय में लिखता है कि आश्रम धर्म का विधिवत निर्वाह करने; अर्थात ब्रह्मचर्य से गृहस्थ, फिर वानप्रस्थ और अंततः संन्यासाश्रम में प्रवेश करने वाला मनुष्य ही मोक्ष का अधिकारी होता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वेदाध्ययन द्वारा ऋषिऋण से मुक्त हो, पुत्रोत्पादन द्वारा पितृऋण से। तदनंतर यज्ञ, बलि आदि के माध्यम से देवऋण से मुक्ति प्राप्त करे। जो वेदादि का पाठ न करके संन्यास ग्रहण करता है, वह नरकगामी बनता है।[12] इसका दूसरा हिस्सा निश्चय ही प्रक्षेपित है, क्योंकि तीन वेदों का जिक्र उस समय के अनेक ग्रंथों में हुआ है। उदाहरण के लिए मनुस्मृति (1.23) एवं छांदोग्योपनिषद्, तैत्तिरीय ब्राह्मण[13] आदि में भी केवल तीन वेदों के होने की बात कही गई है। जाहिर है ‘चार वेद और चार आश्रम’ की संकल्पना बहुत बाद में जन्मी थी। मनुस्मृतिकार के अंतर्विरोध तथा गौतम एवं याज्ञवल्क्य के कथनों को देखते हुए कहा जा सकता है कि भारतीय परंपरा में चार आश्रम न होकर चार आश्रमिक विकल्प थे। ‘वशिष्ट धर्मसूत्र’ में भी गृहस्थाश्रम को सर्वोत्तम मानते हुए कहा गया था कि जैसे सभी नदियां-महानदियां समुद्र में समाई होती हैं, वैसे ही सारे आश्रम गृहस्थाश्रम में स्थित रहते हैं।[14]

वेदांतसूत्र में भी गृहस्थ धर्म को सर्वोपरि मानते हुए, उसकी जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद ही संन्यास आदि की अनुशंसा की गई है। कदाचित यह आर्य ब्राह्मणों का लंबे समय से चला आ रहा अल्पसंख्यक बोध ही था, जिसके चलते संतानोत्पत्ति को मनुष्य का प्रथम सामाजिक दायित्व माना गया। गृहस्थ आश्रम पर इतना जोर दिया गया कि जब भी कोई व्यक्ति, गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने से पहले या बाद में– संन्यास की इच्छा व्यक्त करता तो उसके परिजन विरोध पर उतर जाते थे। इस तरह के उदाहरण प्राचीन साहित्य में भरे पड़े हैं। बुद्ध और महावीर के मन में संसार के प्रति उमड़ते अनासक्ति भावों को देखते हुए उनके परिजन उनके चारों ओर सांसारिक प्रलोभनों की दीवार खड़ी कर देते हैं। मिथकीय ध्रुव और नचिकेता की तपस्या रोकने के लिए तो देवताओं तक ने अनथक कोशिश की थी। समस्या उस समय भी उत्पन्न होती है, जब विश्वामित्र दशरथ से राम को वन जाने की अनुमति देने का आग्रह करता है। 101 पुत्रों का पिता होने के बावजूद धृतराष्ट्र उस समय कमजोर पड़ जाता है, जब पांडवों के साथ राज्य बांटने का विरोध करते हुए दुर्योधन सबकुछ छोड़कर वन चले जाने की धमकी देता है। वाल्मीकि रामायण में संन्यासी एक भी नहीं हैं। हां, वानप्रस्थी बहुतायत में हैं। सच तो यह है कि प्राचीन वाङ्मय में वानप्रस्थ को ही संन्यास आश्रम की तरह प्रस्तुत किया गया है। ब्राह्मणों का पूरा जोर यज्ञों पर था। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है– जब तक जीवित रहो, यज्ञ करो।[15]

प्राचीन आचार्यों के अनुसार यदि आश्रम व्यवस्था का स्वरूप निर्धारित था ही नहीं, यहां तक गौतम ने भी ब्रह्मचर्य के बाद किसी भी आश्रम को अपनाने की छूट दी है, तो चार आश्रम वाली पद्धति, कब और किसकी प्रेरणा से चलन में आई? इसका सीधा-सा जवाब है– वैदिक धर्म से हजारों वर्ष पुरानी श्रमण परंपरा के कारण ही ब्राह्मण धर्म में वानप्रस्थ और संन्यास को प्रश्रय मिला था।[16] लेकिन आजीवक, जैन और बौद्ध दर्शनों में जहां समाज के सभी वर्गों को श्रमणत्व प्राप्त करने की आज़ादी थी, वहीं ब्राह्मण परंपरा में शूद्र को न तो वेदपाठ की अनुमति थी, न ही यज्ञादि की। संन्यास उन्हीं के बाद संभव था। ‘नारदपरिव्राजकोपनिषद’ में नारद द्वारा यह पूछने पर कि “संन्यास किसके द्वारा लिया जा सकता है और उसका अधिकारी कौन है?”, ब्रह्मा के मुंह से कहलवाया जाता है–

“सावधानी पूर्वक सुनो! नपुंसक, पतित (शूद्र-अतिशूद्र आदि), अंगविहीन, कामासक्त, बधिर, गूंगे, बालक, पाखंडी (वैदिक परंपरा में अविश्वास रखने वाले), चक्री, लिंगी, वैखानस (वानप्रस्थी), हरद्विज (शिवभक्त), वेतन लेकर शिक्षण करने वाले ब्राह्मण, शिपिविष्ट (गंजे या कोढ़ी), नग्नक (अग्निहोत्र न करने वाले आजीवक, जैन श्रमण), ये सब विरक्त होने पर भी संन्यास ग्रहण करने के अधिकारी नहीं हैं।”[17]

‘जबालोपनिषद’ तथा ‘नारदपरिव्राजकोपनिषद’ के संन्यास संबंधी नियमों से साफ़ पता चलता है कि वे ब्राह्मणों द्वारा ब्राह्मणों के लिए आजीवक, जैन और बौद्ध धर्म से मिल रही चुनौतियों से निपटने के लिए बनाए गए थे। संभवत: पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के आसपास ‘जबालोपनिषद’ का रचनाकाल माना जाता है। अथवा उसके बाद जब ब्राह्मणों को लगा कि केवल आश्रमों तक सीमित रहने से उनके धर्म और संस्कृति की रक्षा संभव नहीं है, क्योंकि आजीवक, जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव में आश्रमों को मिलने वाली मदद में कमी आई थी। इसके बावजूद ब्राह्मण परंपरा में संन्यास शताब्दियों बाद तक प्रचलित नहीं हो पाया था। ब्राह्मण संन्यासियों तथा गैर-ब्राह्मण श्रमणों में स्पर्धा और ईर्ष्या की भावना लगातार बनी रही। ‘अष्टाध्यायी’ में पाणिनि के मूल पद ‘एषां च विरोधः शाश्वतिकः’ की व्याख्या के समय ‘तत्वबोधिनी’(16-17वीं शताब्दी) में जो उदाहरण दिए थे, उनमें श्रमण और ब्राह्मण के बीच विरोध को शाश्वत बताया गया है।[18]

संदर्भ :

[1] वात्स्यश्वो वयोः सखाथो देवेषितो मुनिः। ऋग्वेद 10.136.5

[2] सन सनत्सुजातश्च सनकः ससनन्दन, सनत्कुमार, कपिल, सप्तमश्च सनातन
सप्तैते मानसा प्रोक्ता ऋषयो ब्रह्मणसुता स्वयमागतविज्ञाना निवृर्ति धर्ममास्थिता। महाभारत, शांतिपर्व

[3] दत्तात्रेयस्तोत्र, नारदपुराणम्। यह एक हजार वर्ष पुरानी रचना है। उस समय तक ब्राह्मण धर्म, श्रमण परंपरा के धर्मों की ओर से मिल रही चुनौतियों से निपटने के लिए संन्यास आश्रम को अपना चुका था।

[4] जाबालोपनिषद 6.1

[5] कैलाश चंद्र, जैन साहित्य का इतिहास की पूर्वपीठिका [1963 : 81-82]

[6] मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्य: प्रव्रजिष्यन्वा अरेऽहमस्मात्, स्थानादस्मि, बृहदारण्यक उपनिषद, 4.5.2

[7] चाण्डालोऽचाण्डालः पौल्कसोऽपौल्कसः श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽतापसो… बृहदारण्यक उपनिषद, 4.3.22

[8] स्याऽऽश्रम विकल्पमेके ब्रुबते।
ब्रह्मचारी गृहस्थो भिक्षुर्बैखानसः। गौतम धर्मसूत्र मिताक्षरा टीका सहित [1966], 1.3.1-2

[9]  चात्वार आश्रमा गार्हस्थ्यम्, आचार्यकुलं, मौनं, वानप्रस्थ्यमिति। आपस्तंब धर्मसूत्र, 2.9.1

[10] स होवा याज्ञवल्क्यो ब्रह्मचर्यं समाप्य गृही भवेत्, गृही भूत्वा वनी भवेत्, वनी भूत्वा प्रव्रजेत्। यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद् गृहाद्वा वनाद्वा। अथ पुनरव्रती वा व्रती वा स्नातको वास्नातक वा उत्सन्नाग्निरनग्निको वा यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेत्। जाबालोपनिषद, 4.1

[11] त एव हि त्रयो लोकास्त एव त्रय आश्रमाः
त एव हि त्रयो वेदास्त एवौक्तास्त्रयोऽग्नयः
पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताऽग्निर्दक्षिणः स्मृतः। मनुस्मृति, 2.230-231

[12] ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशएत्
अनपाकृत्य मोक्षं तु सेवमानो व्रजत्यधः।
अधीत्य विधिवद् वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः
इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशएत्।
अनधीत्य द्विजो वेदाननुत्पाद्य तथा सुतान्
अनिष्ट्वा चैव यज्ञैश्च मोक्षमिच्छन् व्रजत्यधः। मनुस्मृति, 6.35-37

[13] तं त्रयो वेदा अन्वसृत्यन्त। तैत्तिरीय ब्राह्मणं, 2.3.10

[14] यथा नदी नदाः सर्वे समुद्रे यान्ति संस्थितिम्
एवमाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्। वशिष्टधर्मशास्त्रम्, 8.15

[15] एतद् वै जरामर्यं सत्रं यद् अग्निहोत्रम्। शतपथ ब्राह्मण, 13.4.1.1

[16] डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल, कैलाश चंद्र, जैन साहित्य का इतिहास की पूर्वपीठिका [1963 : 13( प्राक्कथन)]

[17] शृणु। अथ षण्ढः पतितोऽङ्गविकलः स्त्रैणो बधिरोऽर्भको मूकः पाषंडश्चक्री लिङ्गी वैखानसहरद्विजौ भृतकाध्यापकः शिपिविष्टोऽनिग्निको वैराग्यवन्तोऽप्येते न संन्यासार्हाः.संन्यस्ता। नारदपरिव्राजकोपनिषद्, 3.1

[18] अष्ठाध्यायी, तत्वबोधिनी [2.4.9], https://ashtadhyayi.github.io/suutra/2.4/2.4.9/

तिकड़ी में शामिल करने के बावजूद शिव को देवलोक में नहीं बसाया गया। वैसे भी जब एक शूद्र गांव के भीतर नहीं बस सकता तो अनार्य देवता को स्वर्ग में जगह कैसे मिल सकती थी।

श्रमण और संन्यासी

‘समण’ प्राकृत भाषा का शब्द है। इसके संस्कृत पर्याय ‘श्रमण’ की उत्पत्ति ‘श्रम’ से हुई है, जिसका अर्थ है– श्रम में लगे रहना। इसका आशय यह है कि जो तप-संयम में यथासामर्थ्य पुरुषार्थ करता है, उसे श्रमण कहते हैं। श्रमण हमेशा अपने लक्ष्य के साथ, उसकी दिशा की ओर गमन करता रहता है। वह किसी भी दिखावे या कर्मकांड से बचता है। जीवन के अंतिम लक्ष्य के रूप में हालांकि श्रमण भी ‘पूर्णत्व’ की खोज में रहता है। लेकिन इस ‘लंबी यात्रा’ के बीच वह सदैव इस कोशिश में रहता है कि पूरी मनुष्यता का कल्याण हो सके।

ब्राह्मण-ग्रंथों का अंत्यपरीक्षण (संदर्भ : श्रमणत्व और संन्यास, अंतिम भाग)

तिकड़ी में शामिल करने के बावजूद शिव को देवलोक में नहीं बसाया गया। वैसे भी जब एक शूद्र गांव के भीतर नहीं बस सकता तो अनार्य देवता को स्वर्ग में जगह कैसे मिल सकती थी। पढ़ें, ओमप्रकाश कश्यप के आलेख का दूसरा व अंतिम भाग

ओमप्रकाश कश्यप October 8, 2024

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श्रमण और संन्यासी

‘समण’ प्राकृत भाषा का शब्द है। इसके संस्कृत पर्याय ‘श्रमण’ की उत्पत्ति ‘श्रम’ से हुई है, जिसका अर्थ है– श्रम में लगे रहना। इसका आशय यह है कि जो तप-संयम में यथासामर्थ्य पुरुषार्थ करता है, उसे श्रमण कहते हैं। श्रमण हमेशा अपने लक्ष्य के साथ, उसकी दिशा की ओर गमन करता रहता है। वह किसी भी दिखावे या कर्मकांड से बचता है। जीवन के अंतिम लक्ष्य के रूप में हालांकि श्रमण भी ‘पूर्णत्व’ की खोज में रहता है। लेकिन इस ‘लंबी यात्रा’ के बीच वह सदैव इस कोशिश में रहता है कि पूरी मनुष्यता का कल्याण हो सके।Previous

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एक ओर ‘ब्राह्मण’ जहां ब्रह्ममय हो जाने को मोक्ष का दर्जा देता है; वहीं ‘श्रमण’ मानता है कि जीवन का परम उद्देश्य ब्रह्म की प्राप्ति न होकर लोकोपकारी ज्ञान तथा उसके लिए की जाने वाली साधना है। उसकी मदद से वह जीवन और दुख और क्लेशमय बनाने वाले कारकों को समझकर, उनके समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकता है।

श्रमण को ‘शमन’, ‘समन’ आदि लिखा जाता है। इनमें शमन का अर्थ चित-वृत्तियों का निरोध, संयम, दमन आदि है, वहीं समन को समताभाव के अर्थ में लिया जाता है। वह हिंसा, परिग्रह आदि से सर्वथा परे श्रमणत्व में यकीन रखता है।[1] इसके मायने हैं सभी को अपने जैसा समझना, प्राणी मात्र के प्रति समभाव रखना। कुल मिलाकर श्रमणत्व में श्रम, सम और शम ये तीन मानव-मूल्य समाहित हैं। जो व्यक्ति आत्मानुशासन के बल पर तीनों को साध लेता है, वही श्रमण कहे जाने का अधिकारी होता है।

श्रमण परंपरा से निकले धर्मों में चार आश्रमों के बजाय केवल दो आश्रमों, गृहस्थ एवं संन्यास को ही मान्यता प्राप्त थी; उनमें भी संन्यास सर्वोपरि था। उसके लिए कोई उम्र निर्धारित नहीं की गई थी। बुद्ध और महावीर ने लगभग तीस वर्ष की अवस्था में प्रव्रज्या ग्रहण की थी। जबकि भगवती सूत्र में गोसालक ने दावा किया था कि उन्होंने कुमारावस्था में ही प्रव्रज्या (कौमारिक प्रव्रज्या) ग्रहण कर ली थी।[2] जैन साहित्य में निर्ग्रन्थ, शाक्य (बौद्ध), तापस, गैरिक और आजीवक (गोसालक मतानुयायी), पांच प्रकार के श्रमण बताए गए हैं। उनके श्रमणत्व की सार्थकता अपने ज्ञानानुभव तथा सद्प्रयासों द्वारा मानव जीवन को सर्वोच्च स्थान दिलाने से आंकी जाती है।

‘श्रमण’ की भांति ‘आश्रम’ की उत्पत्ति भी ‘श्रम’ हुई है। मगर ब्राह्मण ऋषियों के आश्रम उनके धार्मिक-सांस्कृतिक उपनिवेश जैसे थे। श्रम और श्रम-कौशल के भरोसे जीवनयापन करने वालों के प्रति वे हिकारत भरा नजरिया अपनाते थे।

संन्यास और शिव

इसके पहले के वर्णन में हमने देखा कि संन्यास वैदिक परंपरा का हिस्सा नहीं था। श्रमण परंपरा के दर्शनों की ओर से मिल रही चुनौती से निपटने के लिए करीब 1500 वर्ष पहले उसे ब्राह्मण-ग्रंथों में सम्मान मिला था। दूसरा स्थापित सत्य यह कि शिव अवैदिक देवता हैं। देवताओं की तिकड़ी में जगह उन्हें बहुत बाद में दी गई। क्या इन दोनों घटनाओं का आपस में कोई संबंध है? क्या संन्यास को वैदिक संस्कृति का अभिन्न हिस्सा सिद्ध करने के लिए शिव को देवताओं की तिकड़ी में जगह देना अपरिहार्य था?

सिंधु सभ्यता से प्राप्त ‘योगी मुद्रा’ से प्रमाणित होता है कि भारत में आज से पांच हजार वर्ष पहले भी श्रमण सभ्यता विद्यमान थी। जैन उसे आदि तीर्थंकर ऋषभ से जोड़ते हैं, ब्राह्मण वैदिक देवता रुद्र से। लगभग सभी विद्वान इससे सहमत हैं कि ऋग्वेद आदि ग्रंथों में जिन वेद-बाह्य, पाषंडस्थ वातरश्ना श्रमणों तथा व्रात्यों का उल्लेख हुआ है– वे सिंधु सभ्यता के समय से चली आ रही श्रमण परंपरा के उत्तराधिकारी थे। आजीवक और जैन उन्हीं के अथवा उनके समानांतर श्रमण संघों के बौद्धकालीन प्रतिनिधि थे। बाहर से आए आर्यों का भारत-भूमि पर कदम रखते समय इन्हीं पुरातन आध्यात्मिक प्रतिनिधियों से सामना हुआ था। आर्यों का प्रमुख देवता इंद्र था। ‘जंगली’, भयानक, चीखने और भीषण नाद करने वाले उदार देवता के रूप में रुद्र की कल्पना उन्होंने कदाचित भारत आने के बाद की थी।[3] यह शिव की योगेश्वर अथवा पाशुपत छवि से कतई मेल नहीं खाती।

ब्राह्मणों की मेधा और कल्पनाशक्ति पर भरोसा करने वाला पूछ सकता है कि शिव यदि बाहरी थे तो उन्हें वैदिक परंपरा में शामिल करने की क्या जरूरत थी? 33 करोड़ देवताओं को कल्पना के बल पर रचने वाले ब्राह्मण क्या शिव जैसा ही एक और देवता नहीं गढ़ सकते थे? बिलकुल गढ़ सकते थे। लेकिन मूल समस्या जनता के भरोसे की थी। उस समय तक शैव धर्म सूदूर दक्षिण तक अपनी पैठ बना चुका था। वहां जनसमाज में शिव और उनके कुल के देवताओं की वैसी ही पैठ थी, जैसी उत्तर और उत्तर पूर्व भारत में श्रमण परंपरा के धर्मों की। शैव और श्रमण परंपरा के दर्शनों में आपसी तालमेल भी था। यही कारण है कि उत्तर भारत में जब आजीवक धर्म पर हमले बढ़े और संरक्षण के अभाव में आजीवक श्रमणों का इधर टिकना मुश्किल हो गया तो उन्हें दक्षिण में ही शरण मिली थी। लेकिन उत्तर भारत से उनका संपर्क नहीं टूटा था।

ऐतिहासिक स्रोतों से यह भी पता चलता है कि दक्षिण के आजीवकों का कश्मीर से गहरा संबंध था। सातवीं शताब्दी में चीन में तांग साम्राज्य के सम्राट ने अमरत्व (दीर्घजीवन) देने वाली औषध के जानकार लोकायत (आजीवक) को बुलाने के लिए अपने एक राजदरबारी को भारत भेजा था। वह अधिकारी कश्मीर पहुंचकर ऐसे ही एक लोकायती से मिला था। चीन चलने के प्रस्ताव पर लोकायती ने कहा था कि वह अमरत्व देने वाली औषध बनाना जानता है, लेकिन उसके लिए जिन घटकों की जरूरत पड़ेगी, उन्हें दक्षिण से लाना पड़ेगा। बहरहाल आजीवक दर्शन का नवोन्मेष तो दक्षिण की धरती पर ऐसा हुआ कि कुछ विद्वान तमिलभूमि को ही उसकी जन्मस्थली मानने लगे।

जैन धर्म व बौद्ध धर्म के प्रवर्तक क्रमश: महावीर एवं बुद्ध तथा ऋग्वेद संहिता का मुख पृष्ठ (चौखंबा इंडोवेस्टर्न पब्लिशर्स, वाराणसी)

दक्षिण में अपने पैर जमाने तथा उत्तर भारत में आजीवक, जैन और बौद्ध दर्शनों की सामाजिक पैठ को कमजोर करने के लिए ब्राह्मणों के पास शिव के देवत्व को स्वीकारने और उसे अपनी परंपरा का हिस्सा बनाने के अलावा कोई और विकल्प ही नहीं था। वैसे भी जैन, बौद्ध और आजीवकों जैसे अहिंसा और नैतिकता प्रधान दर्शनों आगे ऋग्वेद के पुराने हिंसक और विलासी देवता टिकने वाले नहीं थे। विशेषकर इंद्र, जिसकी छवि कामलोलुप, घमंडी, विलासी और नशे में डूबे रहने वाले ऐसे देवता की थी; और काम नरहत्या तथा अनार्य निर्माणों का ध्वंस करना था। तिकड़ी के शेष दो देवताओं में विष्णु भी किसी काम के नहीं थे। वे हजारों-लाखों वर्षों में मनमर्जी से अवतार लेकर, धरती पर सबकुछ ठीक-ठाक करने का भरोसा देते थे; शेष समय क्षीरसागर में पत्नी लक्ष्मी के साथ रमण करते थे। ब्रह्मा पर अपनी ही पुत्री के साथ बलात्कार का आरोप था। समायोजन की प्रक्रिया में निशाना बना इंद्र। उसे प्रमुख देवताओं की श्रेणी से निकलकर शिव को ‘तिकड़ी’ में शामिल किया गया। पौराणिक ग्रंथों और लोकसाहित्य में उन्हें ऐसे देवता के रूप में दिखाया जाने लगा जो आमजन के सुख-दुख का पता लगाने के लिए मृत्यु लोक में घूमते रहते हैं। उन्हें मनाना आसान था। विष्णु और ब्रह्मा को मनाने के लिए जन्म-जन्मान्तर तक तपस्या करनी पड़ती थी। शिव को उनके प्रतीक पर बेलपत्र-फूल चढ़कर खुश किया जा सकता था। तिकड़ी में शामिल करने के बावजूद उन्हें देवलोक में नहीं बसाया गया। वैसे भी जब एक शूद्र गांव के भीतर नहीं बस सकता तो अनार्य देवता को स्वर्ग में जगह कैसे मिल सकती थी। तिकड़ी में केवल शिव ऐसे हैं जिनका निवासस्थल कैलाश पर्वत; यानी पृथ्वी पर बताया गया; जो जनसाधारण से ऊपर और स्वर्ग से बहुत-बहुत नीचे था।

एक तीर, तीन निशाने

यह एक दिन या कुछ वर्षों में अथवा किसी व्यक्ति के प्रयास से संपन्न होने वाली प्रक्रिया नहीं थी। इसकी शुरुआत कब हुई इसका पता लगाना भी मुश्किल है; लेकिन एक प्रमाण वराहमिहिर के ‘बृहज्जातक’ में देखा जा सकता है। वराहमिहिर ने आजीवक और ब्राह्मण यति को गृह-नक्षत्रों की एक समान युति का सुफल बताया है। ‘बृहज्जातक’ के अनुसार चार, पांच, छह या सात ग्रह एक ही स्थान पर एकत्र हो जाएं तो प्रव्रज्यायोग होता है। इसकी टीका करते हुए महीधर शर्मा ने लिखा है कि यदि मंगल बली हो तथा भगवा वस्त्रधारी बौद्ध, बुद्ध बली हो व एकदंडी और भिक्षु-यति एवं बृहस्पति बली हो तो जातक आजीवक-वैष्णव बनता है।[4] अन्य टीकाकार सीताराम झा के अनुसार बुद्ध बली हो तो आजीवक तथा गुरु बली हो तो यती यानी ब्राह्मण भिक्षु बनता है।[5] कदाचित यह पहला अवसर था जब किसी ब्राह्मण ग्रंथ में आजीवक, जैन और बौद्ध को सम्मान के साथ दर्शाया गया था।

शिव को देवताओं की तिकड़ी में शामिल करना, ब्राह्मणों के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ। देखा जाए तो उस एक निर्णय से उन्होंने तीन मोर्चों पर फतह हासिल कर ली थी; वे थे–

  1. जनसाधारण में संदेश गया कि संन्यास वैदिक परंपरा का हिस्सा था और वैदिक ऋषि संन्यासियों जैसा ही निस्पृह अहिंसक, त्यागी और अपरिग्रही जीवन जीते थे।
  2. आमजन कभी आजीवक/लोकायत धर्म में विश्वास करता था, उसमें ब्राह्मण धर्म की पैठ बनने लगी। अत्यधिक दबाव पड़ने पर जब आजीवकों का दूसरे धर्मों में पलायन आरंभ हुआ तो उन्होंने अपने ही जैसे अवैदिक और भौतिकवादी जैन और बौद्ध दर्शन को अपनाने के बजाय शैव धर्म को चुना, जिसका पूरी तरह ब्राह्मणीकरण हो चुका था।
  3. शिव को तिकड़ी में शामिल करने का बड़ा लाभ उन्हें दक्षिण में मिला, जहां शिव को बहुत पहले से प्रधान देवता का दर्जा हासिल था। इससे वहां ब्राह्मणों के पैर जमने लगे। कौटिल्य ने आजीवक, जैन, बौद्ध आदि श्रमणों को घर आमंत्रित कर, भोज कराने पर सौ पण के दंड का प्रावधान किया था। ‘अर्थशास्त्र’ की रचना उत्तर-पश्चिम भारत में हुई थी। लेकिन इस नियम पर अमल हुआ दक्षिण भारत में। तीसरी शताब्दी से बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के बीच के आधुनिक तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक आदि क्षेत्रों कम से कम 18 ऐसे अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं, जो वहां आजीवकों पर कर लगाए जाने की पुष्टि करते हैं। यही नहीं, उत्तर भारत में आजीवकों, जैनों और बौद्धों के प्रति जो ईर्ष्या थी, ब्राह्मणों के दक्षिण में मजबूत होने के साथ वहां भी पसरने लगी। उसका दुष्परिणाम था, सातवीं शताब्दी में शैव संत संबदनार और मंत्री के उकसावे पर पांड्य सम्राट द्वारा 8000 जैन मुनियों का कत्लेआम, जिसके चिह्न आज भी मदुरै के मीनाक्षी मंदिर सहित दक्षिण भारत के कई मंदिरों में रक्षित हैं।

शिव को तिकड़ी में लेने के बाद ब्राह्मणों द्वारा निरंतर पौराणिक लेखन-प्रक्षेपण और दर्जनों नए उपनिषद् लिखकर संन्यास को ब्राह्मण धर्म का अभिन्न हिस्सा बनाने की कोशिश की गई। हालांकि मिथकीय शास्त्रों के बाहर निकलकर वे गोसालक, बुद्ध या महावीर की टक्कर के एक भी श्रमण-दार्शनिक को जन्म नहीं दे सके।

(समाप्त)

संदर्भ :

[1] एमेए समणा मुत्ता जे लोए संति साहुणो, समण सूत्त, दशवैकालिक, 1.3

[2] कोमारियपव्वजाए, कोमारएणं बंभचेरवासेणं …, भगवतीसूत्र, 15.101

[3] स्तोमं वो अद्य रुद्राय शिक्वसे क्षयद्वीराय नमसा दिदिष्टन

एभिः शिवः स्ववां एवयावभिर्दिवः सिषक्ति स्वयशा निकामभिः, ऋग्वेद10.92.9

[4] एकस्थैश्चतुरादिभिर्बल युतैर्जाता: पृथग्वीर्यगै:

शाक्याजीविकभिक्षुवृद्धचरकानिर्ग्रन्थवन्याशना, बृहज्जातकम्, 15.1

[5] बृहज्जातक, सीताराम झा, टीका [1944 : 200]

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