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बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत को सहेजने के लिए फिर से साथ आएंगे उद्धव-राज?

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महाराष्ट्र के चुनावी कैंपेन के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरफ से दिए गए नारे की गूंज चारो ओर नजर आई और काफी चर्चा में भी रही। इसके अलावा कैंपेन के आखिरी दिन पीएम मोदी ने एक नया नारा एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे दिया। बीजेपी का कहना था कि अलग अलग धर्मों, जातियों और समुदायों में नहीं बंटना है बल्कि हमें नए भारत के लिए वोट करना है। महाराष्ट्र चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। ठाकरे परिवार की राजनीति को ऐसा झटका लगा कि जो ठाकरे परिवार कभी सत्ता के समीकरण का केंद्र हुआ करता था। अब हार की हताशा से जूझ रहा है। नतीजों से साफ हो गया है कि न सिर्फ महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया राज ठाकरे का राजनीतिक रसूख खत्म हो गया है बल्कि उद्धव ठाकरे भी अपने पिता के बनाए राजनीतिक साम्राज्य को कायम नहीं रख पाए हैं। उद्धव की शिवसेना और राज की मनसे दोनों ही इस चुनाव में अपनी जमीन बचा पाने में नाकाम रहे। उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे जिनके पीछे कभी लाखों समर्थक खड़े होते थे आज उनकी पार्टियां सियासी फर्श पर लड़खड़ा रही हैं। हार की ये कहानी केवल चुनाव की नहीं बल्कि उस दिन शुरू हुई थी जब ये दोनों भाई एक दूसरे के विरोधी बन गए। एक वक्त था जब ठाकरे नाम राजनीति का ब्रांड हुआ करता था। मजबूत, शक्तिशाली और अजेय हुआ करता था। लेकिन आज ये नाम राजनीति के मैदान में दिशाहीन घूम रहा है। आखिर इसकी वजह क्या है? सवाल ये भी उठता है कि परिवार के बंटने से जो वोट कट गए हैं क्या वो एक होकर फिर से सेफ हो सकते हैं। सवाल ये है कि क्या बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत को सहेजने के लिए राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे फिर से एक हो सकते हैं। या फिर असली शिवसेना का जो ठप्पा एकनाथ शिंदे ने अपने कंधे पर लगा लिया है वो हमेशा हमेशा के लिए अमिट हो गया है।

राज की आक्रमक शैली, उद्धव की रणनीतिक सोच और बाला साहब का करिश्मा

याद करिए बाला साहब ठाकरे का वो  दौर। एक ऐसा नाम जो महाराष्ट्र की राजनीति में शेर की दहाड़ जैसा गूंजता था। हाथ में रूद्राक्ष की माला शेर की दहाड़ वाली तस्वीर और आवाज तानाशाह वाली। सब कुछ राजनीति नहीं थी। राजनीति को खारिज कर सरकारों को खारिज कर खुद को सरकार बनाने या मानने की ठसक थी। उन्होंने सांसद भी बनाए और मेयर बनाए तो मुख्यमंत्री भी। मी मुंबईकर का नारा लगाकर मराठियों को जोड़ा और मी हिंदू की राजनीति कर हिंदू ह्र्दय सम्राट कहलाए जाने लगे। अंग्रेजी का मशहूर फ्रेज है ‘either you can agree or disagree but you cannot ignore him.’ यानी आप आप सहमत या असहमत हो सकते हैं लेकिन नजरअंदाज नहीं कर सकते। जिस कुर्सी पर हम बैठते हैं वहीं हमारे लिए सिंहासन होता है… ये कथन बाला साहेब ठाकरे के थे। उनके भाषण की गूंज दादर से लेकर दिल्ली तक सुनाई पड़ती थी। उद्धव और राज उनके दो सिपहसालार शिवसेना की ताकत के दो स्तंभ थे। राज की आक्रमक शैली, उद्धव की रणनीतिक सोच और बाल ठाकरे का करिश्मा ये तिकड़ी राजनीति के अखाड़े में ट्राइ टेस्टेड थी। लेकिन 2005 में ये राजनीतिक परिवार सत्ता की महत्वकांक्षा का शिकार हो गया। ठाकरे परिवार की सियासी रामायण में लक्ष्मण रेखा खिंच गई। राज को लगने लगा कि पार्टी की गद्दी पर उनका हक है। लेकिन उद्धव के शांत स्वभाव ने पार्टी के बड़े नेताओं का भरोसा जीत लिया। कहते हैं राज की दहाड़ कमला की थी। लेकिन उद्धव की मुस्कान ज्यादा असरदार साबित हुई। पहले उद्धव ठाकरे के मुकाबले वाली समानांतर राजनीति में राज ठाकरे की एक खास अहमियत बनती थी क्योंकि राज ठाकरे को शिवसेना संस्थापक बाला साहेब ठाकरे वाले राजनीतिक मिजाज का नेता माना जाता था। और ये कोई हवा हवाई बातें नहीं थीं। राज ठाकरे ने महाराष्ट्र की राजनीति में अपना एक खास कद भी अख्तियार किया था। राज ठाकरे को असली टैलैंट और उद्धव ठाकरे को पिता की विरासत के कारण राजनीति में आये नेता ही माना जाता था।

राज ठाकरे की कन्फ्यूज वाली राजनीति लोगों को कर रही भ्रमित

2005 में राज ठाकरे ने पार्टी छोड़ी और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाई। राज ठाकरे उसी चाल पर चलना चाहते थे जिस धार पर चलकर बाल ठाकरे ने अपनी उम्र गुजार दी। 27 नवम्बर 2005 को राज ठाकरे ने अपने घर के बाहर अपने समर्थकों के सामने घोषणा की। मैं आज से शिवसेना के सभी पदों से इस्तीफ़ा दे रहा हूं। पार्टी क्लर्क चला रहे हैं, मैं नहीं रह सकता। हालांकि राज ठाकरे का पार्टी छोड़कर जाने का दुख बाल ठाकरे को हमेशा से रहा। लेकिन 16 साल की राजनीति में राज ठाकरे के हाथ अब तक कुछ खास नहीं लग सका है। पुरानी कहावत है खोखा चना बाजे घना यानी अंदर जब कंटेंट नहीं होगा तो आप कितना भी बढ़ते रहिए प्रभावशाली नहीं होगा। इस वजह से उनकी पार्टी लगातार सिकुड़ती चली गई। एक वक्त ऐसा भी था कि उनके 13 विधायक जीतकर आए थे। दो बार से विधायकों के लाले पड़े हैं। लगातार ऐसा दूसरा चुनाव है जहां उन्हें जीरो सीटें मिली हैं। राज ठाकरे की कन्फ्यूज वाली राजनीति लोगों को भी भ्रमित कर रही है। अचानक उत्तर भारतीयों को भगाने लगते हैं। फिर महाराष्ट्र की अस्मिता की बात करते हैं। कभी हिंदू ह्रदय सम्राट बन जाते हैं। अयोध्या काशी और मथुरा की बात करने लगते हैं। फिर उन्हें उत्तर भारतीय भी हिंदू और अपने लगने लगते हैं। कभी नरेंद्र मोदी की तारीफ करने लगते हैं। कभी नरेंद्र मोदी की बुराई करने लगते हैं। मतलब लोग भी नहीं समझ पा रहे हैं कि आप हो किसकी तरफ। कभी शरद पवार की तारीफ कर देंगे तो कभी कांग्रेस के साथ बात करने चले जाएंगे। कभी भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनाने की बात करते हुए मोदी-शाह की तारीफ, कभी गुजरात बनाम महाराष्ट्र करने की कोशिश करते हैं। इस तरह की कन्फ्यूजन की स्थिति की वजह से उनकी हालत हुई है। 

उद्धव और राज की लड़ाई ने ठाकरे की चमक को किया फीका

बाल ठाकरे का आशीर्वाद उद्धव के साथ था। लेकिन राज के पास भाषणों का तड़का था। दोनों को लगा हम अकेले ही काफी हैं। लेकिन तब इन्हें कोई बताने वाला नहीं था कि जब तक एक हैं तब तक सेफ हैं। कहानी तब और मजेदार हो गई जब 2019 में उद्धव ने मुख्यमंत्री बनने के लिए बीजेपी से किनारा कर लिया और महाविकास अघाड़ी के साथ सरकार बना ली। उधर राज ने बीजेपी और शिंदे की शिवसेना का अनकहा समर्थन किया। दोनों भाई अलग अलग दिशा में दौड़ने लगे। 2024 के चुनाव में उद्धव की शिवसेना यूबीटी और राज की मनसे दोनों ही जनता के दिल में जगह नहीं बना पाए। उद्धव जो बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी माने जाते थे। आज न पार्टी का नाम बचा पाए और न चुनाव निशान। वहीं राज जिनके भाषणों की गूंज पूरे महाराष्ट्र में सुनाई देती थी। अब सिर्फ स्थानीय मुद्दों तक सिमट कर रह गए। राज ने सोचा था कि मराठी मानुष का मुद्दा उन्हें सत्ता दिलाएगा। लेकिन जनता ने सोचा कि ये तो पुराना हो गया, कुछ नया लाओ। उद्धव ने सोचा कि गठबंधन की राजनीति से कुर्सी पक्की हो जाएगी। लेकिन उनकी पार्टी ही टूट गई। नतीजा कि ठाकरे नाम की राजनीति का ग्राफ इतना गिर गया कि अब ये नाम इतिहास की किताबों का किस्सा बनने की कगार पर है। ये वो सबक है जो इन भाईयों ने नहीं सीखा। उद्धव औऱ राज की लड़ाई ने शिवसेना को कमजोर तो किया ही ठाकरे नाम की चमक को भी फीका कर दिया। 

एक हैं तो सेफ हैं

2019 में बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाले उद्धव ने मुख्यमंत्री बनने के लिए भारतीय जनती पार्टी का साथ क्या छोड़ा पूरी पार्टी ने ही उद्धव को किनारे लगा दिया। जैसे ही एकनाथ शिंदे को मौका मिला उन्होंने पार्टी तोड़ दी और बीजेपी के साथ हो लिए। वो न सिर्फ मुख्यमंत्री बने बल्कि उद्धव ठाकरे की पूरी राजनीति को ही खत्म कर दिया। महाराष्ट्र के सियासी बैटल के सबसे बड़े खिलाड़ी तो वो नेता बनकर उभरे जिन्हें चुनाव के दौरान मंचों से उद्धव ठाकरे और उनके बेटे आदित्य ने गद्दार कहकर हर बार संबोधित किया। 2024 में तो एकनाथ शिंदे ने ये साबित भी कर दिया है कि असली शिवसेना और उसका वारिस ठाकरे परिवार नहीं बल्कि एकनाथ शिंदे हैं। लेकिन अब ऐसा लगता है कि महाराष्ट्र के लोगों ने गद्दार को ही असली हकदार मान लिया। उद्धव ठाकरे को हिंदुत्व का एजेंडा विरासत में मिला था, लेकिन अभी तो लगता है जैसे सब कुछ गवां दिया हो। अब पांच साल तक तो उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे को इसी नतीजे से संतोष करना होगा। अगर उन्हें बाल ठाकरे की विरासत बचानी है व फिर से शिवसेना का वर्चस्व महाराष्ट्र में कायम करना है। फिर से खुद को साबित करना है। तो शायद उनकी एकजुटता ही इसमें मदद कर सकती है। आखिर प्रधानमंत्री मोदी भी तो कहते हैं एक हैं तो सेफ हैं। परिवार एक रहा तो विरासत भी एक रहेगी। वरना उद्धव और राज के मनसे के अलग अलग लड़ने से इनके वोट कैसे कटे हैं महाराष्ट्र 2024 का नतीजा इसका गवाह है। 

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