मुनेश त्यागी
हम मेहनतकश जग वालों से
जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं एक देश नहीं
हम सारी दुनिया मांगेंगे।
इस दुनिया में अनेकों अनेक कवि, लेखक, साहित्यकार और शायर हुए हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं से दुनिया के क्रांतिकारी किसानों, मजदूरों, छात्रों, नौजवानों और जनता को प्रभावित किया है। इन सब ने अपनी रचनाओं से दुनिया की क्रांतिकारी प्रगतिशील और जनवादी सोच के लोगों पर अपना प्रभाव डाला है। उनमें से बहुतों ने जनता को क्रांतिकारी कविताएं, लेख और शायरी दी हैं। ऐसे ही एक महान शायर थे,,,, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़। उनकी आज पुण्यतिथि है। फ़ैज़ अहमद फैज ने अपनी जिंदगी में बहुत-बहुत सारे सरकारी जुल्मों का सामना किया और उसकी सिर्फ एक ही वजह थी, वह थी उनकी क्रांतिकारी कविता, उनकी क्रांतिकारी शायरी, उनका क्रांतिकारी मिजाज, उनके क्रांतिकारी लेख और उनकी क्रांतिकारी ज़बान।
महान क्रांतिकारी शायर फैज का जन्म तत्कालीन भारत में 13 फरवरी 1911 को स्यालकोट में हुआ था। उनके दादा भूमिहीन थे। फैज की शिक्षा पहले मस्जिद में और फिर फिर स्कोच मिशन स्कूल लाहौर गवर्मेंट कॉलेज में हुई। उन्होंने 1929 में इंटरमीडिएट परीक्षा और 1933 में अंग्रेजी में m.a. की डिग्री प्राप्त की। 1935 में प्राध्यापक बनें।
उन्होंने 1936 में पंजाब प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की, 1942 में इंडियन आर्मी में भर्ती हुए और 1944 में कर्नल बनें। 1947 में आर्मी से इस्तीफा दे दिया, 1947 में पाकिस्तान टाइम्स का संपादन किया। 1951 में उनके ऊपर रावलपिंडी षड्यंत्र केस दायर हुआ और उसमें उन पर राजद्रोह का झूठा मुकदमा लगा कर जेल भेज दिया गया, इसमें 1957 में जेल से रिहाई हुई। 1957 को मुंबई यात्रा पर भारत आए। फिर 1958 में गिरफ्तार करके जेल भेजे गए। अपनी रचनाओं की क्रांतिकारिता की वजह से उन्हें 1962 में लेनिन शांति पुरस्कार से नवाजा गया। 20 नवंबर 1984 को लाहौर में उनका निधन हो गया।
फैज अहमद फैज की शायरी सरलतम, साधारण और आम जनता की भाषा में लिखी गई शायरी थी। इसी कारण जनता उनकी रचनाओं को बड़ी आसानी से हाथों-हाथ पकड़ लेती थी, उठा लेती थी। उन्होंने जनता की शायरी की, इंकलाब की शायरी की, अपराधियों और अन्याय के खिलाफ लिखा, इंसाफ बेचने वालों के खिलाफ लिखा, मुंसिफ और मुजरिम की मिलीभगत के बारे में लिखा, जालिमों और नेताओं की मिलीभगत का भंडाफोड़ किया। उन पर सवाल खड़े किए, जनता को जबान दी, बोली दी, जनता को बोलने और सवाल करने का जज्बा, हौंसला और मौका दिया।
वे अपने समय के सबसे कामयाब इंकलाबी शायर बन कर निकले। ऐसी ही शायरी के कारण पाकिस्तान के हुक्मरान, उनकी शायरी से डरते थे, खौफ खाते थे। उन्हें कई बार झूठे और बेबुनियादी मामलों में जेल में भेजा गया, देशद्रोह के झूठे मुकदमों में फंसाया गया, मगर वे झुके नहीं, डरे नही, और शोषित और अन्याय की मारी जनता की समस्याओं को उठाते रहे। उन्होंने जनता को जबान दी, वाणी प्रदान की, हौसला दिया, लड़ने का मादा दिया। इन्हीं सब कारणों से फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अपने समय के सबसे क्रांतिकारी और जनता के शायर बनकर निकले।
उन्होंने अपने समय में बहुत सारी गजलें, नज्में लिखी, बहुत सारे शेर लिखे। उनमें से कुछ को हम आपके सामने पेश कर रहे हैं। उनकी शायरी को पढ़कर बडी आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता हैं कि उन्हें यूं ही जेल नहीं भेजा गया, उन पर यूं ही झूठे और देशद्रोह के मुकदमे नहीं लगाए गए। पाकिस्तान की सरकार और पूरा का पूरा लुटेरा सत्ता वर्ग, उनसे भयभीत था, उनकी शायरी से, उनकी रचनाओं से खौफ खाता था। उनकी कुछ क्रांतिकारी रचनाओं की एक झलक इस प्रकार है,,,,,,
यह गीत उन्होंने अपनी मास्को यात्रा के दौरान लिखा था। यह गीत दुनिया के किसानों और मेहनतकशों और मजदूरों के लिए लिखा गया एक अंतरराष्ट्रीय गीत है। इस गीत से 1980 में हम इतने प्रभावित हुए कि हमने इस गीत को देखते ही देखते कंठस्थ कर लिया और उसके बाद सैकड़ों मीटिंग में, किसानों के सामने, मजदूरों के सामने, नौजवानों विद्यार्थियों और बुद्धिजीवियों के सामने पेश किया। इस गीत में इतनी जीवंतता और क्रांतिकारिता आज भी मौजूद है कि लोग इसे बार-बार सुनने की फरमाइश करते हैं, तो आप की खिदमत में पेश है यह मेहनतकशों का क्रांतिकारी अंतरराष्ट्रीय गीत,,,,
हम मेहनतकश जग वालों से
जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं एक देश नहीं
हम सारी दुनिया मांगेंगे।
यहां सागर सागर मोती है
यहां पर्वत पर्वत हीरे हैं,
यह सारा माल हमारा है
हम सारा खजाना मांगेंगे।
जो खून बहा जो बाग उजड़े
जो गीत दिलों में कत्ल हुए,
हर कतरे का हर गुंचे का
हर गीत का बदला मांगेंगे।
ये सेठ व्यापारी रजवाड़े
दस लाख तो हम दस लाख करोड़,
ये कितने दिन अमेरिका से
लडने का सहारा मांगेंगे।
जब सफ सीधी हो जाएगी
जब सब झगड़े मिट जाएंगे,
हम हर एक देश के झंडे पर
एक लाल सितारा मांगेंगे।
1971 में जब पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश अलग देश बना, तब बांग्लादेश की जनता की हौसला अफजाई के लिए उन्होंने यह अमिट रचना की थी। देखिएगा,,,,,
दरबार ए वतन में जब एक दिन
सब जाने वाले जाएंगे,
कुछ अपनी सजा को पहुंचेंगे
कुछ अपनी जजा को पाएंगे।
एक ख़ाक नशीनों उठ बैठो
अब वक़्त करीब आ पहुंचा है,
जब तख्त गिराए जाएंगे
जब ताज उछाले जाएंगे।
कटते भी चलो बढ़ते चलो
बाजू हैं बहुत हैं सर भी बहुत,
बढ़ते ही चलो कि अब डेरे
मंजिल पै ही डाले जाएंगे।
ऐ जुल्म के मातो लब खोलो
चुप रहने वालों चुप कब तक,
कुछ हश्र तो उनसे उट्ठेगा
कुछ दूर तो नाले जाएंगे।
अब टूट गिरेंगी जंजीरे
अब जिन्दानों की खैर नहीं,
जो दरिया झूम के उठे हैं
तिनकों से ना टाले जाएंगे।
और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की यह शानदार नजम, जैसे आज ही लिखी गई हो। यह आज के दौर में पूरी तरह से समाज, राजनीति, मुजरिम, मुंसिफ, जालिमों, नेताओं, अत्याचारियों और भ्रष्टाचारियों पर लागू होती है, देखिएगा जरा,,,,
जिस देश में मांओं बहनों को
अगयार उठा कर ले जाएं,
जिस देश के कातिल गुंडों को
अशराफ उठाकर ले जाएं।
जिस देश की कोर्ट कचहरी में
इंसाफ टकों में बिकता हो,
जिस देश का मुंशी काजी भी
मुजरिम से पूछ कर लिखता हूं,
जिस देश में जान के रखवाले
खुद जानें लें मासूमों की,
जिस देश में हाकिम जालिम हों
सिसकी न सुने मजबूरों की।
जिस देश के आदिल बहरे हों
आहें ना सुने मासूमों की,
उस देश के हर एक लीडर पर
सवाल उठाना लाजिम है।
उनके कुछ क्रांतिकारी शेर आप की खिदमत में पेश हैं,,,,,
यूं ही हमेशा जुल्म से उलझती रही है खल्क
न उनकी रस्म नई, न उनकी रीत नई।
यूं ही खिलाए हैं, हमने आग में फूल
न उनकी हार नई, न अपनी जीत नई।
चारागर को चारागरी से गुरेज था
वरना हमें जो दर्द थे वो ला दवा न थे।
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे?
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग।
दिल ना उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।
वो इंतजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं
चले चलो कि वो मंजिल अभी आई नहीं।
देखेंगे हम भी देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे।
आइये हाथ उठायें हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़े मुहब्बत के सिवा
कोई बुत, कोई खुदा, याद नहीं।
जो गुजर गई हैं रातें
उन्हें फिर जगा के लाएं,
जो बिसर गई है बातें
उन्हें यादों में बुलाएं,
चलो फिर से दिल लगाएं
चलो फिर से मुस्कुराएं।
मता ऐ लोह ओ कलम छीन गई तो क्या गम है
कि खून ऐ दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने
जबां पे मोहर लगी है तो क्या कि रख दी है
हर हल्का ए जंजीर में जबां मैंने।”
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे क्रांति यानी इंकलाब के दीवाने थे और वे इंकलाब के इस कदर दीवाने थे कि वे इंकलाब को अपना महबूब मांगते थे। अपने महबूब यानी इंकलाबी इंकलाब के बारे में उनका यह मशहूर शेर देखिए। इसे सुन और पढ़कर कौन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का फैन न हो जायेगा? यही उनकी अमरता का सबसे बड़ा राज है।,,,,,,
वो तो वो हैं तुम्हें भी हो जाएगी उल्फत मुझसे
एक नजर मेरा महबूब- ऐ- नजर तो देखो।
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