डॉ. विकास मानव
मिथिलानरेश जनक बड़े ही धार्मिक व राज-काज में निपुण थे। धर्मपरायण होने के कारण वे राज-काज का संचालन बड़ी कुशलतापूर्वक किया करते थे। अतः उनके राज्य में प्रजा हर प्रकार से खुशहाल थी। उनकी लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली हुई थी। उनके दरबार में संतों, ज्ञानियों का बड़ा आदर हुआ करता था। वे संतों, मुनियों के साथ अक्सर धर्म-चर्चा आयोजित किया करते थे।
धर्मपरायण होने के कारण वे राजा होते हुए भी राजवैभव के प्रति आसक्ति नहीं रखते थे।
वे भगवत्परायण जीवन जीते हुए अपना सारा वैभव भगवान का ही मानकर बस माया, मोह व आसक्ति से परे रहकर अपने कर्त्तव्य का पालन किया करते थे। वे संसार में होकर भी संसार के प्रति कोई आसक्ति नहीं रखते थे। वे निष्काम कर्म करते हुए बस राजा के रूप में अपने कर्त्तव्यों का बड़े ही कुशलतापूर्वक पालन करते थे। इसलिए वे बड़े लोकप्रिय हुए और आदर्श राजा कहलाए।
एक बार राजा जनक गाढ़ी निद्रा में सो रहे थे, तभी उन्होंने एक विचित्र स्वप्न देखा। उन्होंने देखा कि एक शक्तिशाली राजा ने उनके राज्य पर हमला कर दिया है और पूरा राज्य तहस-नहस कर दिया है। यहाँ तक कि उन्हें भी अपनी जान बचाने के लिए जंगलों में भाग जाना पड़ा। वे कई दिनों तक जंगल में भूखे-प्यासे पड़े रहे। उनके हाल पर तरस खाकर उस जंगल से गुजर रहे एक राहगीर ने उन्हें खाने को एक रोटी दी।
अभी वे एक वृक्ष के नीचे बैठकर रोटो खाने ही वाले थे कि एक विशाल कौआ झपट्टा मारकर उनके हाथ से रोटी ले उड़ा। यह देखकर राजा जनक चीख पड़े और आकाश में रोटी उड़ते हुए उस कौए को देखने लगे, तभी उनकी निद्रा भंग हो गई। निद्रा से जागते ही उन्होंने स्वयं को अपने ही राजमहल के अपने शयन कक्ष में बिस्तर पर पसीने से लथपथ पाया। यह देखकर जनक विचारशून्य हो गए।
चूँकि वे आध्यात्मिक मनोभाव के व्यक्ति थे, इसलिए वे उस स्वप्न के निहितार्थ पर विचार करने लगे कि इस स्वप्न का क्या अर्थ हो सकता है? इसका क्या तात्पर्य हो सकता है? क्या यह स्वप्न किसी सत्य की ओर इशारा कर रहा है? आदि प्रश्न उनके मन में उठने लगे। वे यह सोचने लगे कि जब मैं स्वप्न देख रहा था तब तो मैं अपने राजमहल में ही अपने शयनकक्ष में था, लेकिन मन पूरी तरह जंगलों में भटक रहा था। मैं जंगल में दौड़-भाग कर रहा था। कौआ मेरे हाथ से रोटी ले उड़ा था। मैं चीखा भी था और मैं पसीने से लथपथ भी हो गया था।
अब प्रश्न यह उठता है कि सत्य क्या है? मैं अपने बिस्तर पर लेटा था, वह सत्य था या मैं युद्ध हारकर जंगलों में भटक रहा था, वह सत्य था। मैं अपने पलंग पर विश्राम कर रहा था, वह सत्य था या मैं पसीने से लथपथ हो गया था, वह सत्य था ? राजा जनक अपने स्वप्न के निहितार्थ को समझने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने अपने स्वप्न की चर्चा अपने राजमहल में आए हुए कई विद्वानों से की, पर उन्हें अपनी जिज्ञासा का सही समाधान नहीं मिल पाया था। तभी उनके राजमहल में महाज्ञानी अष्टावक्र जी का आगमन हुआ।
राजा जनक ने उनसे भी वही प्रश्न किया, ‘महाराज ! उस घटना में सच क्या है? यह सच है या वह सच है?’ अष्टावक्र ने तुरंत हँसते हुए कहा- ‘महाराज ! न यह सच है, न वह सच है।’ जनक तो चौंक गए; क्योंकि अब तक जितने भी लोगों ने उन्हें बताया था, उन्होंने राजा जनक की एक या दूसरी अवस्था को सच बताया था।
तब अष्टावक्र जी अपनी बात विस्तार से समझाते हुए बोले- ‘महाराज ! जब आप स्वप्न देख रहे थे, तब आप अपने राजमहल में ही थे। उस समय आपका जंगलों में भटकना तो गलत ही हो गया। ठीक वैसे ही जब आप राजमहल में थे तो भी उस समय आपका चित्त तो जंगलों में ही भटक रहा था। अतः उस समय आपका राजमहल में होना भी गलत ही हो गया।
जनक को बात समझ में आ गई, लेकिन उन्होंने फिर एक नई जिज्ञासा प्रकट की और अष्टावक्र से पूछा- ‘तो फिर सच क्या है?’ अष्टावक्र बोले- ‘सत्य वह द्रष्टा है, जो यह सब देख रहा था। आपके अंदर बैठा द्रष्टा सब कुछ देख रहा था, पर उसे आपके राजमहल में होने या स्वप्न में जंगल में होने, इन दोनों ही घटनाओं से कोई मतलब न था। वह द्रष्टा तो उन घटनाओं को देख भर रहा था। वह द्रष्टा तो उन घटनाओं का साक्षी भर था।
अष्टावक्र बोले- ‘जो कुछ घटित हो रहा है, वह सत्य नहीं, बल्कि सत्य वह द्रष्टा है, जो सब कुछ घटित होते हुए देख रहा है और उन्हें देखकर भी उससे निर्लिप्त है, अनासक्त है। उसका उन घटनाओं से कोई लेना-देना ही नहीं है। इसलिए घटने वाली हर सुखद या दुःखद घटनाएँ उस द्रष्टा को न तो सुखी करती हैं न दुःखी करती हैं। इसलिए राजन्, जीवन में द्रष्टा का एहसास कर पाना ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।’
अष्टावक्र के ज्ञान से राजा जनक द्रष्टाभाव में स्थित हुए अर्थात उन्हें अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मस्वरूप) का बोध हुआ। राजा होते हुए भी राजसी सुख-वैभव के प्रति वे कभी आसक्त नहीं हुए। वे देह में होते हुए भी विदेह कहलाए। वे सुख-दुःख, मान-अपमान, हर्ष-विषाद से परे रहे और आत्मभाव, द्रष्टाभाव में स्थित रहकर अपना राज-काज चलाते रहे।
सचमुच आत्मज्ञान से ही आत्मदृष्टि विकसित होती है और आत्मदृष्टि संपन्न होना ही द्रष्टा होना है। द्रष्टा की दृष्टि से संसार को देखकर ही हम संसार में रहते हुए संसार से निर्लिप्त रह सकते हैं और सुख-दुःख, मान-सम्मान, हर्ष-विषाद से परे होकर सदैव समत्व की स्थिति में रहते हुए अतींद्रिय आनंद, आत्मिक आनंद की अनुभूति कर सकते हैं।
हमें भी द्रष्टाभाव को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए। हमें भी द्रष्टाभाव में स्थित रहकर निर्लिप्त और निष्काम भाव से जगत् में अपने कर्त्तव्य कर्म करते हुए सदैव आनंदित रहना चाहिए। द्रष्टाभाव में रहने से ही हमें शाश्वत सुख व आनंद की अनुभूति होती है।
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