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आप यहूदियों से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे गोएबल्स की मौत का शोक मनाएं?

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रोहित सरदाना की मौत पर पत्रकारों का तबका तीन धड़ों में बंट चुका है। एक संवेदना भेज रहा है, दूसरा आलोचना कर रहा है (कुछ लोगों को ये जश्न प्रतीत हो रहा है) और तीसरा आलोचना करने वालों की आलोचना कर रहा है यानी बैलेंस बनाने की कोशिश कर रहा है।

डियर बैलेंसवादियों, वैचारिक मतभेद के नाम पर समाज में जहर फैलाने वालों को डिफेन्ड कैसे कर लेते हो? दंगाइयों से कैसी वैचारिक असहमति? सिर्फ वैचारिक असहमति? क्या आपको नहीं लगता कि हर असहमत आवाज को देशविरोधी करार देने के मुहिम का खास हिस्सा था वो? ऐसों को तो महान मत बनाइए कम से कम। इतना बैलेंस मत बनाइए कि समाज में साँस लेना या जीना मुहाल हो जाए। इसे वैचारिक असहमति कहना, वैचारिकी की हत्या होगी, तार्किकता की हत्या होगी। आप लोगों से ये अधिकार मत छीनिए कि वे किसी को किस तरह से याद करेंगे।

2019 के लोकसभा चुनाव के बाद दंगल के ‘मुस्लिम-मुक्त भारत’ जैसे शो से प्रभावित होकर तुम्हारा पड़ोसी जो तुम्हारे हर सुख दुःख में साथ रहा हो और तुम उसके सुख दुःख में साथ रहे हो, अचानक एक दिन आकर तुम्हारे सामने तुम्हारे पिता जी से कहे कि मुझे तुम्हारा घर पसन्द है, जाते वक्त (पाकिस्तान) मुझे देकर जाना। ये सुनकर आप पर क्या गुजरेगी? ये वही वक़्त था जब सीएए और एनआरसी को लेकर देशव्यापी धरना-प्रदर्शन चल रहा था। ऐसी मानसिकता बनाने के जिम्मेदार क्या ये नहीं थे?

आपका दोस्त तुम्हारे सामने ग्रुप डिस्कशन में बेझिझक कह दे कि भारत को तो हिन्दू राष्ट्र ही होना चाहिए था, तो आप क्या महसूस करेंगे? पिछले साल हुए तब्लीग़ी जमात केस के समय तुम्हारे खास दोस्त तुमसे उसपर सफाई माँग रहे हों, तो तुम्हें कैसा लगेगा? क्या इन सब की मानसिकता बदलने में, उनमें ऐसे ज़हर भरने में क्या इनका बराबर का हाथ नहीं था?

जाकर खंगालिए ‘दंगल’ की हेडलाइन्स को, जिसकी सूची बहुत लंबी है। क्या वो किसी विचारधारा से प्रेरित हैं या साम्प्रदायिक मानसिकता से? रोहित सरदाना के ‘दंगल’ का सबसे बड़ा शिकार कौन था? उनकी इस जहरीली पत्रकारिता से कौन सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ? बीता साल ही याद करो जब ‘कोरोना जिहाद’ के नाम पर फल, सब्जियां बेचने वाले और फेरी करने वाले मुसलमानों को किस तरह प्रताड़ित किया जा रहा था। भारत में ऐसी जहरीली पत्रकारिता के कारण न जाने कितने मासूम लोग बेवजह मार दिए गए। धीरे-धीरे लोगों को हत्यारों की भीड़ में तब्दील करने का काम क्या इनके दंगल ने नहीं किया? इस्लामोफोबिया फैलाने के आधार पर हुई हत्या में क्या ये बराबर के साझीदार नहीं थे?

अब तुम शोषितों पर दबाव बना रहे हो कि वह शोषकों के लिए आँसू बहाएं। क्या तुम यहूदियों से यह उम्मीद कर सकते हो कि वे हिटलर के प्रचारमंत्री गोएबल्स की मौत पर दुःखी हों? नहीं न? ऐसे ही किसी समय के लिए या अपने अनुभव के आधार पर ‘पाश’ ने लिखा था:

मैंने उम्र भर उसके खिलाफ़ सोचा और लिखा है
अगर उसके शोक में सारा ही देश शामिल है
तो इस देश से मेरा नाम काट दो।


इसी बात को सआदत हसन मंटो कुछ इस तरह से लिखते हैं, कि:

मैं ऐसे समाज पर हजार बार लानत भेजता हूं जहां उसूल हो कि मरने के बाद हर शख्स के किरदार को लॉन्ड्री में भेज दिया जाए जहां से वो धुल-धुलाकर वापस आए।

एपीजे अब्दुल कलाम से तो शायद ही किसी को शिकायत रही होगी? वे तो वीणा भी बजाते थे, गीता का पाठ भी करते थे, सरस्वती पूजा में भी शामिल होते थे और सबसे अहम बात बीजेपी के समर्थन से राष्ट्रपति चुने गए थे। ऐसे शख्स तक को नहीं बख्शा गया, उन पर भी लांछन लगाया गया। उन्हें पाकिस्तानी और जिहादी कहकर संबोधित किया गया।

दीपक चौरसिया का ये ट्वीट जो शरजील के माध्यम से पूरी की पूरी कौम को टारगेट कर गद्दार साबित कर चुके हैं, क्या ये साम्प्रदायिकता को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं? क्या ये जेनोसाइड को उकसावा नहीं दे रहे? खुदा न करे ऐसा हो लेकिन कल को अगर दीपक चौरसिया की मृत्यु हो जाए और कोई शरजील उस्मानी इनके लिए भी ऐसा ही ट्वीट करता है तो क्या बैलेंसवादी कौम उसको भी ऐसे ही टारगेट करेगी?

शरजील उस्मानी का ट्वीट, जिसपर लोगों को लग रहा है कि उन्होंने कुछ गलत लिख दिया है आप स्वयं पढ़कर निर्णय लीजिए। जश्न जैसा कुछ दिखे तो इत्तला कीजिएगा। जो भी हो सरदाना का सत्य ऐसा ही कुछ है। “रोहित सरदाना आप पत्रकार के रूप में याद नहीं किए जाओगे”, प्रतीक सिन्हा का ये ट्वीट पढ़िए:

A note on the ad-hominem tweets targeting Sharjeel Usmani

दिलीप खान अपने फ़ेसबुक पेज पर लिखते हैं कि-

इन्हें जब भी याद किया जाएगा इनके कर्मों की वजह से किया जाएगा। इनके कर्म की वजह से ही हम इन्हें जानते हैं। आप चाहते हैं कि उनकी पहचान को छोड़कर बाकी चीजों पर बातें हों? वैचारिक असहमतियां होती हैं। जिनसे होती हैं, उनसे होती हैं। सुपारी किलर की तरह बर्ताव करने वाले टीवी एंकरों से असहमतियों का दौर लद गया। ये इंसानियत के दुश्मन हैं। इनके जीवित रहते या गुज़र जाने के बाद इन्हें याद करने के तरीके में कोई बदलाव नहीं होगा। और हां, ये जश्न नहीं है! क्या अब सच बोलने के लिए भी लोगों से सहमति लेनी पड़ेगी? कि कब, किस पर, क्या लिखना क्या है?

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