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दु:खों का मूल है ईश्वरत्व की भूल 

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              कोमल कुमारी

यदि मनुष्य के सम्पूर्ण ऐतिहासिक जीवन पर दृष्टि डालें तो ऐसा प्रतीत होता है कि जितना समय बीतता जाता है, उसकी  भलाई की शक्ति मरती जाती है और उसके अन्दर का असुर भाग बलवान होता जा रहा है। इसके फलस्वरूप उसके दुःखों में भी बढ़ोतरी होती जा रही है। 

      वर्तमान युग इस स्थिति की पराकाष्ठा है यह कहें, तो अतिशयोक्ति न होगी। आज लोगों में बडी दीनता है, लोग हीन और अभावग्रस्त हैं। मनुष्य झगड़ालू, स्वार्थी और संकीर्ण प्रवृत्ति वाला हो  गया है। 

      मनुष्य का यह अधोगामीपन देखकर विश्वास नहीं होता कि उसके अन्दर परमात्मा जैसी महत्त्वपूर्ण शक्ति का निवास हो सकता है। 

      दुर्बल मनुष्य में सर्वशक्तिमान् परमात्मा ओत-प्रोत हो सकता है,  इसकी इन दिनों कल्पना भी नहीं की जा सकती। मनुष्य की दयनीय दशा का एक ही कारण है और वह यह है कि उसके अन्दर का भगवान् मूर्छित हो चुका है अथवा उसने अपनी मनोभूमि इतनी गन्दी बना ली है, जहाँ परमात्मा का प्रखर प्रकाश सम्भव नहीं। 

    यदि वह सचेत रहता, उसकी मानसिक शक्तियाँ प्रबुद्ध रहतीं, भलाई की शक्ति जीवित रहती, तो वह जिन साधनों को लेकर इस वसुन्धरा पर अवतीर्ण हुआ है वे अचूक ब्रह्म अस्त्र हैं । उनकी शक्ति वज्र से भी प्रबल है। 

     सृष्टि का अन्य कोई भी प्राणी उसका सामना करने को समर्थ नहीं हो सकता। वह युवराज बन कर आया था। विजय, सफलताएँ, उत्तम सुख, शक्ति, शौर्य, साहस उसे उत्तराधिकार में मिले थे। इनसे वह चिरकाल तक सुखी रह सकता था। 

      भ्रम, चिन्ता, शंका, सन्देह आदि का कोई स्थान उसके जीवन में नहीं, पर अभागे मनुष्य ने अपनी दुर्व्यवस्था आप उत्पन्न कर ली। 

      अन्तःकरण की, ईश्वरीय सत्ता की उपेक्षा करने के कारण ही उसकी यह दुःखद स्थिति प्रकट हुई। अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने का अपराधी मनुष्य स्वयम् है, इसका दोष परमात्मा को नहीं। 

       संसार के छोटे कहे जाने वाले प्राणी एक निश्चित प्रकृति लेकर जन्मते हैं और प्रायः अन्त तक उसी स्थिति में बने रहते हैं। इतना स्वार्थी  मनुष्य ही था जिसे अपने साधनों से तृप्ति नहीं हुई और दूसरों के स्वत्व का अपहरण करना प्रारम्भ किया।    

      न्यायाधीश बनकर आया था स्वयं अन्याय करने लगा। ऐसी स्थिति में परमात्मा के अनुदान भला उसका कब तक साथ देते ?  

      ईश्वरीय गुणों से पथभ्रष्ट मनुष्य की जो दुर्दशा होनी चाहिए थी, वहीं हुई। दुःख की खेती उसने स्वयं बोई और उसका फल भी उसे ही चखना पड़ा। 

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