चंद्र प्रकाश झा
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 3 दिसम्बर 1984 को अमेरिकी मल्टीनेशनल यूनियन कार्बाइड कंपनी ( यूसीसी ) की भारत में सहायक कंपनी के रूप में यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड ( यूसीआइएल ) की 1969 से चालू फैक्ट्री में जहरीले रसायन मिथाइल आइसोसायनाइट से विभिन्न कीटनाशक बनाने का काम शुरू हुआ।
यूसीआइएल ने अपना मुनाफा बढ़ाने 1979 में इन्हें बनाने की एक और फैक्ट्री खोल ली। यूसीआइएल के शीर्ष प्रबंधकों की आपराधिक लापरवाही से ज़हरीली गैस फैक्ट्री के बाहर लीक हो गई। तब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे।
कांग्रेस की इन दोनों सरकारों की एजेंसियों के आंकड़ों के अनुसार इसमें करीब 15 हजार लोगों की मृत्यु हो गई। गैस लीक से भोपाल के बहुत लोगों की आंखों की ज्योति चली गई। बहुत अन्य लोगों में कई तरह के रोग उत्पन्न हो गए।
मृतकों की संख्या बाद में केंद्र सरकार ने 2259 और मध्य प्रदेश सरकार ने 787 बताई। दो सप्ताह बाद कुछ गैर सरकारी रिपोर्टों में मृतकों और प्रभावितों की संख्या में और आठ हजार की वृद्धि बताई गई।
अर्जुन सिंह सरकार ने कोर्ट में 2006 में दाखिल एफिडेविट में कबूल किया गया कि करीब 50 हजार लोग बुरी तरह और 38 हजार 478 लोग आंशिक रूप से प्रभावित हुए। एफिडेविट में यह भी कबूल किया गया कि जहरीले गैस के लीक होने से 39 हजार लोग पूरी तरह अपंग हो गये।
दुनिया भर में इस सबसे बड़ी इंडस्ट्रियल दुर्घटना की जांच 1993 में एक इंटरनेशनल कमीशन को सौंपा गया। इस कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार नवम्बर 1984 तक फैक्ट्री के कई सुरक्षा उपकरण ठीक स्थिति में नहीं थे। उनमें सुरक्षा के इंटरनेशनल मानकों का पालन नहीं किया गया।
स्थानीय अखबारों के पत्रकारों की रिपोर्टों के अनुसार फैक्ट्री में सुरक्षा के लिए उपलब्ध सभी मैनुअल अंग्रेज़ी में थे पर उसके ज़्यादातर कर्मचारियों को अंग्रेज़ी का बिलकुल ज्ञान नहीं था। फैक्ट्री में हवा साफ करने के लिए लगा वेन्ट प्रबंधकों की लापरवाही से बन्द हो गया था।
फैक्ट्री के टैंक नंबर 690 में निर्धारित मात्रा से ज़्यादा गैस भरी थी और उसका तापमान इंटरनेशनल मानक 4.5 डिग्री सेल्सियस के बजाय 20 डिग्री था। गैस को ठंढे स्तर पर रखने बनाया गया संयंत्र बंद था। प्रबंधकों ने यह फैक्ट्री का बिजली बिल कम करने किया था।
फैक्ट्री के टैंक नंबर इ-610 में 2 और 3 दिसम्बर की रात पानी रिस जाने से तापमान और दबाब बढ़ गया था। टैंक का अंदरूनी तापमान 200 डिग्री सेल्सियस हो गया था। करीब 50 मिनट में 30 मीट्रिक टन जहरीली गैस पूरे फैक्ट्री क्षेत्र में लीक हो गई।
इसका बहाव भोपाल की दक्षिण पूर्वी दिशा में था। उस समय भोपाल के आसमान में बादल छाए थे जिनमें गैस लीक से निकले फोस्जीन, हाइड्रोजन सायनाइड आदि रसायन के अलावा घुटनकारी कार्बन मोनोऑक्साइड गैस भी फैल गई।
इस कांड के बाद राजीव गांधी सरकार ने फैक्ट्री में लोगों के जाने पर रोक लगा दी। उसके कुछ दिनों के बाद अर्जुन सिंह सरकार के आग्रह पर राजीव गांधी सरकार ने दुर्घटना की जांच सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन्स (सीबीआई) को सौंप दी।
उसकी शुरूआती छान-बीन और विभिन्न गैर सरकारी रिपोर्टों के अनुसार भोपाल की करीब साढ़े 5 लाख आबादी गैस से सीधे रूप से प्रभावित हुई। इनमें करीब दो लाख 15 वर्ष से कम आयु के बच्चे थे। प्रभावित लोगों में करीब तीन हजार गर्भवती महिलाएं थीं, जिनको खांसी और उल्टी हुई और उनकी आंखों में जलन हुआ।
मध्य प्रदेश सरकार ने गैस लीक पीड़ितों के लिये कुछ नए अस्पताल खोले और कुछ प्राइवेट संस्थाओं ने इलाज में हाथ बंटाया। लेकिन गैस लीक से प्रभावित इलाकों में तैनात चिकित्सक, इस मानव निर्मित आपदा से निपटने के लिए प्रशिक्षित नहीं थे।
भोपाल में आठ अस्पताल और रिसर्च सेन्टर ने 1988 में पीड़ितों का मुफ्त इलाज किया। इस कांड की 1989 में सरकारी जांच से पता चला कि फैक्ट्री क्षेत्र में पानी प्रदूषित हो गया था। राज्य सरकार ने कांड के दो दिन बाद ही राहत कार्य शुरू किए।
मध्य प्रदेश सरकार के वित्त विभाग ने जुलाई 1998 में राहत के लिये लगभग डेढ़ करोड़ अमेरिकी डॉलर खर्च करने का निर्णय किया। राज्य सरकार के भोपाल गैस त्रासदी राहत और पुनर्वास विभाग के अनुसार, जुलाई 1985 में करीब 50 हजार प्रभावित लोगों को और 15 हजार मृतकों के परिवार को कुछ मुआवजे दिए गए।
मुझे याद है कि इस कांड के चार दिन बाद पुलिस ने 7 दिसम्बर 1984 को यूसीसी चेयरमेन और चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर अमेरिकी नागरिक वारेन एन्डर्सन को गिरफ्तार किया पर उसको करीब दो हजार रुपये का मामूली जुर्माना भरने पर छह घन्टे में ही छोड़ दिया गया।
कुछ लोग कहते हैं कि वारेन एन्डर्सन को भारत से भागने देने में राजीव गांधी सरकार का हाथ था। सच क्या है यह अभी तक ठीक से पता नहीं चला है।
और अंत में पंकज उपाध्याय की कविता – ‘कोई तो एक बार कहो इंसान हम भी हैं’
कोई तो एक बार कहो इंसान हम भी हैं
किसी मां के दिल की धड़कन,अरमान हम भी हैं
नही हैं हम कोई खिलौना
जो भी चाहे खेल ले हमसे
सुन लो ऐ इंसानों किसी की जान हम भी हैं
कभी भूख ने मारा हमें
कभी गैस का झेला कहर
हम मासूमों की मौत से
क्या नहीं रोता है शहर
कभी लड़ेंगे देश की खातिर कल के जवान हम भी हैं
कोई तो एक बार कहो इंसान हम भी हैं,
कभी चढ़ गये स्वार्थ की बेदी पर
भोजन में जहर खिलाया गया
कभी सत्ता की भूख में मासूमों पर
परमाणु बम भी गिराया गया,
दम घुट कर निकली जान क्या दर्द से अनजान हम भी हैं
कोई तो एक बार कहो इंसान हम भी हैं……
(चंद्र प्रकाश झा स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
उस काली रात की सुबह कब होगी?
अनिल जैन
भोपाल गैस त्रासदी को पूरे 41 बरस हो चुके हैं। दो और तीन दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात को यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली जहरीली गैस (मिक यानी मिथाइल आइसो साइनाइट) ने अपने-अपने घरों में सोए हजारों को लोगों को एक झटके में हमेशा-हमेशा के लिए सुला दिया था।
जिन लोगों को मौत अपने आगोश में नहीं समेट पाई थी, वे उस जहरीली गैस के असर से मर-मर कर जिंदा रहने को मजबूर हो गए थे।
ऐसे लोगों में कई तो उचित इलाज के अभाव में मर गए और और जो किसी तरह जिंदा बच गए उन्हें तमाम संघर्षों के बावजूद न तो आज तक उचित मुआवजा मिल पाया है और न ही उस त्रासदी के बाद पैदा हुए खतरों से पार पाने के उपाय किए जा सके हैं।
अब भी भोपाल में यूनियन कारबाइड कारखाने का सैकड़ों टन जहरीला मलबा उसके परिसर में दबा या खुला पड़ा हुआ है। इस मलबे में कीटनाशक रसायनों के अलावा पारा, सीसा, क्रोमियम जैसे भारी तत्व हैं, जो सूरज की रोशनी में वाष्पित होकर हवा को और जमीन में दबे रासायनिक तत्व भू-जल को जहरीला बनाकर लोगों की सेहत पर दुष्प्रभाव डाल रहे हैं।
यही नहीं, इसकी वजह से उस इलाके की जमीन में भी प्रदूषण लगातार फैलता जा रहा है और आसपास के इलाके भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। मगर न तो राज्य सरकार को इसकी फिक्र है और न केंद्र सरकार को।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बेहद खर्चीला और बहुप्रचारित देशव्यापी स्वच्छता अभियान चला रखा है, उसमें भी इस औद्योगिक जहरीले कचरे और प्रदूषण से मुक्ति का महत्वपूर्ण पहलू शामिल नहीं है।
मध्य प्रदेश में भी इस त्रासदी के बाद कई सरकारें आईं और गईं- कांग्रेस की भी और भाजपा की भी- लेकिन इस जहरीले और विनाशकारी कचरे के समुचित निपटान का मसला उनके एजेंडे में जगह नहीं बना पाया।
उनके एजेंडे में रहीं नर्मदा परिक्रमा, बुजुर्गों के लिए तीर्थ दर्शन यात्रा जैसी पाखंडभरी योजनाएं या फिर विकास के नाम पर पर्यावरण को तहस-नहस करने वाली खर्चीली परियोजनाएं, जिनमें भ्रष्टाचार की असीम संभावनाएं रहती हैं।
भोपाल गैस त्रासदी की भयावहता और उसके दूरगामी परिणामों की तुलना साढ़े सात दशक पहले दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए उन परमाणु हमलों से की जा सकती है जो अमेरिका ने किए थे। उन हमलों में दोनों शहर पूरी तरह तबाह हो गए थे और डेढ़ लाख से अधिक लोग मारे गए थे।
इस सिलसिले में भोपाल गैस त्रासदी के करीब डेढ़ वर्ष बाद अप्रैल 1986 में तत्कालीन सोवियत संघ के यूक्रेन में चेरनोबिल परमाणु ऊर्जा सयंत्र में हुए भीषण विस्फोट को भी याद किया जा सकता है, जिसमें भारी जान-माल का नुकसान हुआ था।
करीब 3.50 लाख लोग विस्थापन के शिकार हुए थे तथा रूस, यूक्रेन और बेलारूस के करीब 55 लाख लोग विकिरण की चपेट में आए थे।
हिरोशिमा और नागासाकी को 80 वर्ष, भोपाल गैस त्रासदी को 41 वर्ष और चेरनोबिल को 39 वर्ष बीत गए हैं, लेकिन दुनिया का शासक वर्ग अभी भी सबक सीखने को तैयार नहीं है।
वह पूरी दुनिया को ही हिरोशिमा-नागासाकी, भोपाल और चेरनोबिल में तब्दील कर देने की मुहिम में जुटा है। दुनिया के तमाम विकसित देश इस मुहिम के अगुवा बने हुए हैं और हमारा देश उनका पिछलग्गू।
देश में विकास के नाम पर जगह-जगह विनाशकारी परियोजनाएं जारी हैं- कहीं परमाणु बिजली घर के रूप में, कहीं औद्योगीकरण के नाम पर, कहीं बड़े बांधों के रूप में और कहीं स्मार्ट सिटी के नाम पर। इस तरह की परियोजनाओं को साकार रूप देने के लिए देश की तमाम जीवनदायिनी नदियों को बर्बाद किया जा रहा है।
गंगा, यमुना, नर्मदा, क्षिप्रा आदि नदियां तो सर्वग्रासी औद्योगीकरण का शिकार होकर कहीं गंदे और जहरीले नाले में तब्दील हो गई हैं, तो कहीं अंधाधुंध खनन के चलते सूख कर मैदान में तब्दील हो चुकी हैं। पहाड़ों को काट-काट कर उन्हें खोखला किया जा रहा है और पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर वहां कंक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं।
औद्योगीकरण और शहरीकरण के चलते जंगलों का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। विकास के नाम पर सरकारों द्वारा और सरकार के संरक्षण में जारी इन आपराधिक कारगुजारियों से पर्यावरण बुरी तरह तबाह हो रहा है, जिसकी वजह से देश को आए दिन किसी न किसी प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ता है- कभी प्रलयंकारी बाढ़, कभी भूस्खलन और कभी भूकंप के रूप में।
तथाकथित विकास की गतिविधियों के चलते बड़े पैमाने पर हो रहा लोगों का विस्थापन सामाजिक असंतोष को जन्म दे रहा है। यह असंतोष कहीं-कहीं हिंसक प्रतिकार के रूप में भी सामने आ रहा है। ‘किसी भी कीमत पर विकास’ की जिद के चलते ही देश की राजधानी दिल्ली समेत तमाम महानगर तो लगभग नरक में तब्दील होते जा रहे हैं।
लेकिन न तो सरकारें सबक लेने को तैयार है और न ही समाज। सरकारों ने तो विकास और विदेशी निवेश के नाम पर देश के बड़े उद्योग घरानों और विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए समूचे देश को आखेटस्थली बना दिया है।
अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कंपनी ऐसी ही एक कंपनी थी, जिसके कारखाने से निकली जहरीली गैस आज भी भोपाल की सांसों में घुली हुई है।
तात्कालिक तौर पर लगभग दो हजार और उसके बाद से लेकर अब तक कई हजार लोगों की अकाल मृत्यु की जिम्मेदार विश्व की यह सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी आज करीब चार दशक बाद भी औद्योगिक विकास के रास्ते पर चल रही दुनिया के सामने एक सवाल बनकर खड़ी हुई है।
इंसान को तमाम तरह की सुख-सुविधाओं के साजो-सामान देने वाले सतर्कता विहीन या कि गैरजिम्मेदाराना विकास का यह रास्ता कितना मारक हो सकता है, इसकी मिसाल भोपाल में 41 बरस पहले भी देखने को मिली थी और अब भी देखी जा रही है।
गैस रिसाव से वातावरण और आसपास के प्राकृतिक संसाधनों पर जो बुरा असर पड़ा, उसे दूर करना भी संभव नहीं हो सका। नतीजतन, भोपाल के काफी बड़े इलाके के लोग आज तक उस त्रासदी के प्रभावों को झेल रहे हैं।
जिस समय देश औद्योगिक विकास के जरिए समृद्ध होने के सपने देख रहा है, तब उन लोगों की पीड़ा भी अवश्य याद रखी जानी चाहिए। सिर्फ उनसे हमदर्दी जताने के लिए नहीं, बल्कि भविष्य में ऐसी त्रासदियों से बचने के लिए भी यह जरुरी है।
इस त्रासदी के चार दशक बीत जाने के बावजूद प्रशासन अभी तक त्रासदी में मारे गए लोगों से जुड़े आंकड़े उपलब्ध नहीं करा सका है। गैर सरकारी संगठन जहां इस गैस कांड से अब तक 25 हजार से ज्यादा लोगों के मारे जाने का दावा करते हैं, वहीं राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इस हादसे में 5295 लोग मारे गए और साढ़े पांच लाख लोग जहरीली गैस के असर से विभिन्न बीमारियों के शिकार हुए।
मगर हकीकत में यह संख्या कहीं ज्यादा है, क्योंकि 1997 के बाद सरकार ने गैस पीड़ितों के बारे में पता लगाना बंद कर दिया। यूनियन कारबाइड कारखाने के परिसर में रखे गए 350 मीट्रिक टन जहरीले रासायनिक कचरे वजह से भी हर साल बढ़ते रोगियों के आंकड़े नहीं जुटाए जा रहे हैं।
जहां तक यूनियन कारबाइड कारखाने के परिसर में रखे 350 टन जहरीले रासायनिक कचरे का सवाल है, उसका निपटान सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अन्यान्य कारणों से नहीं हो सका है और निकट भविष्य में भी होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं।
गैस त्रासदी के 35 साल बाद भी कारखाने के गोदाम में रखे या जमीन में दबे जहरीले कचरे में तमाम कीटनाशक रसायन और लेड, मर्करी और आर्सेनिक मौजूद हैं, जिनका असर अभी कम नहीं हुआ है।
यह खुलासा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने कारखाने के गोदाम में रखे जहरीले कचरे की जांच रिपोर्ट में किया है। इस कचरे की वजह से भोपाल और उसके आसपास का पर्यावरण और विशेषकर भूजल दूषित हो रहा है।
जब औद्योगिक कचरे के निपटान में अब तक ऐसी अक्षम्य लापरवाही बरती जा रही है, तो वैसे मामलों मे सरकारों से क्या उम्मीद की जा सकती है, जो चर्चा का विषय नहीं बन पाते।
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