अग्नि आलोक
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आज की शुरुवात कुछ बेहतरीन प्रगतिशील व व्यंग भरी कविताओं के साथ…

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इंसाफ़ की रोटी*

इंसाफ़ जनता की रोटी है
वह कभी काफ़ी है, कभी नाकाफ़ी
कभी स्वादिष्ट है तो कभी बेस्वाद
जब रोटी दुर्लभ है तब चारों ओर भूख है
जब बेस्वाद है, तब असन्तोष।

ख़राब इंसाफ़ को फेंक डालो
बगैर प्यार के जो सेंका गया हो
और बिना ज्ञान के गूँदा गया हो!
भूरा, पपड़ाया, महकहीन इंसाफ़
जो देर से मिले, बासी इंसाफ़ है!

यदि रोटी सुस्वादु और भरपेट है
तो बाक़ी भोजन के बारे में माफ़ किया जा सकता है
कोई आदमी एक साथ तमाम चीज़ें नहीं छक सकता।

इंसाफ़ की रोटी से पोषित
ऐसा काम हासिल किया जा सकता है
जिससे पर्याप्त मिलता है।

जिस तरह रोटी की ज़रूरत रोज़ है
इंसाफ़ की ज़रूरत भी रोज़ है
बल्कि दिन में कई-कई बार भी
उसकी ज़रूरत है।

सुबह से रात तक, काम पर, मौज लेते हुए
काम, जो कि एक तरह का उल्लास है
दुख के दिन और सुख के दिनों में भी
लोगों को चाहिए
रोज़-ब-रोज़ भरपूर, पौष्टिक, इंसाफ़ की रोटी।

इंसाफ़ की रोटी जब इतनी महत्वपूर्ण है
तब दोस्तो कौन उसे पकाएगा?
दूसरी रोटी कौन पकाता है?
दूसरी रोटी की तरह
इंसाफ़ की रोटी भी
जनता के हाथों ही पकनी चाहिए
भरपेट, पौष्टिक, रोज़-ब-रोज़।

-ब्रेख्त

मूल जर्मन भाषा से अनुवाद- मोहन थपलियाल

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भिखारियों का देश

लोकल ट्रेन से उतरते
हमने सिगरेट जलाने के लिए
एक साहब से माचिस मांगी,
तभी किसी भिखारी ने हमारी तरफ हाथ बढ़ाया,
हमने कहा ‘भीख मांगते शर्म नहीं आती ?’
ओके, वो बोला
‘माचिस मांगते आपको आयी थी क्या ?’
बाबूजी ! मांगना देश का करेक्टर है,
जो जितनी सफ़ाई से मांगे
उतना ही बड़ा एक्टर है,
ये भिखारियों का देश है।

लीजिए ! भिखारियों की लिस्ट पेश है,
धंधा मांगने वाला भिखारी
चंदा मांगने वाला
दाद मांगने वाला
औलाद मांगने वाला
दहेज मांगने वाला
और तो और वोट मांगने वाला
हमने काम मांगा तो लोग कहते हैं चोर है,
भीख मांगी तो कहते हैं, कामचोर है,
उन्हें कुछ नहीं कहते,
जो एक वोट के लिए,
दर-दर नाक रगड़ते हैं,
घिस जाने पर रबर की खरीद लाते हैं,
और उपदेशों की पोथियां खोलकर,
महंत बन जाते हैं।

लोग तो एक बिल्ले से परेशान हैं,
यहां सैकड़ों बिल्ले खरगोश की खाल में
देश के हर कोने में विराजमान हैं।
हम भिखारी ही सही,
मगर राजनीति समझते हैं,
रही अख़बार पढ़ने की बात तो
अच्छे-अच्छे लोग, मांग कर पढ़ते हैं,
समाचार तो समाचार,
लोग बाग पड़ोसी से,
अचार तक मांग लाते हैं।

रहा विचार ! तो वह बेचारा,
महंगाई के मरघट में,
मुद्दे की तरह दफ़न हो गया है।
समाजवाद का झंडा,
हमारे लिए कफ़न हो गया है,
कूड़ा खा रहे हैं और बदबू पी रहे हैं,
उनका फोटो खींचकर
फिल्म वाले लाखों कमाते हैं
झोपड़ी की बात करते हैं
मगर जुहू में बंगला बनवाते हैं।

हमने कहा ‘फिल्म वालों से तुम्हारा क्या झगड़ा है ?’
वो बोला
‘आपके सामने भिखारी नहीं
भूतपूर्व प्रोड्यूसर खड़ा है
बाप का बीस लाख फूंक कर
हाथ में कटोरा पकड़ा !’

हमने पांच रुपए उसके हाथ में रखते हुए कहा
‘हम भी फिल्मों में ट्राई कर रहे हैं !’
वह बोला, ‘आपकी रक्षा करें दुर्गा माई
आपके लिए दुआ करूंगा
लग गई तो ठीक
वरना आपके पांच में
अपने पांच मिला कर दस
आपके हाथ पर धर दूंगा !’

शैल चतुर्वेदी

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नेता आदमी नहीं होते…

नहीं, नेता आदमी नहीं होते..!
नेता तब तक ही आदमी होते हैं,
जब तक वह संसद पहुंच,
अपनी पुरानी पहचान को उतारकर
खूंटी पर नहीं टांग देते हैं..!

अपने इस यात्रा में वो,
आदमियों को समझाते हुए चलते हैं,
हम फलां आदमी से अच्छे हैं..!
फलां आदमी तुम्हारा खून पीता था..!
तुम्हारे सपनों को खाता था..!
तुम्हारे जरुरतों को पहनता था..!
और तुम्हारे अपनों को
बिछा कर सो जाता था..!
तुम्हारे मासूम बच्चों को
अंधेरे का रास्ता दिखाता था..!
तुम्हारी जरूरतों को
तुम्हारी मक्कारी बताता था..!
तुम्हारे इतिहास को
तुम्हारे भूगोल में मृतक बताता था..!
तुम्हारे पितरों को
तुमसे पृथक करता था..!
फलां आदमी तुम्हें,
तुम्हारे आदमी होने के
अधिकारों से पृथक रखता था..!

मगर हम… फला आदमी से अच्छे हैं..!
आदम जात में सबसे सच्चे हैं..!
हम आदमी होने का पूरा कर्तव्य निभाएंगे..!
तुम्हारे सपनों का देश बनाएंगे..!
आदमियों को आपदा-विपदा में बचाएंगे..!
स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के अंबार लगाएंगे..!
शमशान कब्रिस्तान को
नगर से दूर! कहीं दूर बसाएंगे..!
हम तुम्हें विश्वगुरु बनाएंगे..!
मगर संसद तक पहुंचते-पहुंचते,
वो आदमी पिशाच हो जाता हैै..!

आदमी अपने घरों में बैठकर,
आदमीयों को ही मारने का उपाय नहीं ढूंढते..!
वो नेता ढूंढते हैं और
आदमी अपने घरों के अहातों में,
श्मशान और कब्रिस्तान नहीं चाहते..!
नहीं, कभी नहीं चाहते..!
ऐसा नेता चाहते हैं..!
नेता चाहते हैं… हर घर में हो,
एक श्मशान या कब्रिस्ता..!

नेता आम आदमियों की
बेजान झाइयों वाली,
शक्लों को देखकर कूढते हैं..!
मनपसंद सवाल ना हो तो,
लावा की तरह फूटते हैं..!
पसंद का हो तो,
वो लाशों को भी लूटते हैं..!

आदमी अपने भोजन में,
आदमियों को शामिल नहीं करते..!
आदमी, आदमी को नहीं खाते..!
आदमी, आदमीयों की
लाशों की गिनती नहीं दबाते..!
आदमी लाशों को देखकर,
चीखते हैं, चिल्लाते हैं..!
अपनी बेचारगी पर मातम मनाते हैं..!
मगर नेता ठंडी लाशों से,
राजनीतिक ताप पाते हैं..!
नहीं..! नेता कत्तई आदमी नहीं होते..!

-सिद्धार्थ

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हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े

हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, सवाल नाचता है
सवाल के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी

क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हाथों पर पड़े गाँठों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का पेशाब पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता

जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं
कि दफ़्तरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर

हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है
जब बन्दूक न हुई, तब तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी

और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जाने वाले की
याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे

अवतार सिंह संधू (पाश)

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सच मत बोलना…

मलाबार के खेतिहरों को,
अन्न चाहिए खाने को..!
डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए,
बिगड़ी बात बनाने को..!
जंगल में जाकर देखा,
नहीं एक भी बांस दिखा..!
सभी कट गए सुना,
देश को पुलिस रही सबक सिखा..!

जन-गण-मन अधिनायक जय हो,
प्रजा विचित्र तुम्हारी है..!
भूख-भूख चिल्लाने वाली,
अशुभ अमंगलकारी है..!
बंद सेल बेगूसराय में,
नौजवान दो भले मरे..!
जगह नहीं है जेलों में,
यमराज तुम्हारी मदद करे..!

ख्याल करो मत…
जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का..!
फाड़-फाड़ कर गला,
न कब से मना कर रहा अमरीका..!
बापू की प्रतिमा के आगे,
शंख और घड़ियाल बजे..!
भुखमरों के कंकालों पर,
रंग-बिरंगी साज़ सजे..!

ज़मींदार है, साहुकार है,
बनिया है, व्योपारी है..!
अंदर-अंदर विकट कसाई,
बाहर खद्दरधारी है..!
सब घुस आए भरा पड़ा है,
भारतमाता का मंदिर..!
एक बार जो फिसले अगुआ,
फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर..!

छुट्टा घूमें डाकू गुंडे,
छुट्टा घूमें हत्यारे..!
देखो, हंटर भांज रहे हैं,
जस के तस ज़ालिम सारे..!
जो कोई इनके खिलाफ़,
अंगुली उठाएगा बोलेगा..!
काल कोठरी में ही जाकर,
फिर वह सत्तू घोलेगा..!

माताओं पर, बहिनों पर,
घोड़े दौड़ाए जाते हैं..!
बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते,
सताए जाते हैं..!
मार-पीट है, लूट-पाट है,
तहस-नहस बरबादी है..!
ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है,
वाह खूब आज़ादी है..!

रोज़ी-रोटी, हक की बातें,
जो भी मुंह पर लाएगा..!
कोई भी हो, निश्चय ही वह,
कम्युनिस्ट कहलाएगा..!
नेहरू चाहे जिन्ना,
उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं..!
जेलों में ही जगह मिलेगी,
जाएगा वह जहां कहीं..!

सपने में भी सच न बोलना,
वर्ना पकड़े जाओगे..!
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो,
मेवा-मिसरी पाओगे..!
माल मिलेगा रेत सको यदि,
गला मजूर-किसानों का..!
हम मर-भुक्खों से क्या होगा,
चरण गहो श्रीमानों का..!

बाबा नागार्जुन

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क्या आप सोचते हो…

क्या आप सोच को लिख सकते हो..?
यदि हांं, तो लिखो..!
जो आप सोचते हो..!
शोषित, पीड़ित, मजदूर किसान की आवाज को लिखो..!

सच को सच लिखो..!
बावजूद इसके कि
यदि आपने सच लिखा तो,
आपकी खैर नहीं..!
फिर भी, लिखो..!
लिखना जरूरी है..!

क्या आप बोलते हो..?
तो बोलो, यह भी सच है..!
आपने बोला तो आपकी खैर नहीं..!
फिर भी बोलो, जिंदा हो तो
बोलना जरूरी है..!

आपकी सोच, आपकी आवाज..! समाजवाद को बुलंद करेगी। और साम्राज्यवाद को मिटाए गी—!

आपकी लेखनी और आपका अंदाज..!
धीरे-धीरे मर रहा है..!
इससे पहले की यह
मर जाए पूरी तरह..!
एक अन्तिम कोशिश करो..!
जिंदा हो तो जीने के लिए..!
आने वाली पीढ़ी के लिए—-!

सुनील सिंह
महासचिव
एल्मुनियम एंप्लाइज यूनियन (एटक) बाल्को कोरबा छत्तीसगढ़

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