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भारत में फासीवाद का उभार और मध्यमवर्गीय राजनीति का गठजोड़

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मनोज अभिज्ञान

फासीवाद, जो कि 20वीं सदी में यूरोप में उभरी राजनीतिक परिघटना थी, आज के भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में नए रूप और संदर्भ में उभर रहा है। फासीवाद केवल विचारधारा नहीं है, बल्कि यह सत्ता की संरचनाओं में परिवर्तन का एक साधन भी है, जिसमें जनसंख्या के एक खास वर्ग की भावनाओं, असुरक्षा और आर्थिक हितों का दोहन किया जाता है। शहरी मध्यम वर्ग या मध्यमवर्गीय राजनीति का उभार, फासीवाद की इस नई लहर को हवा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

भारत में वर्तमान फासीवादी प्रवृत्तियों, मध्यमवर्गीय राजनीति, और इसके ऐतिहासिक संदर्भ को समझने के लिए यह ध्यान देना होगा कि कैसे भारत का मध्यम वर्ग, जो कभी आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण का प्रतीक माना जाता था, अब फासीवादी राजनीति का मुख्य केंद्र बनता जा रहा है, और कैसे इसके माध्यम से देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं और कानून व्यवस्था पर असर पड़ रहा है।

फासीवाद की परिभाषा और विशेषताएं विभिन्न संदर्भों में बदलती रही हैं। यह वह विचारधारा है, जो कठोर राष्ट्रवाद, अधिनायकवाद, सैन्यवाद, और एकल नेता के शासन के सिद्धांतों पर आधारित होती है। फासीवाद अक्सर बहुसंख्यक वर्ग की असुरक्षाओं और असंतोष का लाभ उठाकर सत्ता तक पहुंचता है, और इसका मुख्य उद्देश्य विपक्ष को दबाना, वैचारिक स्वतंत्रता को सीमित करना, और सत्ता में बने रहने के लिए जनसमर्थन का निर्माण करना होता है।

यह विचारधारा अब केवल धार्मिक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में ही नहीं, बल्कि आर्थिक उदारीकरण के दुष्प्रभावों के परिणामस्वरूप भी सामने आ रही है। यहाँ, फासीवाद का स्वरूप हिन्दू राष्ट्रवाद, धार्मिक उग्रता, और असहमति की आवाजों को दबाने के रूप में देखा जा सकता है।

भारत में, धार्मिक राष्ट्रवाद को राजनीतिक मंच पर प्रमुखता से प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें ‘हिंदुत्व’ की विचारधारा को आगे बढ़ाने वाली ताकतें बड़ी भूमिका निभा रही हैं। यह विचारधारा भारतीय इतिहास और संस्कृति को विशेष धार्मिक दृष्टिकोण से परिभाषित करती है और देश की बहुसंख्यक हिंदू जनसंख्या की भावनाओं को भड़काने का कार्य करती है। इस प्रक्रिया में, धार्मिक अल्पसंख्यकों को ‘अन्य’ के रूप में चित्रित किया जाता है, और उन्हें राष्ट्र के लिए खतरे के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

फासीवादी प्रवृत्तियों की एक अन्य प्रमुख विशेषता यह है कि वे असहमति की आवाज़ों को कुचलने की कोशिश करती हैं। हम देख रहे हैं कि छात्र आंदोलनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, और पत्रकारों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। उन्हें देशद्रोही कहा जाता है, उनकी स्वतंत्रता को सीमित किया जाता है, और कभी-कभी उन्हें हिंसा का सामना भी करना पड़ता है।

भारतीय मध्यम वर्ग का इतिहास स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा हुआ है, जहाँ इस वर्ग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। परंतु, आज के परिप्रेक्ष्य में, इस वर्ग की सामाजिक और राजनीतिक भूमिका में बड़े बदलाव आए हैं।

1991 में भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई, जिससे निजीकरण, वैश्वीकरण, और उपभोक्तावाद का युग शुरू हुआ। इसने शहरी मध्यम वर्ग को आर्थिक रूप से सशक्त किया, और उसकी जीवनशैली और सामाजिक स्थिति में बड़ा परिवर्तन आया। लेकिन समय के साथ, यह आर्थिक प्रगति असंतुलित हो गई, और मध्यम वर्ग खुद को असुरक्षित महसूस करने लगा। बेरोजगारी, आय में असमानता, और नौकरी की अनिश्चितता जैसे मुद्दों ने इस वर्ग को प्रभावित किया।

असुरक्षा और अनिश्चितता की इस भावना ने भारतीय मध्यम वर्ग को फासीवादी राजनीति की ओर आकर्षित किया। फासीवाद ने उनकी असुरक्षाओं और समस्याओं को राष्ट्रवाद, सुरक्षा, और सामाजिक स्थिरता के माध्यम से संबोधित करने का वादा किया। भारत में यह प्रवृत्ति खासकर उन क्षेत्रों में अधिक देखी जा सकती है, जहाँ आर्थिक असमानता और बेरोजगारी अधिक है।

भारतीय फासीवादी राजनीति में मध्यम वर्ग की भूमिका केवल समर्थन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वर्ग सक्रिय रूप से इस राजनीति का निर्माण भी कर रहा है। कई मध्यम वर्गीय नेता, पत्रकार, और बुद्धिजीवी, जो कभी उदारवादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के समर्थक थे, अब फासीवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं।

मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फासीवादी विचारधारा का जोरदार प्रचार हो रहा है। इसे बढ़ावा देने में मध्यम वर्गीय बुद्धिजीवियों और पत्रकारों की भूमिका अहम रही है। उनके लेख और बहसें, अक्सर राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पहचान के नाम पर विभाजनकारी राजनीति को बढ़ावा देती हैं। सोशल मीडिया, जहाँ आम जनता आसानी से अपनी राय व्यक्त कर सकती है, वहां भी मध्यम वर्गीय उपयोगकर्ताओं की भागीदारी अधिक है।

मध्यम वर्ग ने निजी संगठनों और संस्थाओं के माध्यम से हिंसा को वैधता प्रदान की है। जैसे कि हाल के वर्षों में ‘गौ रक्षक दल’ और ‘मोरल पुलिसिंग’ के नाम पर निजी संस्थाएं सामने आई हैं, जिन्हें सीधे या परोक्ष रूप से मध्यम वर्ग का समर्थन मिला है। ये संस्थाएं सरकार द्वारा संचालित कानून व्यवस्था को कमजोर कर रही हैं और खुद न्याय करने का दावा कर रही हैं।

भारत में आज जो राजनीतिक अस्थिरता और संस्थानों का पतन देखा जा रहा है, उसका बड़ा हिस्सा फासीवादी प्रवृत्तियों और मध्यम वर्ग के समर्थन से जुड़ा हुआ है। लोकतांत्रिक संस्थाएं जैसे कि संसद, न्यायपालिका, और स्वतंत्र प्रेस कमजोर होती जा रही हैं।

पार्लियामेंट, जो लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रतीक है, अब अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा खोता जा रहा है। फासीवादी सरकारें, जो अक्सर बहुसंख्यकवादी राजनीति पर निर्भर करती हैं, संसद को केवल एक दिखावा मानती हैं और असली निर्णय बाहर के संगठनों या निजी संगठनों के माध्यम से किए जाते हैं।

फासीवादी ताकतें न्यायपालिका और प्रेस की स्वतंत्रता पर भी लगातार हमले कर रही हैं। न्यायालयों पर सरकार के प्रभाव के आरोप लगते रहे हैं, और कई बार न्यायपालिका के फैसले विवादास्पद रहे हैं। वहीं प्रेस, जो कभी स्वतंत्रता का स्तंभ माना जाता था, अब सरकारी दबाव और पूंजीपतियों के प्रभाव में आकर सच्चाई को दबाने या तोड़-मरोड़ कर पेश करने में लगा हुआ है।

भारत का लोकतंत्र अपने आप में विविधता, बहुलता, और स्वतंत्रता का प्रतीक है। लेकिन फासीवाद की उभरती लहर, जिसे मध्यम वर्ग का समर्थन मिल रहा है, भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा बनती जा रही है।

अगर भारत को फासीवाद से बचाना है, तो लोकतांत्रिक संस्थाओं का सुदृढ़ीकरण आवश्यक है। संसद, न्यायपालिका, और मीडिया को अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रखना होगा। इसके अलावा, मध्यम वर्ग को भी यह समझना होगा कि फासीवाद उनके दीर्घकालिक हितों के खिलाफ है, और इसके समर्थन से केवल अस्थिरता और अराजकता बढ़ेगी।

भारत में फासीवाद का उभार और उसके साथ मध्यमवर्गीय राजनीति का गठजोड़ एक गंभीर स्थिति को जन्म दे रहा है। जब तक मध्यम वर्ग अपनी असुरक्षाओं और संकटों से बाहर निकलकर लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर नहीं लौटेगा, तब तक यह प्रवृत्ति और भी खतरनाक रूप धारण कर सकती है। सामाजिक न्याय, समता, और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना ही फासीवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ सबसे मजबूत उपाय हो सकता है।

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