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महामारी की दूसरी लहर ला सकती है भयावह बेरोजगारी ला सकती है

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विजय शंकर सिंह

आर्थिकी के प्रभाव का अंदाज़ा तुरन्त नहीं होता है, बल्कि यह समय लेता है। मार्च 2020 के तीसरे हफ्ते में एक दिन का ताली थाली मार्का लॉक डाउन लगा था तो वह एक छुट्टी के उत्सव के समान लगा। लोग दिन भर टीवी के सामने खबरों का जायजा लेते रहे और शाम को पांच बजे ताली थाली पीटते नज़र आये। तब तक हम में से अधिकांश को यह अंदाज़ा तक नहीं था उस घटना के एक साल बाद ऐसी स्थिति आने वाली है कि लाशों को जलाने के लिये श्मशान में लकड़ियां और दफनाने के लिये कब्रिस्तान में ज़मीन कम पड़ने लगेगी। वैज्ञानिकों और मेडिकल एक्सपर्ट को आने वाली भयावहता का अंदाज़ा हो तो हो, पर हम में से अधिकांश नियति की इस आसन्न बर्बरता से लगभग अनभिज्ञ थे।

स्वास्थ्य सेक्टर में इस ज़ालिम वायरस ने क्या-क्या ज़ुल्म ढाए और आगे अभी कितनी लहरे शेष हैं, तबाही के कितने मंजर अभी अनदेखे हैं अभी, इन सब का अनुमान लगाना मुश्किल है। पर 2020 के मार्च के तीसरे हफ्ते से लगे लॉक डाउन ने जो कहर भारतीय अर्थव्यवस्था पर तब ढाए थे, देश की आर्थिकी अभी उससे ही नहीं उबर सकी थी कि, दूसरी लहर का लॉक डाउन फिर शुरू हो गया। देश की आर्थिक गिरावट का इतिहास मार्च 2020 से नहीं बल्कि नवम्बर 2016 की नोट बन्दी के समय से शुरू होता है। कोरोना ने जब दस्तक दी थी तो 31 मार्च 2020 को देश मे बेरोजगारी बुरी तरह से बढ़ गयी थी, जीडीपी 5% तक आ गयी थी, मैन्युफैक्चरिंग इंडेक्स शून्य तक आ गया था, असंगठित क्षेत्र तबाह हो गया था, अमीर और गरीब के बीच का अंतर बुरी तरह से बढ़ गया था, और इन सब व्याधियों के बीच 30 जनवरी, 2020 को यह वायरस भी आ चुका था।

पिछले साल, यानी 2020 में, आर्थिकी पर जिस खतरे का अनुमान अर्थ विशेषज्ञ लगा रहे थे, वह अब सामने आ गया है। देश में बेरोजगारी का जो आंकड़ा बढ़ा है, उसका सबसे बड़ा कारण है वेतनभोगी वर्ग की नौकरियों का खत्म होना या कम होना। यह वर्ग असंगठित क्षेत्र के लोगों की तुलना में अधिक आश्वस्त रहता है कि वेतन भले ही न बढ़े या कुछ भत्ते भले ही कम हो जाएं, पर नौकरियां तो कम से कम रहेंगी ही। ऐसा प्रोफेशनल लोगों की एक खास सोच के कारण होता है।

पहली लहर में, दफ्तर बंद हुए तो घरों से काम होने लगा और एक नयी कार्य संस्कृति का जन्म हुआ, जो शुरू में थोड़ी मजेदार लगी पर बाद में जब कंपनियों की आर्थिक स्थिति पर असर पड़ा तो इसका असर इस कार्य संस्कृति पर भी पड़ने लगा। हम सब जिसे एक तात्कालिक कार्य संस्कृति मान कर चल रहे थे और उसके खत्म हो जाने की उम्मीद लगा बैठे थे, वह धीरे धीरे मजबूरी में ही सही स्थायी होने लगी। और अब महामारी की दूसरी लहर का जो परिदृश्य है, उसमें इस बात का अंदाज़ा लगाना फिलहाल मुश्किल है कि, अर्थव्यवस्था, सामाजिक बिखराव, भावनात्मक क्षरण आदि, यह सब कब फिर से पटरी पर आयेगा और सुबह का सूरज अच्छी खबरों के साथ उगेगा।

नौकरियों में मंदी का जो सिलसिला है, वह अभी और बढ़ेगा क्योंकि सरकार की कोई भी स्पष्ट रोजगार नीति नहीं है। नौकरीपेशा समाज मूल रूप से समाज का मध्यवर्ग होता है, जो अपने ही ख्वाबगाह में खुद को बाहरी झंझावातों से महफूज समझता रहता है। आज बेरोजगारी दर बढ़ने की जो गति है वह आगे चल कर और बढ़ेगी। सरकार के पास ऐसे लोगों की नौकरियां बचाने की कोई सुगठित योजना नहीं है। इसी बीच दूसरी लहर का जो कर्फ्यू या लॉक डाउन शुरू हुआ है वह स्थिति को और भी खराब करेगा। सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की एक ताजी रिपोर्ट से पता चलता है कि, 2020 – 21 में 90 लाख 80 हजार नौकरियां घटी हैं। आंकड़ा मिलियन में है और यह संख्या 9.8 मिलियन की है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश भर में कुल 85.9 मिलियन नौकरियां 2019 – 20 में थी जो अब घट कर 76.2 मिलियन हो गयी है। यह नौकरियों की संख्या के आंकड़े हैं, नौकरियों के, वेतन और भत्तों में हुए संकुचन के नहीं है। वह स्थिति भी अच्छी नहीं होगी।

2014 के बाद सरकार ने ऐसी किसी नीति पर गम्भीरता से अमल ही नहीं किया जिससे देश मे बेरोजगारी की दर नियंत्रित हो। जबकि, सत्तारूढ़ दल के 2014 के संकल्प पत्र में 2 करोड़ नौकरियां प्रति वर्ष देने का वादा किया गया था। पर सरकार बन जाने के बाद कभी भी इस बिंदु पर सरकार ने गम्भीरता से विचार नहीं किया। नयी नौकरियों के सृजन और पुरानी नौकरियों के बनाये रखने के विंदु पर भी सरकार ने कुछ नहीं किया। जब बेरोजगारी बढ़ने लगी और लोग सवाल उठाने लगे तो सरकार ने बेरोजगारी के अधिकृत आंकड़े ही देने बंद कर दिए। जो नौकरियां इस अवधि में दी गयीं उनमें से भी अधिकतर संविदा और ऐड हॉक आधार पर दी गई।

इससे सरकार का बजट तो बचा पर नौकरियों और विभागों की गुणवत्ता भी प्रभावित हुयी। आज हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर में हेल्थकेयर स्टाफ का गुणवत्ता-ह्रास साफ साफ दिख रहा है। लम्बे समय से अस्पतालों में डॉक्टरों और पैरा मेडिकल स्टाफ की कमी है। पुलिस में सिपाहियों और एसआई की कमी है। अन्य विभागों में भी अधीनस्थ कर्मचारियों की कमी है। लेकिन सरकार ने इसे भरने के लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं किया। आज जब स्वास्थ्य और पुलिस सेवाओं पर इस आपदा के दौरान काम का बोझ बेतरह बढ़ा हुआ है तो सरकार इस आफत में शुतुरमुर्ग की तरह हो गई है। कोरोना की दूसरी लहर का असर देश मे हज़ारों लाखों कामगारों के जीवन स्तर पर भी पड़ा है। छिटपुट कर्फ्यू और अब लॉक डाउन के कारण एक अनुमान है कि, देश कि 57% आबादी, घरों मे बंद रहने को बाध्य हो गयी है।

वेतनभोगी कर्मचारियों पर आर्थिक संकट की मार न केवल शहरों में ही पड़ी है, बल्कि गांवों में भी पड़ी है। हालांकि लॉक डाउन और कर्फ्यू का असर शहरों में अधिक पड़ता है, अपेक्षाकृत ग्रामीण इलाक़ों के। लेकिन आर्थिक ज़रूरतों के दृष्टिकोण से दोनों ही एक दूसरे पर निर्भर हैं तो लॉक डाउन जन्य आर्थिक मंदी का असर दोनों ही झेलते हैं। बस अंतर यह होता है कि शहरों में यह असर प्रत्यक्ष दिखता है और गांव में परोक्ष रूप से नज़र आता है। साल 2019 – 20 के नौकरियों के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, शहरी क्षेत्र में कुल 58 % नौकरियां हैं। लेकिन सीएमआईई की रिपोर्ट जो इंडियन पोलिटिकल डिबेट में छपे एक लेख से ली जा रही है के अनुसार, वर्ष 2020 – 21 में शहरी क्षेत्र की नौकरियों के नुकसान का कुल प्रतिशत, 9.8 मिलियन नौकरियों जो 38 % बैठता है, हुआ है।अभी वर्तमान कालखंड में, आपदा की दूसरी लहर और इससे जुड़े लॉक डाउन की जैसी स्थिति है, इसमें इस बात की पूरी सम्भावना है कि शहरी क्षेत्रों में लोगों की और नौकरियां भी जा सकती हैं।

अब ग्रामीण क्षेत्रों की बात करते हैं। देहाती क्षेत्रों में कुल 42 % नौकरियां हैं, जिनमें से 62 % लोगों की नौकरियां साल 2020 – 21 में खत्म हो सकती हैं।  अगर संख्या के अनुसार देखें तो, यह संख्या 60 लाख ( 6 मिलियन ) नौकरियों के बराबर होतीं है। हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में नौकरियों की यह कमी, शहरी क्षेत्रों के अपेक्षाकृत कम है, लेकिन  बढ़ती बेरोजगारी के लिये यह एक खतरा तो है ही। 2020 में आयी पहली लहर की तुलना में 2021 में आयी इस दूसरी लहर का प्रकोप शहरों की बजाय कस्बों और गांवों में बहुत तेजी से हो रहा है। यूपी जहां हाल ही में पंचायत चुनाव हुए हैं वहां शायद ही कोई गांव ऐसा हो, जहां बीमारी से लोग मर न रहे हों। यही हाल उन 5 राज्यों का भी है, जहां हाल ही में विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हुए हैं। इसका एक काऱण देर और उहापोह से लिये गए कर्फ्यू और लॉक डाउन के निर्णय भी हैं। जो भी हो, आज जो स्थितियां बन रही हैं उससे बेरोजगारी और भुखमरी होने की भी आशंका है। सरकार इससे कैसे निपटती है यह भविष्य में ही पता चल पाएगा।

यहीं यह सवाल भी उठता है कि, कोविड 19 की पहली लहर में, जिनकी नौकरियां गयीं, उनका क्या हुआ ? इस संदर्भ में जब सीएमआईई की रिपोर्ट देखी गयी तो उससे पता चलता है कि उनमें से कुछ लोग कृषि कार्य की ओर उन्मुख हो गए। वे ग्रामीण क्षेत्रों के उन लोगों में शामिल हो गए, जो देहात क्षेत्रों में पहले से ही बेरोजगार थे, इनकी संख्या मोटे तौर पर 3 मिलियन बताई गयी है। इसकी पुष्टि कृषि क्षेत्र पर आश्रित लोगों की संख्या वृद्धि से भी होती है। अपनी पुरानी नौकरी गंवा कर कृषि क्षेत्र में प्रवेश का यह एक उल्लेखनीय मामला है, जिसका भार कृषि क्षेत्र पर पड़ा है। अगर कृषि क्षेत्र में भी रोजगार को लेकर कोई मंदी आती है तो, उस के सामने भी एक नयी समस्या खड़ी हो जाएगी। अगर इस रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ा जाय तो यह परिवर्तन शहरी रोजगार छोड़ कर स्वेच्छा से खेती से जुड़ना नहीं है बल्कि यह अकृषि कार्य से कृषि कार्य की ओर मजबूरी में जाना है। मार्च 2021 में, ग्रामीण रोजगार में हुयी वृद्धि के आंकड़े इसे प्रमाणित करते हैं।

रोजगार खत्म होने के बाद, शहरी क्षेत्रों से ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ आपदा जनित पलायन, ने देश के कृषि सेक्टर पर अतिरिक्त बोझ डाल दिया है। पहली लहर से शुरू हुआ यह पलायन, अगस्त 2020 से कुछ रुका था और कुछ ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर भी हुआ था, पर अप्रैल के पहले हफ्ते में आने वाली आपदा की दूसरी लहर ने इसे फिर ग्रामोन्मुखी कर दिया। कारण लॉक डाउन का भय और शहरी क्षेत्रों में रोजगार पर पुनः संकट का आ जाना है। आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2021 के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में फिर से लोगों द्वारा रोजगार ढूंढने वालों की संख्या बढ़ गयी।  शहरों से गांवों की तरफ पलायन की इस प्रवृत्ति से यह प्रमाणित होता है कि शहरों में वेतनभोगी और असंगठित दोनो ही सेक्टरों में रोजगार का संकुचन हुआ है।

कोरोना आपदा की दूसरी लहर में जो अधिकांश पलायन हुआ, वह महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली से हुआ है। हालांकि पहली लहर में भी पलायन का मुख्य केंद्र यही थे। चूंकि अधिकांश प्रवासी कामगार, उत्तर प्रदेश और बिहार से आते हैं, तो, इन दो राज्यों की बेरोजगारी दर मे, इस पलायन के कारण, अचानक वृद्धि भी हुयी। इधर इन राज्यों में जहां यह कामगार आये, वहां की बेरोजगारी दर बढ़ी तो जिन औद्योगिक राज्यों से यह पलायन हुआ, वहां के उद्योग धंधे भी प्रभावित हुए। रिटेल, कैटरिंग, मैन्युफैक्चरिंग, और अन्य घरेलू सेवा से जुड़े अनेक क्षेत्र, जो अधिक नौकरियां देते हैं, प्रभावित हुए। इसका असर परिवहन और लॉजिस्टिक क्षेत्र पर भी बुरी तरह पड़ा।

उत्पादन और आपूर्ति का संतुलन भी गड़बड़ाया और जब बाजार में मांग और आपूर्ति का संतुलन प्रभावित हुआ तो बाजार में और मंदी आने लगी। परिणामस्वरूप जब मांग घटने लगी, तो उत्पादन भी प्रभावित हुआ, और जब लोग अपने घरों की ओर लौटे तो यहां भी आर्थिक संकट के साथ साथ अनेक सामाजिक विषमताएं भी उत्पन्न होने लगीं। जैसा कि सीएमआईई की रिपोर्ट में यह अंकित है कि शहरी क्षेत्रों में पिछले साल की 3.7 मिलियन नौकरियां लोग खो चुके हैं और अभी दूसरी लहर की आपदा का बेरोजगारी पर क्या असर पड़ता है, इसका आकलन अभी बाकी है।

हमें यह नही भूलना चाहिए कि लाखों लोग कोरोना आपदा की पहली लहर में, अपनी नौकरियां खो चुके हैं और इसकी दूर दूर तक कोई उम्मीद भी नही कि उन्हें उनकी नौकरियां, निकट भविष्य में मिले ही। आज के माहौल में कोई भी नौकरी मिल जाय तो इसे गनीमत ही जानिए, एक अच्छी और उपयुक्त नौकरी की तो बात ही छोड़ दीजिये। पिछले महीने तक लग रहा था कि महामारी से तबाह हुई भारत की अर्थव्यवस्था संभल रही है। इस रिकवरी को देखते हुए कई अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) ने वित्त वर्ष 2021-22 में भारत की विकास दर 10 से 13 प्रतिशत के बीच बढ़ने की भविष्यवाणी की थी। लेकिन अप्रैल में कोरोना वायरस की दूसरी भयावह लहर के कारण न केवल इस रिकवरी पर ब्रेक लगा है बल्कि पिछले छह महीने में हुए उछाल पर पानी फिरता नज़र आता है। रेटिंग एजेंसियों ने अपनी भविष्यवाणी में बदलाव करते हुए भारत की विकास दर को दो प्रतिशत घटा दिया है।

अब जबकि राज्य सरकारें लगभग रोज़ नए प्रतिबंधों की घोषणाएं कर रही हैं तो अर्थव्यवस्था के विकास में बाधाएं आना स्वाभाविक है। बेरोज़गारी बढ़ रही है, महंगाई के बढ़ने के पूरे संकेत मिल रहे हैं और मज़दूरों का बड़े शहरों से पलायन भी शुरू हो चुका है। इस बढ़ती हुयी बेरोजगारी से हमारी आर्थिक रिकवरी को और धीमा कर दिया है। सीएमआईई रिपोर्ट के अनुसार, मार्च 2021 में श्रम भागीदारी की दर 40.2 % थी जो 2019 – 20 में 42.7 % था। 2019 – 20 कोरोना पूर्व का काल है। हालांकि साल 2016 की नोटबन्दी के बाद से ही देश की आर्थिकी में गिरावट आने लगी थी। रोजगार की दर जो पिछले साल 39.4% थी वह घट कर 37% हो गयी है। बेरोजगारी दर भी 6.5% हो गयी है। सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना आपदा की वर्तमान लहर से 120 मिलियन नौकरियों का नुकसान होगा जिसका अर्थ है सभी सेक्टरों में पूरी आबादी की 30% जनसंख्या इससे प्रभावित होगी। अभी आपदा की दूसरी लहर का पीक चल रहा है और अप्रैल 2021 के आंकड़ों के अनुसार, बेरोजगारी दर में 8% की वृद्धि हो गयी है, और श्रम भागीदारी में 40% की गिरावट आ गयी है।

मार्च 2021 में देश मे कुल रोजगार के आंकड़े 398 मिलियन थे जो 2019 – 20 के रोजगार के आंकड़ों से 5.4 मिलियन कम थे। 2019 – 20 में कुल रोजगार की संख्या थी, 403.5 मिलियन। यदि इसी आंकड़ों पर सरकार की रोजगार नीति की समीक्षा करें तो, इसके अनुसार भी एक साल में रोजगार के अवसरों में भारी कमी आयी है।

देश मे बेरोजगारी की यह भयावह तस्वीर  आज की नहीं है बल्कि जैसा कि मैं बार बार कहता हूं, यह हालात, साल 2016 में लिए गए अत्यंत बेवकूफी भरे आर्थिक निर्णय, नोटबन्दी का दुष्परिणाम है। सोमेश झा ने लीफलेट वेबसाइट पर 2019 में एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने नेशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस ( एनएसएसओ ) के हवाले से यह बताया था कि बढ़ती बेरोजगारी, देश मे व्यापक जन असंतोष का कारण बन सकती है। याद करें आंकड़ो के सार्वजनिक करने को लेकर एनएसएसओ के दो वरिष्ठ सांख्यिकीविदों ने अपना पद त्याग कर दिया था। तब के बिजनेस स्टैंडर्ड में इस संबंध में एक लेख भी छपा था। सरकार ने इस रिपोर्ट को दबाने की कोशिश की, पर यह लीक हो गयी और इसके निष्कर्ष सार्वजनिक हो गए। इस रिपोर्ट ने सरकार के इस दावे की धज्जियां उड़ा दी थीं कि, सरकार बढ़ती बेरोजगारी को रोकने के लिये कोई प्रयास कर रही है। सरकार ने तब भी लोकसभा में झूठ बोला था।

तब की एनएसएसओ रिपोर्ट में यह बताया गया था कि, देश मे 2017 में बेरोजगारी की दर 1972-73 के बाद सबसे अधिक बढ़ी हुयी स्थिति में है, और इसका असर युवाओं में असंतोष पर पड़ रहा है। उदाहरण के लिये, साल 2017-18 में, 15 से 29 वर्ष के ग्रामीण युवाओं में बेरोजगारी दर बढ़ कर 17.4 % हो गयी है जो, 2011-12 में 5 % थी।  इसी प्रकार ग्रामीण महिलाओं में, साल 2011-12 में बेरोजगारी दर 4.8 % थी, जो साल 2017-18 में बढ कर 13.6 % हो गयी। शहरी क्षेत्रों में यह दर और अधिक है। शहरों में पुरुषों में बेरोजगारी दर, साल 2017-18 में 18.7% और महिलाओं में, 27.2% है। एनएसएसओ के इन पुराने आंकड़ो को यहाँ प्रस्तुत करने का उद्देश्य यह बताना है कि आज जो बेरोजगारी की स्थिति है वह इस महामारी का ही दुष्परिणाम नहीं है, बल्कि सरकार की अस्पष्ट रोजगार नीति का परिणाम है। रोजगार, शिक्षा और जनस्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतें सरकार की न तो प्राथमिकता में हैं और न ही गवर्नेंस के एजेंडे में।

विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं 

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