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नव-उदारवाद की वृद्धि के ख़तरे

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प्रभात पटनायक

फ्रांसीसी अर्थशास्त्री ‘जेबी से’ यह मानते थे कि किसी अर्थव्यस्था में सकल मांग की तो कोई समस्या कभी हो ही नहीं सकती है और जो कुछ भी पैदा होता है, उसकी तथ्यत: मांग होती ही है। बेशक, यह तो मुमकिन है कि कभी जरूरत से ज्यादा सेफ्टी पिनें बन जाएं या ब्लेड जरूरत के मुकाबले में कम पड़ जाएं, लेकिन ऐसी जमीनी असंगतियों को छोड़ दिया जाए तो, समग्रता में सकल उत्पाद के लिए, मांग के कम रह जाने की स्थिति कभी नहीं होगी।

यह दावा, जिसे अर्थशास्त्र में ‘से का नियम’ के रूप में जाना जाता है, जाहिर है कि एक बेतुकी बात है, क्योंकि अगर यह नियम सच होता तो कभी अधि-उत्पादन का संकट पैदा ही नहीं हो सकता था। मार्क्स ने से के नियम की अच्छी लानत-मलामत की थी और 1930 के दशक में जेएम केन्स और मिखाल कलेखी ने भी अलग-अलग किंतु करीब-करीब एक साथ, इस नियम की तार्किक असंगतता साबित की थी। फिर भी पूंजीवादी अर्थशास्त्र ने, जो पूंजीवाद के संचालन में किन्हीं खोटों की बात स्वीकार करना ही नहीं चाहता है, तरह-तरह की सैद्धांतिक तिकड़मों के जरिए, जिनका कोई वैज्ञानिक वजन होता ही नहीं है, से के नियम को फिर से स्थापित करने की तमाम कोशिशें की हैं।

देशों के बीच चूहा दौड़

यहां इस सब को याद करने का कारण यह है कि मुक्त व्यापार के पक्ष में हरेक दलील से के नियम की वैधता को मानकर चलती है। वास्तव में, अगर प्रकटत: नहीं तो निहितार्थत: से के नियम को प्रदत्त मानने के जरिए, इस तरह की दलील यह मानकर चलती है कि सभी अर्थव्यवस्थाओं में व्यापार से पहले और व्यापार के बाद में, पूर्ण रोजगार होता है। इस स्थिति में व्यापार तो सिर्फ इतना करता है कि हरेक देश में उसके तमाम संसाधनों को पूरी तरह से काम में लगाए रखते हुए, यह विश्व उत्पाद बढ़ा देता है क्योंकि इसके तहत हरेक देश एक ऐसे क्षेत्र में विशेषीकरण कर रहा होता है, जिस क्षेत्र में उसे ‘तुलनात्मक बढ़त’ हासिल होती है। और इसका नतीजा यह होता है कि मुक्त व्यापार, सभी देशों के लिए फायदेमंद होता है।

लेकिन, यह प्रस्थापना जाहिर है कि गलत है और इसके गलत होने के कारणों में एक कारण यह भी है कि से का नियम ही गलत है। पूंजीवादी देश, घरेलू मांग की तंगी के चलते, आम तौर पर संसाधनों का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते हैं और यह समग्रता में विश्व अर्थव्यवस्था के लिए भी सही है। अगर समग्रता में विश्व अर्थव्यवस्था मांग बाधित या डिमांड कंस्ट्रेन्ड है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अगर कोई एक अर्थव्यवस्था व्यापार के जरिए अपने उत्पाद तथा रोजगार का स्तर ऊपर उठा लेती है, तो संबंधित देश में इस वृद्धि के समकक्ष के रूप में, किसी अन्य देश के उत्पाद तथा रोजगार में कमी हो रही होगी। उस सूरत में इसका अर्थ यह हुआ कि मुक्त व्यापार, सभी के लिए लाभदायक होने के बजाए, देशों के बीच एक की ‘चूहा दौड़’ कराता है, जिसमें हरेक देश दूसरे की कीमत पर बेचने की कोशिश कर रहा होता है।

नैतिक रूप से आपत्तिजनक रणनीति

इसलिए, नव-उदारवाद की वृद्धि की रणनीति बुनियादी तौर पर नैतिक रूप से अस्वीकार्य है। यह रणनीति तीसरी दुनिया के देशों को एक-दूसरे से लड़ने के लिए मजबूर करती है, जोकि बुनियादी तौर पर एक पूंजीवादी रणनीति ही है। जिस तरह पूंजीवाद मजदूरों को एक-दूसरे से होड़ करने के लिए मजबूर करता है (जब तक कि वे पूंजीपतियों की इच्छाओं के खिलाफ ट्रेड यूनियनों में एकजुट नहीं हो जाते हैं और इसके बावजूद, बारोजगारों और बेरोजगारों के बीच होड़ तो कभी थमती ही नहीं है), उसी प्रकार नव-उदारवादी पूंजीवाद तीसरी दुनिया के देशों को आपस में होड़ करने के लिए मजबूर करता है। इन देशों के लिए, जिन्होंने अपने-अपने उपनिवेशविरोधी संघर्षों के दौरान एकता तथा एकजुटता की एक भावना विकसित की थी और जिन्हें आज भी साम्राज्यवाद का मुकाबला करने के लिए आपस में एकजुटता बनाए रखने की जरूरत है–और यह इस बुनियादी तथ्य के ऊपर से है कि मानवता को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए तथा फलने-फूलने के लिए, आपसी सहयोग की जरूरत है न कि आपसी होड़ की–नव-उदारवादी पूंजीवाद द्वारा यह जो दबाव डाला जा रहा है, ठीक उल्टी दिशा में है और यह नैतिक रूप से आपत्तिजनक है।

इसके अलावा एक और कारण भी है कि क्यों मुक्त या निर्बाध व्यापार पर आधारित वृद्धि रणनीति नैतिक रूप से आपत्तिजनक हो जाती है। हम नव-उदारवाद के अपने अनुभव से यह जान चुके हैं कि व्यापार पर लगी पाबंदियों का हटाया जाना अनिवार्य रूप से पूंजी प्रवाहों पर लगी पाबंदियां भी हटाए जाने के साथ जुड़ा होता है। अन्यथा अनेक देशों के लिए अपने चालू खाता घाटों के लिए वित्त जुटाना ही असंभव हो जाएगा। लेकिन, पूंजी प्रवाहों से पाबंदियां हटाना देश के दरवाजे वैश्विक वित्तीय प्रवाहों के भंवर के लिए खोल देता है और इस तरह उसके राज्य को कमजोर कर देता है और वह अपनी अर्थव्यवस्था में रोजगार तथा उत्पाद का स्तर ऊपर उठाने में पूरी तरह से असमर्थ हो जाता है।

इस तरह लोगों का जीवन स्तर, ऐसी निर्वेयक्तिक ताकतों पर निर्भर हो जाता है, जो उनके काबू से बाहर होती हैं और जो वैश्विक मांग के सकल स्तर से निर्धारित होती हैं। उपनिवेश-विरोधी संघर्ष का यह वादा रहा है कि निरुपनिवेशीकरण के बाद लोग खुद अपनी आर्थिक नियति तय करेंगे और यह करेंगे जनतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार के जरिए, जो उनकी आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करती होगी। लेकिन, अगर अर्थव्यवस्था निर्वेयक्तिक तरीके से अपनी ही अंतर्निहित प्रवृत्तियों से संचालित होती है और अगर लोग, उस राजनीति के जरिए जिस पर उनका कुछ न कुछ नियंत्रण हो, अपनी आर्थिक जिंदगियों को प्रभावित ही नहीं कर सकते हैं, तब यह तो औपनिवेशिक जमाने की ही तरह, उनकी अस्वतंत्रता का बना रहना ही हो गया। इतना ही नहीं, यह पूरी की पूरी व्यवस्था तो उन्हें ऐसे ‘व्यक्तियों’ के बजाए, जिनका अपनी नियति पर नियंत्रण हो, महज ऐसी ‘वस्तुओं’ में घटा देती है जो बाजारों के रहमो-करम के आसरे होंगी; यह अपने आप में नैतिक रूप से बहुत ही आपत्तिजनक है।

निर्बाध व्यापार रणनीति आर्थिक स्तर पर भी हीनतर है

लेकिन, से के नियम की अवैधता का अर्थ इससे आगे तक जाता है। तमाम नैतिक आपत्तियों को अगर अलग भी रख दिया जाए, आर्थिक स्तर पर भी निर्बाध व्यापार पर आधारित वृद्धि रणनीति, घरेलू बाजार के विस्तार पर आधारित रणनीति के मुकाबले साफ तौर पर हीनतर है। यदि विश्व अर्थव्यवस्था मांग बाधित है, तो ऐसा इसीलिए हो रहा होगा कि उसके अंतर्गत आने वाली अलग-अलग अर्थव्यवस्थाएं (जरूरी नहीं है कि उनमें सब की सब) मांग बाधित हों। और आम तौर पर ऐसा रहा है कि समग्रता में तीसरी दुनिया, नव-उदारवादी राज के दायरे में, सकल मांग की अपर्याप्तता से बाधित रही है। इसलिए, इसका अर्थ यह हुआ कि सकल मांग को ऊपर उठाने में शासन का हस्तक्षेप, समग्रता में तीसरी दुनिया को इस अर्थ में कहीं बेहतर बना सकता है कि वहां रोजगार का टाइम प्रोफाइल तथा उत्पाद, निर्बाध व्यापार द्वारा पहचाने जाने वाले वृद्धि पथ के मुकाबले कहीं बढक़र होगा।

यहां तीन सावधानियां जोड़ने की जरूरत है। पहली तो यह कि हमने तीसरी दुनिया की बात सामग्रता में की है। इसमें कोई शक नहीं है कि तीसरी दुनिया की इस श्रेणी में ऐसे देश भी हो सकते हैं, जो अपनी निर्यात मुहिम में इतने ज्यादा सफल हों तथा इसलिए उनका रोजगार का टाइम प्रोफाइल तथा उत्पाद पहले ही इतना ज्यादा हो चुका हो कि उनमें, शासन द्वारा मुद्रास्फीति पैदा किए बिना सकल मांग को बढ़ाए जाने की और कोई गुंजाइश ही नहीं हो। लेकिन, कुछ देशों की इस सफलता को, अन्य देशों की इस मामले में विफलता को नहीं ढांपना चाहिए। और इन देशों की इस सफलता को, पूंजीवादी अर्थशास्त्र अपरिहार्य रूप से जो दिखाने की कोशिश करता है उसके विपरीत, शेष तीसरी दुनिया में दोहराना उसी तरह से संभव नहीं है, जैसे किसी एक व्यक्ति की लाटरी लग जाने को, लाटरी में हिस्सा लेने वाले दूसरे सभी लोगों द्वारा नहीं दोहराया जा सकता है।

दूसरे, तीसरी दुनिया के अंदर की ये ‘सफलता गाथाएं’ भी प्रातिनिधिक रूप से राजकीय हस्तक्षेप का नतीजा होती हैं, सकल मांग को बढ़ाने में नहीं बल्कि निर्यात प्रदर्शन को बढ़ावा देने के लिए राजकीय हस्तक्षेप का नतीजा। इससे बहुत से लोग यह तर्क देते हैं कि तीसरी दुनिया के शासनों को, अपनी अर्थव्यवस्थाओं के निर्यात प्रदर्शन को बढ़ाने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए और चीजों को ‘मुक्त व्यापार’ के काम करने के भरोसे ही नहीं छोड़ देना चाहिए। दूसरे शब्दों में वे नव-उदारवादी रणनीति की नहीं बल्कि नव-वाणिज्यवादी रणनीति की पैरवी करते हैं। लेकिन, जब समग्रता में विश्व अर्थव्यवस्था मांग बाधित है, अगर कोई देश नव-वाणिज्यवादी मुहिम के जरिए अपने निर्यातों को बढ़ाने में कामयाब भी हो जाता है तब भी, यह कामयाबी अनिवार्य रूप से किसी और देश की कीमत पर ही हासिल की जा रही होगी। इसलिए, यह सलाह भी समग्रता में तीसरी दुनिया के लिए, नैतिक रूप से आपत्तिजनक भी है और आर्थिक रूप से सबके लिए मिलकर हासिल करने के लिहाज से असंभव भी है।

अंतर्मुखी रणनीति

तीसरे, तीसरी दुनिया के अनेक देशों का उत्पाद, उनके सारे संसाधनों का उपयोग हो रहा होता तो जितना हो सकता था, उससे नीचे ही बना रहता है। लेकिन, इन देशों के मामले में अगर राज्य के हस्तक्षेप के जरिए सकल मांग का स्तर तथा इसलिए रोजगार तथा उत्पाद का भी स्तर बढ़ाया जाता है, तो विदेशी मुद्रा की तंगी पैदा हो जाएगी। इससे किसी को ऐसा लग सकता है कि निर्यातों को बढ़ावा देने की रणनीति को छोड़कर, इन देशों के लिए दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है, सिर्फ घरेलू मांग को बढ़ाना काम नहीं करेगा। बहरहाल, नव-उदारवादी व्यवस्था में, निर्यातों को बढ़ावा देने का जाना-पहचाना उपाय होता है, विनिमय दर का अवमूल्यन। लेकिन, विनिमय दर के अवमूल्यन से आयातित लागत सामग्रियों की घरेलू बाजार में कीमतें बढ़ जाती हैं और इसमें तेल जैसे आवश्यक लागत माल भी शामिल हैं। और अगर कीमतों में इन बढ़ोतरियों को अंतिम उत्पादों के दाम की ओर आगे खिसका दिया जाता है, तो मुद्रास्फीति पैदा हो जाएगी। इसलिए, नव-उदारवाद के अंतर्गत सामान्य तौर पर होता यह है कि विनिमय दर में अवमूल्यन के होते हुए भी, मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए, मजदूरों की मुद्रा मजदूरी में कटौती की जाती है या फिर उसे श्रम उत्पादकता की संगति में बढ़ने से रोका जाता है। लेकिन, मजदूरों पर हमला मंजूर नहीं किया जा सकता है। और अगर राज्य, अमीरों के उपभोग में आने वाली भांति-भांति की ऐशो-आराम की उपभोक्ता वस्तुओं के आयातों पर नियंत्रण लगाने में कामयाब रहता है, मजदूरों पर इस तरह के हमले की जरूरत ही नहीं रह जाएगी।

इसलिए, यह पूरी तरह से संभव है कि घरेलू स्तर पर सकल मांग को बढ़ाने में शासन के हस्तक्षेप के जरिए, रोजगार तथा उत्पाद को बढ़ाया जाए और इस प्रक्रिया में विदेशी मुद्रा की जो भी तंगी पैदा होती है, उस पर व्यापार नियंत्रण लगाने के जरिए (और जाहिर है कि पूंजी नियंत्रणों के भी जरिए) काबू पाया जाए। इस तर्क को ऐसे देशों के मामले में भी लागू किया जा सकता है, जो विदेशी ऋण के बोझ के दबाव में हों। ऐसेे देशों को कुछ ऋणों को, अन्य ऋणों पर प्राथमिकता देनी होगी और सभी ऋणदाताओं से राहत मांगने के लिए कोई आम समझौता करने के बजाए, पहले कुछ ऋणों को चुकता कर देना होगा और उसके बाद बाकी ऋणों की ओर रुख करना होगा।

लेकिन, ‘अंदर की ओर’ देखने की ऐसी रणनीति का, वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी द्वारा उसके पीछे खड़ी प्रभुत्वशाली ताकतों द्वारा विरोध किया जाएगा। लेकिन, जैसाकि हम पीछे देख पाए हैं, उनका समूचा ‘‘सिद्धांत’’ और इस सिद्धांत के आधार पर उनके द्वारा दिया जाने वाला कृपालु नजर आने वाला परामर्श, पूरी तरह से गलत है क्योंकि विश्व अर्थव्यवस्था वैसी है ही नहीं, उसके जैसी होने की वे कल्पना करते हैं। से का नियम लागू ही नहीं होता है और विश्व अर्थव्यवस्था, मांग बाधित है। इसलिए, तीसरी दुनिया के सभी देशों की प्राथमिकता, चाहे वे ऐसा अलग-अलग करें या आपस में मिलकर करें, यही होनी चाहिए मांग की बाधा से उबरें, ताकि रोजगार तथा उत्पाद को बढ़ा सकें और विदेशी मुद्रा के उपयोग को नियंत्रित करें।

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