मार्क्सवादी खेमे के लोग आमतौर पर फासीवाद को, वित्तीय पूंजी के सबसे प्रतिक्रियावादी, अंध राष्ट्रवादी तथा साम्राज्यवादी तत्वों की नंगी आतंकवादी तानाशाही मानते हैं।
अब लोग यह मानने लगे हैं कि नव फासीवादी प्रवृत्तियां आज सारे विश्व में उभर रही है। नव उदारवादी वैश्विक व्यवस्था के वर्तमान चरण में फासीवाद की ये जो प्रवृत्तियां उभर रही है उसका कारण वैश्विक वित्तीय पूंजी का संकट है।
भारत के संदर्भ में इसे ‘कॉर्पोरेट-हिंदुत्व’ गठजोड़ के रूप में प्रगतिशील राजनीतिक व्याख्या में लिया जाता है। यहां यह ध्यान देना चाहिए कि जिसे हम हिंदुत्व कहते हैं, उसकी ऐतिहासिक दिशा आधुनिकता और लोकतंत्र विरोधी रही है।
इसका मतलब यह नहीं है कि दुनिया भर में जहां भी फासीवादी प्रवृत्तियां उभर रही है वहां इस तरह का तत्व होना आवश्यक ही हो। यह सभी लोगों को मालूम है कि भारतीय राजनीति में हिंदू धर्म से अलग हिंदुत्व का प्रयोग सावरकर ने किया था जो कि आधुनिक यूरोपीय राष्ट्रवाद का ही भारतीय संस्करण है।
जो यूरोप में वेस्टफेलिया के समझौते के बाद उभरा एक सुपरिभाषित क्षेत्रीय विस्तार, संकीर्ण पहचान और एक भाषा की एकता पर आधारित है। हिंदुत्व की अवधारणा में ऊंच-नीच, भेदभाव, स्त्री विरोध, पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचे की भावना निहित है। जो कि रूढ़िवादी हिंदू सामाजिक व्यवस्था में अभिशाप के रूप में मौजूद है।
इसलिए नव फासीवादी राजनीति की धुरी कॉर्पोरेट-हिंदुत्व गठबंधन के खिलाफ लड़ाई को बदतरीन होती आर्थिक स्थिति और पतित विषाक्त हिंदुत्व के खिलाफ भी केंद्रित करना होगा जो समाज में श्रेणीबद्ध असमानता और सांस्कृतिक, सामाजिक दासता बनाए रखना चाहती है।
भारत की जनता को न्याय और बहुलता के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।
दुनिया तेजी से बदल रही है। हमको व्यापक जनता से जुड़ने के लिए नई शब्दावली और नए तौर तरीके अपनाने होंगे। हमें आरएसएस-बीजेपी गठबंधन की विभाजनकारी, फासीवादी राजनीति के खिलाफ विपक्ष के मुख्य दलों से सहयोग और संघर्ष में उतरना पड़ेगा।
महज यह कहना कि हम जमीनी स्तर पर जुझारू संघर्ष चलाएंगे पर्याप्त नहीं है। हमें आमजन की एक गतिमान राजनीति की जरूरत है। मौजूदा शासक गुट की राजनीतिक अर्थनीति (Political economy) को निशाने पर लेकर इस राजनीतिक लक्ष्य की ओर बढ़ा जा सकता है।
राष्ट्रीय संवाद संकल्प में सबके लिए भोजन का अधिकार, मुफ्त स्तरीय स्कूली शिक्षा का अधिकार, बेहतर मुफ्त स्वास्थ्य का अधिकार, बुजुर्ग और विकलांगों के लिए पेंशन का अधिकार, युवाओं के लिए सम्मानजनक रोजगार, जीवनयापन लायक मजदूरी, आवासीय योजनाएं, किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और सहकारीकरण की व्यवस्था, 1991 में बने पूजा स्थल संबंधी अधिनियम को लागू करना, अनुसूचित जाति-जनजाति तथा समाज के वंचित तबकों के लिए उपयुक्त वित्तीय आवंटन, राष्ट्रीय संप्रभुता और लोकतंत्र की पुनर्स्थापना, पर्यावरण की सुरक्षा, भाषाई, निर्जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा जैसे मुद्दे हो सकते हैं।
इन मांगों की आर्थिक पूर्ति के लिए उच्च धनिकों के ऊपर संपत्ति और उत्तराधिकार कर लगाने की मांग उठानी होगी।
मौजूदा आर्थिक नीति जो कि सेवा आधारित उद्योग और विदेश से निर्भरता पर टिकी हुई है, का वैकल्पिक मॉडल तैयार करना होगा। हमें एक ऐसी आर्थिक नीतियों के निर्माण पर जोर देना होगा जो कि पर्यावरण की रक्षा करती हो, आत्मनिर्भर हो।
हमें समता मूलक विकास पर जोर देना होगा, जो राष्ट्रीय संपत्ति और आर्थिक प्रगति के लाभ को समाज के सभी तबकों तक पहुंचाएं। भारत को तकनीकी सेवा देने की जगह तकनीकी और पूंजी निर्माण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना होगा।
बातचीत और समझदारी के लिए अच्छे वातावरण का निर्माण करना होगा। राजनीति की समकालीन चुनौतियों से निपटने के लिए अलग-थलग पड़े छोटे समूह के गठबंधन की जगह विभिन्न लोकतांत्रिक राजनीतिक शक्तियों का एक व्यापक मंच बनाना वक्त की जरूरत है।
(अखिलेन्द्र प्रताप सिंह (एआईपीएफ) ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के संस्थापक सदस्य हैं।)
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