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लोकतंत्र…..प्रशासनिक दुशासन वह जहर है जो चढ़ता ही जा रहा है

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कनक तिवारी

कभी-कभी लगता है संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरू ने उद्देशिका वाले प्रस्ताव के मजमून में लोकतंत्र शब्द नहीं लिखकर शायद ठीक किया था. सदस्यों के विरोध के कारण ‘लोकतंत्र’ शब्द जोड़ा गया. प्रस्ताव में संविधान के मकसद में ‘गणतंत्र’ शब्द था. भारत की गांव पंचायतों की तरह पश्चिमी पुरातन देश यूनान में भी छोटे छोटे गणराज्यों की हुकूमत थी. यूरोपीय पद्धति का आधुनिक लोकतंत्र स्थापित करने में गांधी को छोड़कर सभी बुद्धिजीवी नेता एकमत थे. लोकतंत्र तो नहीं आया लेकिन उसका दंश पूरा देश लगातार झेल रहा है. प्रशासनिक दुशासन वह जहर है जो चढ़ता ही जा रहा है.

विधायिकाओं में दस प्रतिशत सदस्य उपस्थित होकर करोड़ों नागरिकों के लिए कानून बना सकते हैं. आधे से अधिक सदस्य घोषित या लंबित अपराधी हैं. कुछ तो सदन में असंसदीय गालीगलौज करने, खर्राटे लेने और फोन पर ब्लू फिल्में देखने के बाद जो समय बचता है, उसमें कभी कभार बिना तैयारी और पढ़ाई के बहस में हिस्सा लेते हैं. सांसदों, विधायकों को क्षेत्र के जनहित के कार्यों के लिए निधियां आवंटित होती हैं. कई प्रतिनिधियों की निधियां डूब जाती हैं. वे खर्च ही नहीं करते. कई राशि देने में कमीशनखोरी से नहीं चूकते. कई अपनों अपनों को चीन्ह चीन्हकर देते हैं.

महिला स्वसहायता समूहों की आड़ में भद्र घरानों की कुलीन नेत्रियों को धन देते हैं. विधवाओं, परित्यक्ताओं, देवदासियों, असाध्य बीमारी के पीड़ितों, अनाथों वगैरह के संगठनों को देने में कोताही करते हैं. नेताओं के भाषण सुनने निठल्ले और गरीब किराए के ट्रकों, टैक्टरों, बसों, जीपों आदि में भरकर बंधुआ मजदूरों की तरह लाए जाते हैं. उन्हें खाने पीने के पैकट और बराएनाम कुछ रुपए पकड़ा दिए जाते हैं. जवाहरलाल नेहरू की सभाओं में लोग चालीस पचास किलोमीटर साइकिल चलाकर सुनने जाते थे. मंत्रियों की सभाओं में श्रोता ढोने स्कूलों की भी बसें छीन ली जाती हैं. बच्चों की पढ़ाई रोक दी जाती है. सरकारी वाहन बेगार में लगा दिए जाते हैं. प्रधानमंत्री या मंत्री न तो देवदूत हैं और न ही उनके भाषणों से लोकतंत्र आता है.

जनदर्शन या जनअदालत की सामंती परंपराएं जोंक की तरह जनता का खून चूसकर मोटी हो रही हैं. एक पैर पर खड़े होकर भक्त धु्रव ने वर्षों साधना की. ऋषि मुनि तप करते. विवेकानन्द समाधिस्थ होते, तब कहीं ईश्वर के दर्शन होते होंगे. चरित्र और आचरण के कारण अधिकांश राजनेता बिल्कुल दर्शनीय नहीं होते. जनता के गाढ़े पसीने की कमाई को टैक्स में वसूल कर उसे राजनेता जनता को दी जा रही खैरात बना देते हैं. पोस्टर, पैम्फ्लेट, होर्डिंग, विज्ञापन सजते हैं.

पुल पुलिया के निर्माण, स्कूल की छत की मरम्मत, रामायण मंडली के लिए एकाध कमरा से लेकर सड़क, भवनों, प्रकल्पों, योजनाओं आदि के लिए धन आवंटन की घोषणाएं होती हैं. जनता की टोपी जनता के सिर पर नेता पहना देते हैं. जनता की जेब काटकर निकाला धन जनता की फटी जेब में ठूंसा जाता है. अधिकारी, ठेकेदार, इंजीनियर, दलाल और नेता मिलकर बांट लेते हैं. मृगतृष्णा की झिलमिलाहट को विकास कह दिया जाता है. ‘नदी का पानी नदी में जाए मेरी धोती सूख जाए’ वाला मुहावरा मुस्कराने लगता है.

जिले का सबसे बड़ा सरकारी अधिकारी कलेक्टर कहा जाता है. वह क्या कलेक्ट या इकट्ठा करता है, जो लोगों को मालूम नहीं होता. उससे बड़ा अधिकारी कमिश्नर कहा जाता है. कोई नहीं जानता उसका कमीशन से क्या संबंध है. राज्य के सबसे बड़े संवैधानिक प्रमुख राज्यपाल होते हैं. वे राज्य को तो नहीं पालते लेकिन जनता द्वारा ढोई जा रही पालकी पर चढ़ते उतरते रहते हैं. देश के शीर्ष निर्वाचित प्रतिनिधि प्रधानमंत्री कहलाते हैं. यह शब्द सामंतवादी प्रकृति का है. राजा के दीवान को मंत्री कहते थे. राजा ही नहीं हैं तो मंत्री क्यों कहलाते हैं ? प्रधान सेवक, मुख्य सेवक, प्रदेश सेवक, जिला सेवक, संविधान सेवक, नगर सेवक वगैरह शब्दों का प्रयोग क्यों नहीं हो सकता !

अफसर, मंत्री, न्यायाधीश बड़े बंगलों में रहते हैं. सरकारी कर्मचारियों से बेगार लेकर सब्जी, भाजी, धान, गेहूं और चना बोने की वर्जिष कराते हैं. बीज, खाद पानी सब सरकारी होता है. कुछ तो फसल को बेच भी लेते हैं. बंगलों में सैकड़ों की संख्या में ट्यूबलाइटें, बल्ब और पंखे लगे होते हैं. उनके बिजली के बिल कभी श्वेतपत्र में प्रकाशित नहीं किए जाते. सुरक्षा में बीसियों गार्ड भी तैनात होते हैं. सब जानते हैं वे काला धन सरकारी बंगलों में नहीं रखते. वह तो विश्वस्त उद्योगपतियों और धर्मार्चायों आदि की तिजोरियों में रखा जाता है. कभी कभार कोई घरेलू सेवक थोड़ी बहुत चोरी भी कर लेता है.

कड़ी सुरक्षा के बावजूद पुलिस कप्तान के बंगले के पास लूट, डकैती, हत्या और बलात्कार की घटनाएं होती रहती हैं. अपराधियों ने पुलिस वालों से डरना छोड़ सांठगांठ कर ली है. पुलिस से गलबहियां करते वकील बने गुंडे पत्रकारों और छात्रों को पीटने लगे हैं. चुनौती भी दे रहे हैं कि वे अमुक अमुक छात्रों को बंदूक या बम से उड़ा देंगे. देश में पांच लाख से ज्यादा वकील नहीं होंगे. छात्र पांच करोड़ होंगे. कहीं झगड़ा बढ़ गया तो लोकतंत्र का क्या होगा ?

कश्मीर में भारत के खिलाफ नारे लगाने वाले पकड़े नहीं जा रहे. दिल्ली में नारे नहीं लगाने वाले झूठे वीडियो बनाकर पकड़े गए हैं. मंत्री बनने के बाद नेता का वजन, बैंक बैलेंस और घमंड बढ़ जाता है. उनके बच्चों और बीवियों के हुक्म सरकारी अधिकारी मानने लगते हैं. निकटतम रिश्तेदार आओ काम कराओ जैसी सशुल्क सेवा एजेंसियां खोल लेते हैं. कैसा लोकतंत्र है. नेता और अफसर कैमरे के सामने बैठकर ऊलजलूल बयान देते हैं. बाद में कहते हैं मीडिया ने गलत ढंग से पेश किया है. वकील बिना कोई प्रतियोगी परीक्षा पास किए उसी हाईकोर्ट में जज बनते हैं. चपरासी तक के पद के लिए प्रतियोगिता होती है इसीलिए तो गांधी ने ‘हिन्द स्वराज‘ में वेस्टमिन्स्टर पद्धति की सरकार, संसद और न्यायालय लाने से मना किया था.

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