ललित सुरजन
‘नब्बे के दशक की एक सत्यकथा को फिर से जान लेते हैं। तत्कालीन मध्यप्रदेश की एक लोकसभा सीट पर कांटे की टक्कर थी। एक तरफ एक पार्टी के सचमुच दिग्गज कहे जा सकने वाले नेता थे, उनके सामने एक अपेक्षाकृत युवा किंतु अनुभवी उम्मीदवार था। युवा प्रत्याशी के जीतने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन अंतत: वह लगभग एक हजार वोट से हार गया।
निर्वाचन अधिकारी याने जिला कलेक्टर ने मतगणना के दौरान उसके खाते के कोई दस हजार वोट थोड़े-थोड़े कर दस-बारह निर्दलीय प्रत्याशियों के खाते में दर्ज करवा दिए और इस चाल को समझने में प्रत्याशी ने चूक कर दी। पुर्नमतगणना की मांग भी नहीं की। इस तरह चुनाव अधिकारी के सहयोग से दिग्गज नेता ले-देकर जीत गए।
इस पुरस्कारोचित सहयोग भावना का उन्नत स्वरूप अभी देखने मिला, जब एक राज्य में निर्वाचन अधिकारी ने निवर्तमान मुख्यमंत्री का नामांकन पत्र निरस्त कर दिया। आशय यह कि नामांकन दाखिले से लेकर नतीजा आने के बीच कुछ भी हो सकता है। कहावत है न- देयर आर मैनी स्लिप्स, बिटवीन द कप एंड द लिप्स।’
(देशबन्धु में 10 नवंबर 2018 को प्रकाशित )