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मध्य प्रदेश में सरकारी स्तर पर पत्रकारों का बधियाकरण! 

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अनिल जैन

मध्य प्रदेश में इन दिनों पत्रकारों की एक सूची खूब चर्चा में है। इस सूची में सूबे के विभिन्न शहरों के करीब 150 पत्रकारों के नाम हैं। बताया जा रहा है कि यह सूची उन पत्रकारों की है, जिन्हें उनकी हैसियत के मुताबिक राज्य सरकार के परिवहन विभाग से हर महीने तीन हजार से लेकर एक लाख रुपये तक बतौर ‘बख्शीश’ मिलते हैं।

सूची में प्रदेश के सभी बडे-छोटे अखबारों, स्थानीय और राष्ट्रीय कहे जाने वाले टीवी चैनलों से जुड़े वरिष्ठ, गरिष्ठ और कनिष्ठ पत्रकारों और कुछ छोटे अखबार मालिकों के नाम हैं।

यह भी बताया जाता है कि पत्रकारों की यह ‘प्रावीण्य सूची (मेरिट लिस्ट)’ मध्य प्रदेश सरकार के जनसंपर्क विभाग द्वारा प्रस्तावित और भाजपा के प्रादेशिक मुख्यालय द्वारा अनुमोदित है।

जानकारों के मुताबिक इस सूची में शामिल पत्रकारों जनसंपर्क विभाग की ओर से को यह स्पष्ट हिदायत है कि उन्हें प्रदेश में सरकार और पार्टी के मुखिया के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करनी है, बाकी किसी का भी ‘बैंड बजाने’ के लिए वे स्वतंत्र हैं।

बख्शीश पाने वाले पत्रकार भी इस हिदायत का अनुशासित तरीके से पालन करते हैं। बहरहाल इस सूची के सार्वजनिक होने के बाद कुछ पत्रकार मजाक में इसे मध्य प्रदेश सरकार की ‘लाड़ला पत्रकार योजना के लाभार्थियों की सूची’ कह रहे हैं।

बताया जाता है कि यह सूची जनसंपर्क विभाग की ओर से भाजपा मुख्यालय को भेज कर उससे सालाना अपडेट मांगा गया था। भाजपा मुख्यालय सूची को अपडेट कर पाता, उससे पहले ही किसी दिलजले ने इसे ‘लीक’ कर दिया। कुछ गंभीर पत्रकारों का मानना है कि चूंकि मध्य प्रदेश सरकार का खजाना खाली है।

विभिन्न विभागों की आर्थिक हालत अब पहले जैसी नहीं है। सरकार को हर दूसरे-तीसरे महीने कर्ज लेकर अपना काम चलाना पड़ रहा है, इसलिए यह सूची सरकार की ओर से ही जान-बूझ कर सार्वजनिक कराई गई है ताकि पत्रकार डर जाएं और पैसे की मांग न करें।

इस सूची को सार्वजनिक हुए एक हफ्ता हो गया है लेकिन अभी तक इस पर परिवहन विभाग, जनसंपर्क विभाग, सत्ताधारी पार्टी और मीडिया संस्थानों के मालिकों की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। यानी किसी ने भी न तो इस सूची की पुष्टि की है और न ही सूची को फर्जी बताया है।

हां, जानकार सूत्रों के मुताबिक यह जरूर हुआ है कि जिन पत्रकारों और छोटे अखबार मालिकों के नाम इस सूची में नहीं हैं, उन्होंने इसमें अपना नाम जुड़वाने के लिए भाजपा के प्रभावी नेताओं से संपर्क किया है। उनकी दलील है कि अखबार में कोई भी खबर छापने या रोकने का फैसला तो हम करते हैं, इसलिए पैसे हमें भी मिलना चाहिए।

इस सूची में जिन पत्रकारों के नाम शामिल हैं, उनमें से भी ज्यादातर ने चुप्पी साध रखी है। अलबत्ता उनमें से चार पत्रकारों ने जरूर भोपाल पुलिस की अपराध शाखा में अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ एक रिपोर्ट दर्ज कराई है, जिसमें इस वायरल सूची को कूटरचित और फर्जी बताते हुए मामले की जांच कर दोषी व्यक्ति के खिलाफ वैधानिक कार्रवाई करने की मांग की गई है।

लेकिन सवाल है कि अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने का क्या मतलब और इससे क्या हासिल होने वाला है? मध्य प्रदेश के ही कुछ पत्रकार भी एफआईआर को हास्यास्पद मानते हैं।

बहरहाल परिवहन विभाग से कथित तौर मासिक बख्शीश पाने वाले पत्रकारों सूची जारी होना जरूर नई बात हो सकती है। लेकिन मलाईदार सरकारी महकमों से पत्रकारों को इस तरह पैसा मिलना कोई नई बात नहीं है।

आबकारी, वन, लोक निर्माण, वाणिज्यिक कर, स्वास्थ्य आदि कई महकमे हैं, जिनसे संबंधित बीट के रिपोर्टरों, अखबारों के संपादकनुमा दलालों को और अखबार मालिकों को उनकी हैसियत के मुताबिक पैसा मिलता है। विज्ञापन के रूप में जो आधिकारिक खैरात मिलती है सो अलग।

दरअसल सत्ता में बैठे लोगों द्वारा अपने भ्रष्ट कारनामों पर परदा डालने के लिए अखबार मालिकों और पत्रकारों भ्रष्ट बनाने का सिलसिला अखिल भारतीय है और बहुत पुराना है। मध्य प्रदेश में इस खेल की शुरुआत अस्सी के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने की थी।

उन्होंने अखबार मालिकों और पत्रकारों का ईमान खरीदने के लिए खूब जमीन के टुकड़े और सरकारी मकान बांटे। यही नहीं, उन्होंने तो मध्य प्रदेश में फर्जी पत्रकारों की एक बड़ी भारी नई जमात ही पैदा कर उसे सत्ता की दलाली में लगा दिया था। 

उस दौर में अर्जुनसिंह के दरबार में मुजरा करने वाली बेगैरत पत्रकारों की इस जमात ने अर्जुनसिह को ‘संवेदनशील मुख्यमंत्री’ का खिताब अता किया था।

इस ‘संवेदनशील मुख्यमंत्री’ ने अपनी ‘संवेदना’ के छींटे सिर्फ मध्य प्रदेश के पत्रकारों पर ही नहीं, बल्कि दिल्ली में रहकर सत्ता की दलाली करने वाले कुछ दोयम दर्जे के साहित्यकारों और पत्रकारों पर भी डाले थे और उन्हें इंदौर व भोपाल जैसे शहरों में जमीन के टुकड़े आबंटित किए थे।

अपने राजनीतिक हरम की इन्हीं बांदियों की मदद से अर्जुन सिंह चुरहट लॉटरी, तेंदूपत्ता और आसवनी कांड जैसे कुख्यात कारनामों को दफनाने में कामयाब रहे थे। इतना ही नहीं, 25 हजार से ज्यादा लोगों का हत्यारा भोपाल गैस कांड भी अर्जुन सिंह का बाल बांका नहीं कर पाया था।

अर्जुन सिंह अपने इन कृपापात्र/पालतू दलालों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों की छवि मलिन करने और उन्हें ठिकाने लगाने में भी किया करते थे। उनके इन राजनीतिक विरोधियों में ज्यादातर उनकी अपनी पार्टी के नेता ही होते थे।

अर्जुन सिंह की इस परंपरा को बाद दिग्विजय सिंह ने भी जारी रखा लेकिन सीमित तौर पर, लेकिन उनके बाद आरएसएस की संस्कार शाला से निकले शिवराज सिंह चौहान ने तो इस मामले में मन ही मन अर्जुन सिंह को अपना गुरू मान लिया। उनके नक्श-ए-कदम पर चलते हुए शिवराज सिंह भी मीडिया से जुड़े लोगों को जमीन के टुकडों और विज्ञापनों की खूब खैरात बांटी।

मीडिया को साध कर ही वे ‘व्यापम’ जैसे खूंखार कांड तथा ऐसे ही कई अन्य मामलों को दफनाने में पूरी तरह कामयाब रहे। 
आठ साल पहले 2016 में करीब 300 पत्रकारों और अखबार मालिकों को भोपाल के पॉश एरिया में औने-पौने दामों में आवासीय भूखंड आबंटित किए थे।

उनके द्बारा उपकृत किए गए पत्रकारों की सूची में कुछ नाम तो ऐसे भी थे, जो निजी मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज के परोक्ष-अपरोक्ष रुप से संचालक हैं और इस नाते खुद भी ‘व्यापम’ की लूट में भागीदार रहे हैं और कुछ ने तो व्यापम की कमाई से अपना ही अखबार शुरू कर दिया।

कुछ नाम ऐसे भी थे जिनका भूमि से अनुराग बहुत पुराना है। उन्होंने अपने इसी भूमि-प्रेम के चलते पिछले चार दशक के दौरान अपवाद स्वरुप एक-दो को छोड़कर लगभग सभी मुख्यमंत्रियों से सरकारी मकान और जमीन के टुकड़े ही नहीं बल्कि दूसरी तरह की और भी कई इनायतें हासिल की हैं।

अब चूंकि मीडिया संस्थानों में कॉरपोरेट संस्कृति के प्रवेश के बाद अहंकारी, मूर्ख, नाकारा, क्रूर और परपीड़क संपादकों और संपादकनुमा दूसरे चापलूस कारकूनों के साथ किसी भी काबिल, ईमानदार और पेशेवर व्यक्ति का खुद्दारी के साथ काम करना आसान नहीं रह गया है, यानी नौकरी पर अनिश्चितता की तलवार हमेशा लटकी रहती है।

लिहाजा मीडिया संस्थानों में साधारण वेतन पर ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ काम रहे पत्रकारों को सरकार अगर रियायती दरों पर भूखंड देती है तो इस पर शायद ही किसी को ऐतराज होगा।

होना भी नहीं चाहिए, लेकिन इन्हीं मीडिया संस्थानों में दो से तीन लाख रुपए महीने तक की तनख्वाह पाने वाले धंधेबाजों और प्रबंधन के आदेश पर घटिया से घटिया काम करने को तत्पर रहने वालों को सरकार से औने-पौने दामों पर भूखंड क्यों मिलना चाहिए?

मैं मध्य प्रदेश में कुछ ऐसे भू-संपदा प्रेमी पत्रकारों यानी दलालों को जानता हूं जिन्होंने अपने कॅरिअर के दौरान मध्य प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में, जिस-जिस शहर में काम किया है, वहां-वहां पत्रकारिता से इतर अपनी दीगर प्रतिभा के दम पर अचल संपत्ति अर्जित की है और मध्य प्रदेश सरकार से भी लाखों की जमीन कौड़ियों के मोल लेने में कोई संकोच नहीं दिखाया।

ऐसे ‘महानुभाव’ जब किसी राजनीतिक व्यक्ति के घपले-घोटाले पर कुछ लिखते हुए या सार्वजनिक मंच से नैतिकता और ईमानदारी की बात करते दिखते हैं, तो उनमें सिर्फ और सिर्फ आसाराम, गुरमीत राम रहीम, नित्यानंद, रामदेव, रविशंकर, जग्गी वासुदेव जैसे लम्पटों और धंधेबाज बाबाओं की छवि नजर आती है।

हालांकि पत्रकारिता के इस पतन को सिर्फ मध्य प्रदेश के संदर्भ में ही नहीं देखा जाना चाहिए, यह अखिल भारतीय परिघटना है।

नवउदारीकरण यानी बाजारवादी अर्थव्यवस्था ने हमारे सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर नकारात्मक असर डाला है, उन्हें भ्रष्ट से भ्रष्टतम बनाया है। पत्रकारिता भी उनमें से ऐसा ही एक क्षेत्र है। इसलिए ऐसी पतनशील प्रवृत्तियों को विकसित होते देखने के लिए हम अभिशप्त हैं।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

जनचौक से साभार

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