मनीष सिंह
19वीं सदी का महान खेल ऐसे मैदान में खेला गया, जो सचमुच विशाल था. ये फैला था- कैस्पियन सागर से लेकर पूर्वी हिमालय तक. और खेल था साम्राज्यों की जियोपोलिटिक्स का. इसका पहला हीरो था – जलता हुआ सिकंदर…अंग्रेजी में- एलेग्जेंडर बर्न्स. आलेख बेहद चाटू, और लंबी है. रीलबाज, मीमिये दफा हो जाऐं. सुधिजन आगे बढें.
तो भारत में तब, ब्रिटिश स्थापित हो चुके थे. पंजाब से खैबर तक सिख साम्राज्य जीता जा चुका था. इसके आगे था- अफगानिस्तान. और उसके आगे- ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान.. जिन पर रूस की नजर थी. ब्रिटिश को डर था कि जल्द ही रूसी, मध्य एशिया के रास्ते, दक्षिण में बढ़ेंगे. अफगानिस्तान क्रॉस करेंगे, और ब्रिटिश भारत पर हमला करेंगे.
तो विशाल बंजर पहाड़ों में इंटेलिजेंस ऑपरेशन शुरू हुए. एलेग्जेंडर बर्न्स ईस्ट इंडिया कम्पनी का मिलिट्री अफसर था. युवा बहुभाषी, खूबसूरत, मैनर्ड, कल्चर्ड, विनम्र और बेहद शार्प व्यक्ति. छद्मवेश बनाया, और अपने दोस्त मोहनलाल के साथ, 1831 में सिंध से चलकर से बुखारा तक यात्रा की. ऐसी यात्रा, ऐसे अंजान देश में, जिससे लौटना सम्भव न था…
लौटकर आया. ढेर सारी इंटेल दी लाया और लिखी किताब. उसकी यात्रा का जादुई विवरण, स्टोरीटेलिंग, और उसके अनुभव जब किताब की शक्ल में आये, वह सेलेब्रिटी बन गया. किताब फ्रेंच में पब्लिश हुई, रूसियो ने पढ़ा. उनके कान खड़े हुए तो उन्होंने अपने जासूस लगाए भेजे, सेंट्रल एशिया में…कि ब्रिटिश इरादे क्या हैं ?
जोरदार स्पाई गेम शुरू हो गया. इंफॉर्मेशन, मिसइंफर्मेशन, डिसइन्फॉर्मेशन. दोनों तरफ के जासूस आपस में टकराते. एक दूसरे को डिच करते. अंततः ब्रिटिश को यकीन हो गया कि रूसी जार कुछ करेगा, पहले हम ही कर लें. ऐसा करते है, कि वहां के शासक दोस्त मोहम्मद को हटाकर, शाहशुजा को बिठा देते हैं.
दोस्त मुहम्मद रूसियों का मित्र था. उधर शाहशुजा, जो अहमदशाह अब्दाली का वंशज था, भारत में अंग्रेजों की शरण में रह रहा था. एक विशाल फौज पेशावर से चली, काबुल पहुंची. आगे आगे थे मार्गदर्शक एलेग्जेंडर बर्न्स. सेना ने एकदम मजे से काबुल कब्जा कर लिया. दोस्त मुहम्मद भाग खड़ा हुआ. शाहशुजा की ताजपोशी हुई. 16000 रेड कोट, काबुल में रहने लगे.
जो बात बहुत बाद में, अमेरिका-रूस को पता चली, वह 150 साल पहले पहले ब्रिटिश को पता चल गयी थी. यह कि अफगानिस्तान जीतना बड़ा आसान है. जीतकर टिकना मुश्किल…
तो हुआ ये, कि 1841 की एक शाम, एलेग्जेंडर बर्न्स अपने काबुल के बंगले में मजे से बैठे थे कि बाहर भीड़ जमा हो गयी. खटका महसूस हुआ. भेस बदल भागने की कोशिश की. पर अफगानों ने पहचान लिया, वहीं काट डाला. महान बर्न्स मारे गए. उनकी याद में एक चिड़िया, जो नॉर्थवेस्ट पाकिस्तान में मिलती है उसका वैज्ञानिक नाम रखा गया है, लैटसीलिया बरनेंसिस. चूं चूं चूं.
खैर.. तो बर्न्स के मर्डर के बाद, काबुल की ब्रिटिश छावनी घेर ली गयी. गार्ड्स मार डाले गए. फंसे हुए ब्रिटिश कमांडर ने नेगोशिएट किया. अफगान बोले- आर्म्स छोड़ दो. निहत्थे निकल लो. ब्रिटिश, निहत्थे निकल लिए. फौजी, अफसर, साथ में महिलायें और बच्चे भी. ठंड के दिन, -15 का तापमान, 9 दिन की यात्रा के बाद पेशावर पहुंचना था.
पहली दो रात में ही कई लोग मर गए। जो बचे, तीसरी रात को, पहाड़ों में छिपे अफगानों ने भून डाला. कई दिन बाद, पेशावर किले के पास एक लड़खड़ाते, अर्धबेहोश सवार को देखा गया. किले के दरवाजे खोल कुछ गार्ड्स बाहर आये. उन्हें भीतर लिवा ले गए. उन्हें उम्मीद थी कि पीछे बाकी की फौज होगी.
पूछा- व्येयर इज द आर्मी ??
डॉक्टर ब्राइडन बोले- ‘आई एम द आर्मी.’
तो पहले एंग्लो-अफगान युद्ध से सिर्फ एक बन्दा जिंदा लौटकर आया. अंग्रेजों ने मन मारकर, दोस्त मोहम्मद को अफगान शासक स्वीकार लिया. पर सुपर पॉवर को, घमंड चैन लेने नहीं देता. 1870 में फिर चुल्ल मची. भाई लोग सेना लेकर चले गए.
वही हुआ, जो होना था. अफगान बादशाह भाग गया. काबुल चटपट फतह हो गया. आर्मी वहां रुक गयी और फिर उन्हें फिर एक बार घेर लिया गया. एक गैरिसन में घुसकर काट डाला. अंग्रेज फिर फंस गए. अबकी अफगानी लीडर से बातचीत की गई. सन्धि हुई, कि ब्रिटेन, अफगानों की विदेश नीति तय करेगा (रूस से दूर रखेगा). बाकी हर मामले अफगान स्वतंत्र होंगे.
आगे चलकर एक डुरंड लाइन बनी, जो अफगानिस्तान और भारत के बीच बाउंड्री थी. जिसमें भी काफी लोचा किया गया, और बहुत से पश्तून इलाके, अंग्रेजों ने रख लिए. अब उन इलाकों को लेकर, पाकिस्तान अफगानिस्तान झगड़ा करते रहते हैं. और ज्यादा सिक्यूर करने के लिए कश्मीर को बफर स्टेट बनाया. एक डोगरा सरदार को बेच दिया. उसकी सीमाएं निर्धारित ब्रिटिश ने की. भले ही उन पर राजा का कब्जा हो न हो. उन नक्शों को चीन की मान्यता के लिए भेजा, जो उसने दी नहीं.
इस उप महाद्वीप में तमाम विवादों की जड़ यह ग्रेट गेम था. 19वी सदी में अंग्रेज़ों के ग्रेट गेम का अंत हुआ.
सवाल यह कि क्या ब्रिटेन का डर बेवजह था ? दरअसल, 1850 के दौर में तो जार के रूस का कोई इरादा, दक्षिण में अफगानिस्तान होकर भारत आने का नहीं था. पर इतिहास के सफ़हे देखें तो यह डर, बेवजह भी नहीं था. ये इलाके वास्तव में आगे चलकर स्टालिन के सोवियत संघ का हिस्सा बने.
फिर 1980 के दशक में सोवियत ने आगे बढ़कर अफगानिस्तान में सेना भी घुसाई. और भारत (अगर तब भारत-पाक, एक देश होते) की सीमा पर आ खड़ा हुआ था. यहां तक कि सुभाषचंद्र बोस का हिटलर से मशहूर मुलाकात में मूल प्रपोजल यही था. वे कहने गए थे कि सोवियत रशिया में स्टालिन को निपटाने के बाद, माननीय हिटलर सर की सेनाएं, कृपा करके, मध्य एशिया के रास्ते, भारत पर हमला करे और दुष्ट ब्रिटेन को मार भगाये.
पर हिटलर को रुचि न थी. उसने सुभाष से कहा कि वे जापान जाये. उनसे कहें कि म्यामांर जीतकर, इम्फाल की तरफ से भारत पर हमला करे. सुभाष ने सलाह मानी, यही किया. पर वह सब बहुत बाद की बात है. ब्रिटिश यह खतरा 1830-70 में देख रहे थे. और यही वह 1947 में भी देख रहे थे.
जब पॉट्सडम कांफ्रेंस के बाद, शीतयुद्ध शुरू हो चुका था. वे भारत छोड़ रहे थे, पर भविष्य में रूस पर दबाव रखने और उसमें सेंट्रल एशिया से घुसने का, सैनिक अड्डे बनाने का रास्ता चाहिए था. यह सुविधा, गांधी और नेहरू से मिलने वाली न थी, जिन्ना दे सकते थे. इसलिए, भले ही पाकिस्तान की मांग उत्तर प्रदेश-बिहार से उठी, और सिरे बंगाल में चढ़ी, दंगे फ़ंगे भी उधर हुए लेकिन पाकिस्तान मुख्यतः बना वेस्ट में.
सिंध से पंजाब, खैबर तक जाने वाली सेंट्रल एशिया की रोड, ऐसे देश को दी गयी जो उनका पिट्ठू बना रहे. पाकिस्तान ने निराश नहीं किया. वह सीटो और सेंटो का सदस्य रहा. ब्रिटिश तो कमजोर होते गए, पर अमरीका ने लाभ ले लिया. जब रूस ने अफगानिस्तान पर हमला किया, तो पाकिस्तान उसका बेस बना. याने उनकी दूर दृष्टि देखिए. क्या वह इलाका भारत होता, तो कोई भी सरकार इसकी इजाजत देती ??
आज चीन यहां से सिपैक बना रहा है. ग्वादर से काशगर तक शानदार रोड बनी हुई है. यह इलाका, जियोपोलिटिक्स का हब था, हब है, और रहेगा. चीनी, ब्रिटिश, अमेरिकन, 100 साल आगे देखते है, कैलकुलेशन से सोचते हैं. हम अगले इलेक्शन की देखते हैं और भावनाओं से सोचते हैं. वो सुपरपॉवर हैं, हम च्युतियों का देश. उनके गेम ग्रेट हैं, हमारे क्षुद्र…