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भारतीय कलाकार एक नए स्वतंत्रता आंदोलन के लिए रहें तैयार

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कवि अशोक वाजपेयी की भारतीय कलाकारों से अपील

नई दिल्ली: कवि अशोक वाजपेयी ने भारतीय कलाओं के लिए एक नए स्वतंत्रता आंदोलन का आह्वान करते हुए कलाकारों के लिए सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा और स्वराज का नारा बुलंद किया.

कपिला वात्स्यायन के कला में योगदान को सेलिब्रेट करने के लिए आयोजित समारोह में बोलते हुए वाजपेयी ने कहा कि कला आज्ञाकारी नहीं हो सकती. उन्होंने भारत में सवाल पूछने की परंपरा पर जोर दिया, जिसकी जड़ें वेदों से लेकर उपनिषदों तक देखी जा सकती हैं और जिसे अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भारतीय संशयवाद की शुरुआत कहा था.

82-वर्षीय कवि, सांस्कृतिक आलोचक और प्रख्यात कला प्रशासक वाजपेयी ने कहा, ‘‘हमारे समय में कला को सत्याग्रह (नागरिक प्रतिरोध) और सविनय अवज्ञा (नागरिक अवज्ञा) होना चाहिए. हमें अवज्ञाकारी नागरिक बनना चाहिए. हमें इस बात पर जोर देना होगा कि साहित्य और कला में स्वराज (स्वशासन) हो.’’

उन्होंने कहा कि सवाल उठाना कला की प्रकृति में ही है.

दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आईआईसी) में वाजपेयी ने “हमारी कला: हमारा समाज” शीर्षक से दूसरा कपिला वात्स्यायन स्मारक व्याख्यान दिया. उनके साथ जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल एनएन वोहरा और कपिला वात्स्यायन स्मारक समिति के संयोजक सुहास बोरकर भी शामिल हुए. श्रोताओं में सामाजिक सिद्धांतकार आशीष नंदी और पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन भी शामिल थे.

वात्स्यायन, जिनका 2020 में निधन हो गया, सांस्कृतिक और भारतीय कला के अध्ययन की महान शख्सियत थीं.

बोरकर ने मंच के कोने में रजनीगंधा के फूलों से सजी मुस्कुराती हुई वात्स्यायन की तस्वीर की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘आईआईसी 32 वर्षों तक उनकी कर्मभूमि रही. हम आज एक संस्था के भीतर एक संस्था का सम्मान कर रहे हैं.’’

सभ्यतागत उद्यम

वाजपेयी ने कहा कि कलाएं वाद-विवाद-संवाद (बहस और वार्तालाप) से निकली हैं. उन्होंने कहा कि भारत दुनिया में पहला देश है जिसने नाट्यशास्त्र (रंगमंच), पाणिनी के व्याकरण (व्याकरण) और कामसूत्र (सेक्स) पर विस्तृत ग्रंथ लिखे हैं. उनके लिए, भारत में सभ्यता एक है, लेकिन इसमें कई संस्कृतियां शामिल हैं.वाजपेयी ने अपने 50 मिनट के व्याख्यान के दौरान कहा, ‘‘भारत एक सभ्यतागत उद्यम है.’’

उन्होंने आगे कहा कि अधिकांश धर्म — विशेष रूप से हिंदू धर्म — इन दिनों अपनी बहुलता से बच रहे हैं.उन्होंने टिप्पणी की कि कुछ समय पहले तक भारत का शास्त्रीय संगीत और नृत्य औपनिवेशिक मानसिकता के प्रतिरोध का एक रूप था.

वाजपेयी ने कहा, ‘‘हिंदुस्तानी संगीत परंपरा में नवाबों और राजाओं की प्रशंसा में कई बंदिशें (संगीत रचनाएं) बनाई गई थीं, लेकिन अंग्रेज़ों की प्रशंसा में कोई बंदिश नहीं है.’’ इस दौरान श्रोता जोर से हंस पड़े.

नवाबों और राजाओं ने भारत में शास्त्रीय कलाओं को संरक्षण दिया, लेकिन आज़ादी के बाद, राज्य का संरक्षण समाप्त हो गया, जिससे शास्त्रीय संगीत के लिए संकट पैदा हो गया. कुछ हद तक, आज़ादी के बाद संगीतकारों की मदद करने के लिए आकाशवाणी आगे आया और उन्हें आजीविका के कुछ साधन मुहैया कराए.

वाजपेयी ने कहा, ‘‘बदकिस्मती से टेलीविज़न ने ऐसी भूमिका नहीं निभाई.’’

कला का स्थान गौण हो गया

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और लोकतंत्र के पहले चरण में, राजनीति और संस्कृति एक हद तक दूरी और परस्पर सम्मान के साथ एकजुट रहे.

वाजपेयी ने कहा, ‘‘हाल के दशकों में, विशेषकर बीते दस साल में राजनीति इतनी हावी हो गई है कि यह (बाकी) हर चीज़ को गौण स्थान पर पहुंचा रही है.’’

उन्होंने न केवल राज्य की राजनीति को बल्कि कलाकार समुदाय को भी दोषी ठहराया. भारत में संस्थानों के पतन के बारे में मुखर रहने वाले कवि ने कहा, ‘‘कला साहस, रचनात्मकता और विवेक की अंतिम प्राचीर बनी हुई है. हम कलाकार और लेखक के रूप में अपनी परंपराओं, अपनी विरासत और लोकतंत्र को विफल कर रहे होंगे.’’

2015 में, वाजपेयी ने ‘‘दिनदहाड़े हो रही लेखकों और बुद्धिजीवियों की हत्या के साथ एकजुटता दिखाते हुए’’ अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया था.

इसके बाद वाजपेयी ने एक राजा और एक कवि की कहानी सुनाकर श्रोताओं का मनोरंजन किया, जिसमें असहमति की परंपरा को दर्शाया गया, जिसका वर्तमान में काफी अभाव है.

उन्होंने बताया कि मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में टीकमगढ़ कभी साहित्य का केंद्र था. वहां एक राजा था जिसने अपने दरबारी कवि को उसकी कविताओं से खुश होकर एक घर उपहार में दिया था, लेकिन घर की बनावट खराब थी और बारिश के मौसम में उसमें से पानी टपकता था. इसके बाद कवि ने राजा पर कटाक्ष करते हुए एक कविता लिखी.

राजा की दयालुता और उदारता की प्रशंसा करते हुए उन्होंने चुटकी ली, “जो घर बरसे एक घड़ी लो, तो घर बरसे चार घड़ी लो” (अगर एक घंटे बारिश होती है, तो घर चार घंटे तक टपकता है).

वाजपेयी ने कहा, ‘‘इसलिए, उस वक्त यह संभव था कि दरबारी कवि भी राजा पर कटाक्ष कर सकते थे और राजा उसे बाहर नहीं निकालते थे, लेकिन इस तरह की असहमति या असंगति को अब अपराध माना जा रहा है.’’

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