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कल्पित ईश्वर-वो-ल्लाह पर विश्वास 

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           ~> नगमा कुमारी अंसारी 

 भारत की जनसँख्या धर्मभीरु है. अधिकतर लोग ईश्वर ,अल्लाह या किसी अन्य दैवीय शक्ति पर विश्वास करते ही हैं।  उन का विश्वास इतना अटूट या कट्टर होता है कि वे ईश्वर/ अल्लाह के विरुद्ध कोई भी बात सुनना पसंद नहीं करते.

    यदि आस्तिक से  पूछा जाए की उनमे से कितनो को स्वयं ईश्वर /अल्लाह का अनुभव हुआ है  तो वे केवल कुछ रटी रटाई ही बातों का उत्तर देते मिलेंगे। जैसे ,शांति मिलने या श्रद्धा से अनुभव करना , किसी दुःखद परिस्थिति में अनपेक्षित सहायता मिलने की सयोंग की घटना के अतिरिक्त नही बता पाते।

       गौर करने लायक यह है कि जिस अनपेक्षित सहायता को वह ईश्वर की कृपा बताता है वह वास्तव में उसी के कार्य की संपनता ही होती है. किसी तरह का सांयोगिक नहीं भी होती है तो उनके कारण दूसरे होते हैं जिन पर व्यक्ति ईश्वर भक्ति के कारण गौर नहीं कर पाता। जैसे कोई विद्यार्थी किसी परीक्षा से पहले बहुत लंबी बीमारी से गुजरा हो और ठीक से पढाई न कर पाया हो किन्तु फिर भी परीक्षा दी और पास हो जाए तो वह इसे ईश्वर की कृपा बताता है।

अगर ईश्वर को मदद करनी ही थी तो लंबी बीमारी क्यों दी थी ? यदि ईश्वर की कृपा से पास होना ही था तो परीक्षा देने की क्या जरूरत थी ? बिना परीक्षा दिए ही पास हुआ जा सकता था।

      रही ईश्वर को श्रद्धा से अनुभव करने की बात तो पहले ‘श्रद्धा ‘ का अर्थ ही जान लीजिए। श्रद्धा का अर्थ हुआ जो कुछ कहा गया है उस पर बिना सोचे समझे पूज्यभाव से विश्वास करना। चूकिं ईश्वर/ अल्लाह  की अवधारणा अस्पष्ट है और काल्पनिक है अतः उसकी कल्पना वैसी ही करनी पड़ती है जैसा  तथाकथित साधू महात्मा बता गए हैं या शास्त्रों में दर्ज कर गए हैं , उन की बातों पर विश्वास करना पड़ता है। अतः श्रद्धा का अर्थ हुआ धर्मग्रन्थो और धर्मगुरुओं पर विश्वास।

मातापिता ,पति पत्नी , भाई, बहन , दोस्तों से प्रेम करने के लिए किसी ग्रन्थ या गुरु की सहायता नहीं लेनी पड़ी , इन्हें बिचौलिया नहीं बनाना पड़ता है। मनुष्य के जीवन में प्रेम सहज ही होता है , प्रेम की शिक्षा किसी से नहीं लेनी पड़ती। प्रेम भी मनुष्य का प्रकृतिक स्वभाव है जैसे भूख, नींद, सम्भोग आदि यह स्वतः उठता है।

     किन्तु, ईश्वर पर विश्वास करने की कौन सी स्वतः प्रेरणा उठती है ? क्या भूख , नींद आदि की तरह ईश्वर पर विश्वास की जरूरत महसूस नहीं होती। ईश्वर पर विश्वास बचपन में ही अफिम् की तरह चटा दिया जाता है ,उसकी आदत पड़ जाती है और जब कंही से उस आदत पर सवाल उठता है या चोट पड़ती है तो उस आदत की रक्षा के लिए नए नए तर्क (?) खोजे जाते हैं।

     ऐसे ही तर्को में धर्म मजहब की अफीम चाटे आस्तिक को तर्क से नहीं समझ आने वाला तर्क भी शामिल हो जाता है।

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