सनत जैन
समय तेजी के साथ बदलता है। समय के साथ कैसे चीजें बदलती हैं। इसका उदाहरण है, मणिपुर में जिस तरह से हिंसा फैली है। वहां के 17 विधायकों ने सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी है। जब मणिपुर की सरकार बनी थी, उस समय 60 सदस्यों की विधानसभा में 52 विधानसभा सदस्यों का समर्थन मुख्यमंत्री वीरेन सिंह को प्राप्त था। अब 17 विधायकों के समर्थन वापस लेने के बाद केवल 35 विधायक सरकार के समर्थन में बचे थे। वर्तमान हिंसा के बाद 14 भाजपा विधायकों ने वीरेन सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए भाजपा हाईकमान को अल्टीमेटम दे दिया है।
मणिपुर में जिस तरह से विधायकों, मंत्री और मुख्यमंत्री के घरों पर हमला हो रहा है। भारी सुरक्षा बल तैनात होते हुए भी भीड़ पर सुरक्षा बल काबू नहीं कर पा रहा है। इससे मणिपुर की स्थिति बहुत विस्फोटक हो गई है। पूर्वोत्तर राज्यों में भी इसका असर देखने को मिलने लगा है। केंद्र ने यदि इन्हें जल्द नहीं हटाया, तो वीरेन सिंह के पक्ष में केवल 21 विधायक बचे रहेंगे। जबकि मुख्यमंत्री बने रहने के लिए उन्हें 31 विधायकों का समर्थन आवश्यक होगा। विधायक लगातार मुख्यमंत्री वीरेन सिंह को हटाने की मांग कर रहे थे। लेकिन उनकी मांग केंद्र सरकार द्वारा नही माने जाने पर अब विद्रोह की स्थिति बन गई है। मणिपुर में नगा पीपुल्स फ्रंट के 5, एनपीपी के 7, जदयू के 5 और 3 निर्दलीय विधायक समर्थन वापस ले चुके हैं।
अब 14 भाजपा विधायकों ने विद्रोह कर दिया है। इससे तय है, मणिपुर के मुख्यमंत्री वीरेंद्र सिंह को तत्काल नहीं हटाया गया, तो मणिपुर की सरकार एक-दो दिन के अंदर गिर जाएगी। ऐसी स्थिति में केंद्र के पास एक ही रास्ता रह जाएगा, मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू करे और मणिपुर की सारी जिम्मेदारी केंद्र सरकार स्वयं अपने हाथ में ले। मणिपुर में पूर्णकालिक राज्यपाल की नियुक्ति नहीं की गई है। भाजपा के प्रति पूर्वोत्तर के राज्यों में भारी नाराजी देखने को मिल रही है। पूर्वोत्तर के राज्य, केंद्र सरकार के साथ इसलिए रहते हैं कि उन्हें केंद्र से अधिक से अधिक आर्थिक सहायता मिलेगी। पूर्वोत्तर राज्यों के छात्र-छात्राओं को बेहतर सुरक्षा और शिक्षा मिलेगी। केंद्र में भाजपानीत सरकार होने के कारण पूर्वोत्तर के राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों ने भाजपा को समर्थन दिया। लेकिन पिछले महीनों से लगातार हिंसा को देखते हुए पूर्वोत्तर के राज्यों का मिथक भाजपा को लेकर टूट गया है। 25 नवंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने जा रहा है।
मणिपुर की हिंसा, वक्फ बोर्ड विधेयक, महंगाई, बेरोजगारी, झारखंड महाराष्ट्र और उपचुनाव के परिणाम का असर इस शीतकालीन सत्र में देखने को मिलेगा। शेयर बाजार में भारी गिरावट, डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट, आर्थिक मंदी, बैंकों में नगदी की कमी, सेबी प्रमुख माधुरी बुच को लेकर संसद में भारी हंगामा होना तय माना जा रहा है। केंद्र सरकार पर चारों तरफ से हमले हो रहे हैं। इंडिया गठबंधन आज भी एकजुट बना हुआ है। एनडीए गठबंधन और भाजपा के अंदर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह को चुनौतियां मिलना शुरू हो गई हैं। महाराष्ट्र, झारखंड के चुनाव परिणाम और विभिन्न राज्यों में जो उपचुनाव हो रहे हैं। यदि उनके परिणाम अनुकूल नहीं रहे तो विपक्ष और आक्रामक मुद्रा में होगा। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में जिस तरह का छात्र आंदोलन शुरू हुआ है। उससे लोगों को 1975 के छात्र आंदोलन की यादें आने लगी हैं। केंद्र सरकार की स्थिति मे बदलाव आना तय माना जा रहा है। चुनाव आयोग द्वारा जिस तरह से चुनाव में भाजपा को समर्थन करने का आरोप लग रहा है। उसके कारण अब चुनाव आयोग की साख आम जनता के बीच खत्म हो चुकी है।
एक सर्वे में 73 फ़ीसदी मतदाता चुनाव आयोग पर अविश्वास जता चुके हैं। बांग्लादेश जैसी स्थिति भारत में बनने की आशंका जाहिर की जा रही है। चुनाव आयोग के बारे में लोग मुखर होकर विरोध कर रहे हैं। सड़कों पर आंदोलन पहले से ही शुरू हो चुके हैं। चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली को लेकर अब इंडिया गठबंधन के सभी राजनीतिक दल ईवीएम से चुनाव करने के पक्षधर नहीं हैं। चुनाव आयोग और ईवीएम मशीन के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ने की बात शुरू हो गई है। वक्फ बोर्ड विधेयक पर जेपीसी बनाई गई थी। जेपीसी अध्यक्ष को लेकर जिस तरह से सारे विपक्ष ने एकजुट होकर उनके ऊपर अविश्वास व्यक्त करते हुए, लोकसभा अध्यक्ष को पत्र लिखा है। ऐसी स्थिति में सरकार यदि वक्फ बोर्ड विधेयक लेकर आती है तो एनडीए गठबंधन के सहयोगी दल सरकार को मतदान के समय तगड़ा झटका दे सकते हैं। पिछले कुछ समय से हिंदू धर्म संसद एवं मुसलमान द्वारा वक्फ बोर्ड के समर्थन में उत्तेजित बयान देखने और सुनने को मिल रहे हैं। मणिपुर में फैली हिंसा का असर पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में देखने को मिलने लगा है।
मणिपुर में 60000 से ज्यादा सेना, सीमा सुरक्षा बल और पुलिस के जवान तैनात किए जाने के बाद भी स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो गईं हैं। शेयर बाजार में लगातार गिरावट से अब तक लगभग 60 लाख करोड रुपए का नुकसान पिछले 1 महीने में निवेशकों को हो चुका है। इसका असर आम जनता पर भी पड़ना तय है। अर्थशास्त्री कह रहे हैं जिस तरह की स्थिति अमेरिका में 2008 में बनी थी वही स्थिति भारत में भी जल्द आ सकती है। इतनी तेजी के साथ इतने सारे बदलाव देखने को मिल रहे हैं। जिनके बारे में पहले सोचा भी नहीं गया था। निश्चित रूप से इसका असर केंद्र की वर्तमान सरकार पर पडना तय है।
संसद के शीतकालीन सत्र पर इसका असर देखने को मिल सकता है। इसने सरकार की चिंता को बढ़ा दिया है। स्थिति ऐसी बन रही कि चाह कर भी सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। जिस तरह मुट्ठी से रेत फिसलती है। कुछ वैसी ही स्थिति केंद्र सरकार की देखने को मिल रही है। जो भी प्रयास सरकार द्वारा किये जा रहे हैं। उसके सार्थक परिणाम सरकार को नहीं मिल पा रहे हैं। राजनीतिक और आर्थिक उथल-पुथल को देखते हुए कब क्या हो जाएगा, यह नहीं कहा जा सकता है।
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