अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

शायरी और गजल के शिखर फनकार मिर्जा गालिब

Share

ललित गर्ग

मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान, जो अपने तख़ल्लुस ग़ालिब से जाने जाते हैं, उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के एक महान शायर थे। इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक एवं सार्वदैशिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय बनाने वाले वे एक महान् फनकार थे। हर मोहब्बत करने वाला आशिक मिर्जा गालिब के शेर, शायरी और गजल जरूर पढ़ता है। हर कोई उनकी शायरी का कायल है। मिर्जा ग़ालिब सर्व-धर्म-सद्भाव एवं मानवीय चेतना के चितेरे थे एवं गहन संवेदनाओं के शिखर सृजनकार थे। ग़ालिब का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक एवं बहुआयामी था। ग़ालिब में जिस प्रकार शारीरिक सौंदर्य था, उसी प्रकार उनकी प्रकृति में विनोदप्रियता तथा वक्रता भी थी और ये सब विशेषताएं उनकी कविता एवं शायरी में यत्र-तत्र झलकती रहती हैं। चिन्ताओं से संघर्ष में इनकी सहायक एक तो थी शराब, जिन्दगी के अंतिम समय में जुए की लत भी लग गई। उन्हें शुरू से शतरंज और चौसर खेलने की आदत थी। अक्सर मित्र-मण्डली जमा होती और खेल-तमाशों में वक्त कटता था। अपने मदिरा प्रेम के कारण जो भाव प्रकट किए हैं, वे शेर ऐसे चुटीले तथा विनोदपूर्ण हैं कि उनका जोड़ उर्दू कविता में अन्यत्र नहीं मिलता। गालिब ने शायरी और गजल को एक नया रूप दिया। गालिब के पहले गजल को केवल प्रेम के संदर्भ में देखा जाता है लेकिन उन्होंने गजल में ही जीवन के दर्शन और रहस्यों को दर्शाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपनी शायरी के कारण वे न सिर्फ हिन्दुस्तान बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर हैं। आज भी उनका नाम बड़े अदब के साथ लिया जाता है।
गालिब की प्रारम्भिक शिक्षा के बारे में स्पष्टतः कुछ कहा नहीं जा सकता। उन्होंने अधिकतर फारसी और उर्दू में पारम्परिक मानवीयता, भक्ति और सौन्दर्य रस पर रचनायें लिखी। उन्होंने फारसी और उर्दू दोनो में पारंपरिक गीत काव्य की रहस्यमय-रोमांटिक शैली में सबसे व्यापक रूप से लिखा और यह गजल के रूप में जाना जाता है। उनकी शायरियों में गहन साहित्य और क्लिष्ट भाषा का समावेश था। उन्होंने अपनी शायरी का बड़ा हिस्सा असद के नाम से लिखा है। गालिब हिंदुस्तान में उर्दू अदबी के दुनिया के सबसे रोचक किरदार थे। उनकी जड़ें तुर्क से थीं। वे फारसी कविता को भारतीय भाषा में लोकप्रिय करने में माहिर थे, उन्हें पत्र लिखने का बहुत शौक था। इसीलिए उन्हें पत्र-पुरोधा भी कहा जाता था। आज भी उनके पत्रों को उर्दू साहित्य मंे एक अहम विरासत माना जाता है। मिर्जा गालिब ने 11 वर्ष की छोटी उम्र में ही अपनी पहली कविता लिखी थी। मिर्जा गालिब की मातृभाषा उर्दू थी लेकिन तुर्की और फारसी भाषाओं पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। उन्होंने अरबी, फारसी, दर्शन और तर्कशक्ति का भी अध्ययन किया था।
गालिब इश्क को जीते थे। वह इश्क का आखिरी छोर थे। उनकी नज्में और शेर ने सालों साल इश्क की तहजीब दुनिया को दी है। अगर हम यूं कहें कि इश्क गालिब से शुरू होता है तो यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। उनका हर शेर एक जिंदादिल आशिक की तरह इश्क की रस्मों को निभाता है। उनका जीवन संघर्ष से भागते या पलायन करते हुए नहीं बिता और न इनकी कविता एवं शायरी में कहीं निराशा का नाम है। वह इस संघर्ष को जीवन का एक अंश तथा आवश्यक अंग समझते थे। मानव की उच्चता तथा मनुष्यत्व को सब कुछ मानकर उसके भावों तथा विचारों का वर्णन करने में वह अत्यन्त निपुण थे और यह वर्णनशैली ऐसे नए ढंग की है कि इसे पढ़कर शताब्दियों बाद भी पाठक मुग्ध हो जाता है।
मिर्ज़ा का जीवन अनेक विलक्षणताओं एवं विशेताओं का समवाय था। उनके विषय में पहली बात तो यह है कि वह अत्यन्त शिष्ट, शालीन एवं मित्रप्रेमी थे। जो कोई उनसे मिलने आता, उससे खुले दिल से मिलते थे। इसीलिए जो आदमी एक बार इनसे मिलता था, उसे सदा इनसे मिलने की इच्छा बनी रहती थी। मित्रों के प्रति अत्यन्त वफ़ादार थे। उनकी खुशी में खुशी, उनके दुःख में दुःखी। मित्रों को देखकर बाग़-बाग़ हो जाते थे। उनके मित्रों का बहुत बड़ा दायरा था। उसमें हर जाति, धर्म और प्रान्त के लोग थे। वैसे वे शिया मुसलमान थे, पर मज़हब की भावनाओं में बहुत उदार और स्वतंत्र चेता थे। ग़ालिब सदा किराये के मकानों में रहे, अपना मकान न बनवा सके। ऐसा मकान ज्यादा पसंद करते थे, जिसमें बैठकख़ाना जरूर हो और उनके दरवाज़े भी अलग हों, जिससे यार-दोस्त बेझिझक आ-जा सकें। खाने-खिलाने के शौक़ीन, स्वादिष्ट व्यंजनों के प्रेमी थे। उन्हें हम स्नेह एवं मित्रता की छांह देने वाले बरगद कहे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
हर जुबां का वो आसरा…उसके दिल में धड़कता था आगरा… उनका जन्म आगरा में 27 दिसंबर 1797 को एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। उनका पूरा बचपन ताजनगरी में ही बीता। गालिब की पृष्ठभूमि एक तुर्क परिवार से थी और इनके दादा मिर्जा कोबान बेग खान मध्य एशिया के समरकन्द से सन् 1750 के आसपास अहमद शाह के शासन काल में भारत आये। उन्हांेने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गये। जवानी के दहलीज पर कदम रखते ही वह दिल्ली चले आए। यहां जाने के बाद भी ताउम्र मिर्जा गालिब के दिल व दिमाग में आगरा छाया रहा। आगरा में गालिब के जन्मस्थान को “इन्द्रभान कन्या अन्तर महाविद्यालय” में बदल दिया गया है, जिस कमरे में गालिब का जन्म हुआ था उसे आज भी सुरक्षित रखा गया है। दिल्ली के चांदनी चौक के बल्लीमारान इलाके के कासिम जान गली में स्थित गालिब के घर को “गालिब मेमोरियल” में तब्दील कर दिया गया।
बहादुर शाह जफर द्वितीय ने 1850 ई. में गालिब को “दबीर-उल-मुल्क” और “नज्म-उद-दौला” की उपाधि प्रदान की थी। इसके अलावा बहादुर शाह जफर द्वितीय ने गालिब को “मिर्जा नोशा” की उपाधि प्रदान की थी, जिसके बाद गालिब के नाम के साथ “मिर्जा” शब्द जुड़ गया। तबियत से खुद एक शायर बहादुर शाह जफर द्वितीय ने कविता सीखने के उद्देश्य से 1854 में गालिब को अपना शिक्षक नियुक्त किया था। बाद में बहादुर शाह जफर ने गालिब को अपने बड़े बेटे “शहजादा फखरूदीन मिर्जा” का भी शिक्षक नियुक्त किया था। इसके अलावा गालिब मुगल दरबार में शाही इतिहासविद के रूप में भी काम करते थे। साल 1847 में जुआ खेलने के जुर्म में गालिब को जेल भी जाना पड़ा था और उन्हें 200 रूपए जुर्माना और सश्रम कारावास की सजा दी गई थी। एक मुसलमान होने के बावजूद गालिब ने कभी रोजा नहीं रखा। मुसलमान होने के प्रश्न पर एक अंग्रेज कर्नल को जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि मैं आधा मुसलमान हूं। ये जवाब सुनकर अंग्रेज कर्नल ने अगला सवाल दागा और पूछा कि ऐसा कैसे कि आप आधे मुसलमान हैं? इसके जवाब में मिर्जा गालिब ने कहा, हां, क्योंकि मैं शराब तो पीता हूं लेकिन सुअर नहीं खाता। मिर्जा गालिब का यह जवाब सुनकर अंग्रेज कर्नल अपनी हंसी नहीं रोक पाया। एक बार गालिब आम खा रहे थे। जमीन पर छिलके जमा कर रखे थे। वहां खड़े एक व्यक्ति ने उन छिलकों को अपने गधे को खाने के लिए दिया। गधे ने उन छिलकों को खाने से इंकार कर दिया। इस पर सज्जन व्यक्ति ने गालिब का मजाक उड़ाते हुए कहा कि ‘गधे भी आम नहीं खाते हैं।’ इस पर गालिब ने अपनी हाजिर जवाबी का परिचय देते हुए कहा कि ‘गधे ही आम नहीं खाते हैं।’
मिर्जा गालिब का एक बहुत मशहूर शेर है ‘ये इश्क नहीं आसान, बस इतना समझ लीजिये, इक आग का दरिया है और डूबकर जाना है।’ न जाने गालिब ने किन परिस्थितियों में ये शेर गढ़ा होगा। लेकिन ऐसा लगता है कि इश्क पर जो पहरा उस सदी में था वह आज इक्कीसवीं सदी के ग्लोबल इंडिया में भी है। जिंदगी जीने के तमाम तरीके भले ही बदल गए हों, लेकिन प्यार मोहब्बत को देखने का हमारा पारिवारिक-सामाजिक-धार्मिक नजरिया आज भी सदियों पुराना है। मिर्जा गालिब ने बेहतरीन शेर लिखे हैं- इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा, लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं। दरअसल मिर्जा गालिब अपनी हाजिर जवाबी के लिए मशहूर थे। इस दौरान भी इश्क ने ‘गालिब’ निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के। मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यूं रात भर नहीं आती…। गालिब की जिंदगी संघर्षों से भरी रही, उन्होंने अपनी जिंदगी में अपने कई अजीजों को खोया। अपनी जिंदगी गरीबी में गुजारी। इसके बावजूद गालिब के शेर ने लोगों के दिलों को छुआ। गालिब 15 फरवरी 1869 को इस दुनिया से अलविदा कह गए।

Add comment

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें