स्कूल में प्रार्थना की जगह भारतीय संविधान की प्रस्तावना का पाठ करें और स्कूल के प्रवेशद्वार पर इस प्रस्तावना को प्रमुखता से दिखाएंकैथलिक मिशनरियों के फैसले का स्वागत इस लिहाज से जरूर होना चाहिए कि उन्होंने अपने ऊपर हो रहे हमलों के विरोध के लिए आधुनिक और प्रगतिशील रास्ता चुना है। किसी कट्टरपंथी और संकीर्ण खोल में घुस जाने की कोशिश नहीं की। उनके यहां आवाज भी उठ रही है कि संविधान की धारा 30 के तहत अल्पसंख्यकों को अपने स्कूल चलाने के अधिकार मिले हुए हैं। इसलिए RSS के दबाव में इस अधिकार को छोड़ने वाले कदम नहीं उठाए जाने चाहिए। लेकिन उन तबकों का भी कहना है संविधान की प्रस्तावना के पाठ का फैसला बेहतरीन है और यह हिंदू स्कूलों में भी किया जाना चाहिए।
अनिल सिन्हा
: भारत में कैथलिक ईसाइयों की सर्वोच्च संस्था कैथलिक बिशप कॉन्फ्रेंस की नई गाइडलाइंस से एक बड़ी बहस शुरू हो गई है। संघ परिवार के संगठन इस बात से खुश हैं कि उनके अभियान को पहली सफलता मिली है। वे आरोप लगाते रहे हैं कि मिशनरी स्कूल भारतीय धर्म और संस्कृति को नष्ट करने का काम करते हैं। बिशप कॉन्फ्रेंस ने कैथलिक मिशनरियों के स्कूलों से कहा है कि वे स्कूल में प्रार्थना की जगह भारतीय संविधान की प्रस्तावना का पाठ करें और स्कूल के प्रवेशद्वार पर इस प्रस्तावना को प्रमुखता से दिखाएं। इसमें यह निर्देश भी है कि एक प्रार्थनागृह बने, जो अंतरधार्मिक हो। बिशप कॉन्फ्रेंस का कहना है कि उनके अधिकतर छात्र अलग-अलग धर्मों से आते हैं और उनके लिए यह जरूरी है कि स्कूल में इसका ध्यान रखा जाए।
आधुनिक और प्रगतिशील
कैथलिक मिशनरियों के फैसले का स्वागत इस लिहाज से जरूर होना चाहिए कि उन्होंने अपने ऊपर हो रहे हमलों के विरोध के लिए आधुनिक और प्रगतिशील रास्ता चुना है। किसी कट्टरपंथी और संकीर्ण खोल में घुस जाने की कोशिश नहीं की। उनके यहां आवाज भी उठ रही है कि संविधान की धारा 30 के तहत अल्पसंख्यकों को अपने स्कूल चलाने के अधिकार मिले हुए हैं। इसलिए RSS के दबाव में इस अधिकार को छोड़ने वाले कदम नहीं उठाए जाने चाहिए। लेकिन उन तबकों का भी कहना है संविधान की प्रस्तावना के पाठ का फैसला बेहतरीन है और यह हिंदू स्कूलों में भी किया जाना चाहिए।
अकबर की परंपरा
सर्वधर्म प्रार्थना के आयोजन का फैसला भी गौर करने लायक है। यहां यह बता देना चाहिए कि इसकी परंपरा भी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के समय विकसित और मजबूत हुई। वैसे इसकी जड़ें सम्राट अकबर की फतेहपुर सीकरी में आयोजित उन अंतरधार्मिक संवादों में मिलती हैं, जिनमें सभी धर्मों के गुरुओं को बुलाया जाता था। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का कहना है कि जिस समय पश्चिमी जगत क्रूसेड यानी धर्मयुद्ध में लगा था, अकबर धर्मों के बीच संवाद कराने में मशगूल थे। आजादी आंदोलन के दौर में महात्मा गांधी ने अपनी प्रार्थना सभाओं को सर्वधर्म प्रार्थना का स्वरूप दे रखा था। एक बार किसी ने कुरान पढ़े जाने पर आपत्ति की तो उन्होंने तब तक प्रार्थना स्थगित रखी जब तक उस व्यक्ति ने खुद स्वीकृति नहीं दी।
फैसले की टाइमिंग
बिशप कॉन्फ्रेंस के इस फैसले का समय गौरतलब है। खुद कॉन्फ्रेंस ने कहा है कि स्कूलों को मौजूदा धार्मिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिस्थितियों के कारण आ रही चुनौतियों का सामना करना है। जाहिर है, कैथलिक संगठन ने गहरे दबाव में यह फैसला लिया है। निश्चित तौर पर यह दबाव पहले से रहा है और नए शासन के समय बढ़ गया है।
स्कूलों को अल्टिमेटम
पिछले दिनों पूर्वोत्तर के एक सांप्रदायिक संगठन ने मिशनरी स्कूलों को अल्टिमेटम दिया था कि पंद्रह दिनों के भीतर स्कूल धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल बंद कर दें। उन्होंने स्कूलों से जीसस की मूर्तियां हटाने को कहा था। क्या यह सवाल नहीं उठता कि भारत जैसे सेकुलर और लोकतांत्रिक देश में इस तरह के दबाव कितने सही हैं? दिलचस्प तो यह है कि मिशनरी स्कूलों से धार्मिक प्रतीकों को हटाने की मांग करने वाले संविधान की दुहाई देते हैं और इन प्रतीकों को संविधान विरोधी बताते हैं। लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के अपना स्कूल चलाने के अधिकार को वे भूल जाते हैं।
मिशनरी स्कूलों से पहले
देश में पश्चिमी शिक्षा की शुरुआत मिशनरी स्कूलों ने नहीं की। यहां मिशनरी स्कूल शुरू होने के पहले ही राजा राममोहन राय ने पश्चिमी शिक्षा देने के लिए 1817 में कोलकाता (उस समय कलकत्ता) में हिंदू कॉलेज की स्थापना की थी। बिशप कॉलेज की स्थापना 1820 में हुई। पश्चिमी शिक्षा के प्रसार की सरकारी कोशिश बहुत बाद में शुरू हुई। ईस्ट इंडिया कंपनी ने तो मिशनरी स्कूलों की स्थापना पर पाबंदी लगा रखी थी। उसे डर था कि स्कूलों के जरिए मिशनरी स्थानीय धर्म से छेड़छाड़ कर सकते हैं और जनता इससे नाराज हो सकती है। उसने मिशनरी स्कूल खोलने की इजाजत साल 1843 में दी और 1857 के बाद इनकी संख्या तेजी से बढ़ी।
रामकथा पर किया काम
गौर करने की बात है कि भारत के राष्ट्रवादी नायक हेनरी डेरोजियो बिशप कॉलेज के छात्र थे। उन्होंने यंग बंगाल आंदोलन के जरिए देशभक्ति का अलख जगाया। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जिनसे जाहिर होता है कि ईसाई या इस्लाम की शिक्षा राष्ट्रवादी होने से नहीं रोकती है। हाल के उदाहरणों में फादर कामिल बुल्के हैं, जो बेल्जियम में पैदा हुए थे और धर्म प्रचारक के रूप में भारत आए थे। रामकथा, तुलसी और वाल्मीकि पर उनका काम उन्हें अमर बना गया। भारतीय संस्कृति को फिर से खोजने में मिशनरी स्कूलों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
धर्मांतरण से जुड़ा भ्रम
एक और भ्रम का निवारण जरूरी है कि मिशनरी स्कूलों के जरिए धर्मांतरण संभव है। इसके उदाहरण हैं कि धर्मांतरण की अफवाह के कारण कुछ स्कूलों को बंद करने की नौबत आ गई और उन्हें इस धारणा को मिटाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। क्या इस देश के सामान्य लोग धर्मांतरण की कोशिश को बर्दाश्त कर सकते हैं? आज देश में कॉन्वेंट स्कूलों की बाढ़ आई हुई है। कैथलिक मिशनरियों के ही नियंत्रण में 14000 स्कूल हैं। हमने कभी नहीं सुना कि किसी स्कूली पढ़ाई के कारण धर्मांतरण हुआ। धर्मातरण के कई अन्य कारण रहे हैं। सबसे बड़ा कारण गरीबी है। कई बार शिक्षा, स्वास्थ्य और बेहतर जीवन की उम्मीद ने लोगों को धर्म बदलने के लिए प्रेरित किया है। मिशनरियों के सेवाभाव से भी लोग प्रभावित होते रहे हैं।
व्यवहार में दोहरापन
इसे भी समझना जरूरी है कि धर्मांतरण के विरोधियों के व्यवहार में एक दोहरापन है। अमेरिका और यूरोप में मंदिरों के निर्माण और दूसरे धर्म के लोगों के आने से वे आनंदित होते हैं, लेकिन भारत में चर्च या मस्जिदों को लेकर उनका रवैया एकदम अलग है। सवाल है कि क्या उनके इस रवैये के पीछे किसी खास राजनीतिक सोच की भूमिका है, जिसमें अल्पसंख्यक निशाने पर होते हैं।