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भावनात्मक बातों में उलझी न्यायपालिका

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पलाश सुरजन

प्रतीकों के खेल में अब तक इस देश की राजनीति ही उलझी हुई थी, अफ़सोस है कि अब न्यायपालिका भी इसका हिस्सा बन गई है। न्याय की देवी की मूर्ति में जो फेरबदल किए गए और इसके पीछे जो तर्क दिए गए, वो इस बात का प्रमाण हैं कि न्याय व्यवस्था को त्रुटिहीन और पूरी तरह से दुरुस्त करने की कोशिश की जगह भावनात्मक बातों को अधिक महत्व दिया जा रहा है।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की लाइब्रेरी में न्याय की देवी की नयी मूर्ति लगायी गयी है। देश के प्रधान न्यायाधीश  डीवाई चंद्रचूड़ के आदेश पर नयी मूर्ति बनी है, जिसमें पुरानी मूर्ति से अलग वेशभूषा और प्रतीक बने हैं। सफेद रंग की मूर्ति में आंखों से पट्टी हटा दी गई है, उसका परिधान भारतीय कर दिया गया है और हाथ में तलवार की जगह संविधान की किताब दी गई है। कहा जा रहा है कि इस बदलाव से यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि कानून अंधा नहीं होता।

तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है – जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। अर्थात हम अपनी भावनाओं और नज़रिये के अनुरूप ही चीजों को देखते और परखते हैं। आंख पर पट्टी होने को अंधत्व से भी जोड़ा जा सकता है और निष्पक्षता से भी। 1983 से में अमिताभ बच्चन, रजनीकांत और हेमा मालिनी की फिल्म आई थी अंधा कानून। जिसमें दिखाया गया है कि अमिताभ बच्चन याने नायक को एक ऐसे जुर्म की सजा होती है, जो उसने किया ही नहीं, उसके परिवार को भी अत्याचार का शिकार बनाया जाता है और उसके बाद फिल्म में बार-बार ये अंधा कानून है, गीत पार्श्व में बजता रहता है और न्याय देवी की मूर्ति भी दिखाई जाती है, जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी है। कानून के अंधे होने की धारणा को फ़िल्म के जरिये समाज में और मजबूत किया गया। और अब करीब 4 दशक बाद एक प्रचलित धारणा के अनुरूप फ़ैसला लिया गया है। समझा जा सकता है कि देश में हाल के वर्षों में हुए कई बदलावों के पीछे कई बरसों की कोशिश रही है। नेहरू संग्रहालय को प्रधानमंत्री संग्रहालय में बदलना, इंडिया गेट पर नेता जी की मूर्ति, जम्मू-कश्मीर से 370 की वापसी, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, संसद में सेंगोल की स्थापना या इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) की जगह भारतीय न्याय संहिता, बीएनएस का लागू होना, ऐसे ही फैसलों की चंद मिसाल हैं। अभी आने वाले वर्षों में अगर हम भारतीय मुद्रा पर गांधीजी की जगह किसी और की तस्वीर देखें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।

बहरहाल, अब तक न्याय की जो मूर्ति देश में हुआ करती थी, वो यूनानी देवी जस्टिया की तरह होती थीं, जिनके नाम पर ही जस्टिस यानी न्याय शब्द बना है। इस मूर्ति की आंखों पर पट्टी का मतलब था कि कानून किसी का ओहदा, धर्म, जाति न देखकर सबके साथ एक जैसा व्यवहार करता है। वहीं अभी जिस तलवार को हिंसा का प्रतीक बताकर हटाया गया है, दरअसल उसके जरिए यह संप्रेषित किया गया था कि कानून के पास ताकत है और वो ग़लत करने वालों को सजा दे सकता है। पुरानी मूर्ति में तराजू भी देवी के एक हाथ में होता था, वो नयी मूर्ति में बरकरार रखा गया है। जो यह दिखाता है कि अदालत में कोई भी फ़ैसला तर्क की तुला पर ही किया जाएगा। नयी मूर्ति में तराजू अब भी रखा गया है, यह गनीमत है, वर्ना इसे भी किसी आधुनिक डिवाइस से बदला जा सकता था कि तराजू की जगह तौलने-मापने के आधुनिक साधन हमारे पास उपलब्ध हैं।

बहरहाल, तलवार को हिंसा का प्रतीक जब मान ही लिया गया है तो फिर विश्वविद्यालय परिसरों में तोपें रखने के औचित्य पर भी विमर्श होना चाहिए। क्या तोप, तलवार से अधिक घातक नहीं होती है। और तलवार हटाकर संविधान रखने के फैसले में राजनीति की छाप नज़र आती है। हाल में संपन्न लोकसभा चुनावों के दौरान संविधान बचाने का मुद्दा राजनीति के केंद्र में आ गया और तब से अब यह गर्माया हुआ है। भाजपानीत एनडीए सरकार ने संविधानहत्या विरोधी दिवस मनाने का ऐलान भी कर दिया है। वहीं कांग्रेस और इंडिया गठबंधन अब भी जनता को यही बता रहे हैं कि भाजपा के शासन में संविधान को ख़तरा बरकरार रहेगा। संविधान की रक्षा और सम्मान का विमर्श सियासी गलियारों से उठकर न्यायालय के दरवाज़े तक पहुंच जाएगा, यह अनुमान शायद ही किसी ने लगाया हो। न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका, इन तीनों अंगों के जरिए ही संविधान के पालन की सुचारू व्यवस्था बनाई गई थी। फिर न्यायपालिका में इसके अलग से महिमामंडन की कोई आवश्यकता नहीं थी। बल्कि ज़रूरत इस बात की थी कि अदालतें संविधान के मुताबिक फ़ैसले तो लें ही, साथ ही कोई इसका उल्लंघन करते दिखे तो स्वतः संज्ञान लेकर गलत को सही भी करें।

जैसे संविधान में धर्मनिरपेक्षता की जो व्यवस्था है, उसके मुताबिक सत्ता या प्रशासन में बैठे किसी भी व्यक्ति को सार्वजनिक तौर पर धार्मिक कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं लेना चाहिए। लेकिन हम देखते हैं कि अब पुलिस की वर्दी पहने लोग हवन में बैठते हैं, कांवड़ यात्रा पर फूल बरसाते हैं, संसद के भीतर मंत्रोच्चार होता है और प्रधानमंत्री जजमान की भूमिका में दिखते हैं। क्या अब न्याय की देवी के हाथों का संविधान आने के बाद देश में ऐसी घटनाओं का दोहराव रुकेगा। क्या सत्ता हासिल करने के लिए जिस किस्म के गैरकानूनी तरीके आजमाये गये हैं, उन पर रोक लगेगी। क्या उमर ख़ालिद जैसे लोग जो बिना जुर्म साबित हुए जेलों में बंद हैं और ज़मानत भी जिन्हें नहीं दी जाती, उनके साथ इंसाफ़ होगा। क्या खुली आंखों वाली न्याय की देवी कपड़ों से पहचान की बात को अस्वीकार करेंगी।

वैसे न्याय की मूर्ति में तब्दीली आने के साथ ही एक ख़बर आई है, कर्नाटक हाईकोर्ट ने अपने एक फ़ैसले में कहा है कि मस्जिद में भगवान राम की प्रशंसा में नारे लगाने में कुछ ग़लत नहीं है। देश किस तरफ बढ़ चुका है, यह अब साफ़ नज़र आ रहा है।

देशबन्धु से साभार.

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