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आखिर क्यों बीजेपी को चलाना पड़ता है उधार के नेताओं से काम

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एक बात डंके की चोट पर कही जा सकती है कि बीजेपी को शासन चलाना नहीं आता है। कर्नाटक में सत्ता फेरबदल ने एक बार फिर इस बात को साबित कर दिया है। जोड़-तोड़ से बनी कर्नाटक की येदुरप्पा सरकार को अभी दो साल नहीं बीते थे कि पार्टी को वहां मुख्यमंत्री बदलना पड़ा है। और नयी ताजपोशी बासवराज बोम्मई की हुई है। वह एक दौर में जनता पार्टी के कद्दावर नेता और सूबे के मुख्यमंत्री रहे एसआर बोम्मई के बेटे हैं और उनका संघ और बीजेपी से दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं है। वह मूलत: समाजवादी पृष्ठभूमि से आते हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि बीजेपी और संघ के भीतर नेतृत्व का कितना टोटा पड़ा हुआ है।

एक ऐसे समय में जबकि संघ विस्तार की राह पर है और उसके पास केंद्र समेत तमाम सरकारों का साथ है। इस स्थिति में उसे अपनी शाखा का एक स्वयंसेवक भी कर्नाटक में नहीं मिल पाया जिसको वह मुख्यमंत्री बना सके। वैसे तो कहा जा रहा था कि नया मुख्यमंत्री हिंदुत्व के और ज्यादा करीब होगा यानी अपने पूरे व्यक्तित्व में और कट्टर होगा। लेकिन कल शाम को जब बोम्मई के नाम का खुलासा हुआ तो वे सारे दावे झूठे निकले। दक्षिण के मेन गेट पर एक बार फिर निक्करधारी की जगह उदारवादी पृष्ठभूमि का शख्स बैठा दिया गया है। और नटसेल में कहें तो बीजेपी को एक बार फिर उधार के नेता से काम चलाना पड़ रहा है। कम से कम एक बात दावे के साथ कही जा सकती है कि संघ इससे कत्तई खुश नहीं होगा।

यही हालात असम में भी बने। वहां चुनाव के बाद सर्बानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री बनना चाहिए था। क्योंकि वह पांच साल तक मुख्यमंत्री रहे थे। लेकिन बने हेमंत विस्व शर्मा। पूरा देश जानता है कि कांग्रेस की पृष्ठभूमि से आने वाले शर्मा ने किस तरह से बीजेपी हाईकमान का गला पकड़ कर मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल कर ली। अंदरूनी सूत्रों की मानें तो उन्होंने बीजेपी नेतृत्व को बाकायदा धमकी दी थी कि अगर मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो कुर्सी हासिल करने के उनके पास दूसरे विकल्प मौजूद हैं। बताया जाता है कि तकरीबन 50 विधायक ऐसे थे जो विस्व शर्मा के साथ थे। ऐसे में उनके लिए कांग्रेस का बाहर से समर्थन हासिल कर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचना मुश्किल नहीं था। लिहाजा केंद्रीय नेतृत्व को उनके सामने झुकना पड़ा।

अब यह सरकार भी कितनी बीजेपी और कितनी संघ की है कह पाना मुश्किल है। यह बात अलग है कि वहां असम और मिजोरम के बॉर्डर पर हिंसा हो रही है। पूरा इलाका भारत और पाक की सीमा में तब्दील हो गया है। दोनों सूबों के पुलिसकर्मी एक दूसरे के खून के प्यासे हैं। और इस तरह से जो बात पिछले 70 सालों में नहीं हुई उसे संघ और बीजेपी ने करके दिखा दिया। यहां यह बताना मुनासिब रहेगा कि दोनों राज्यों में एडीए की ही सरकारें हैं। लिहाजा वह दोष भी किसी और पर नहीं मढ़ सकते हैं। हालांकि कल अगर कोई बीजेपी नेता यह कह दे कि इस हिंसा के लिए भी राहुल गांधी जिम्मेदार हैं तो हमें अचरज नहीं होना चाहिए।

बहरहाल मूल मुद्दे बीजेपी की प्रशासनिक अक्षमता पर आते हैं। इस कड़ी में तीसरा सूबा उत्तराखंड है। यहां तो जैसे बीजेपी मुख्यमंत्री बदलने का रिकार्ड अपने नाम करने पर उतारू थी। और तीन महीने के भीतर तीन मुख्यमंत्रियों के बदलने के बाद उसने हासिल भी कर लिया। और यह सब कुछ बीजेपी-संघ के सौजन्य से हुआ है। उत्तराखंड जो कि पूरी तरह से सवर्ण प्रभुत्व वाला सूबा है। और किसी दूसरे राज्य के मुकाबले संघ और बीजेपी की जड़ें यहां गहरी हैं। बावजूद इसके अगर वहां पार्टी को एक सक्षम मुख्यमंत्री नहीं मिल रहा है तो यह बात किस तरफ इशारा करती है। यह घटना बताती है कि बीजेपी और संघ के नेताओं की राजनीतिक परवरिश में ही कोई दोष है।

इतना ही नहीं आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े सूबे और देश की राजनीति को दिशा देने वाले यूपी की तस्वीर भी इससे अलग नहीं है। पूरे देश ने देखा कि कोरोना महामारी में किस तरह से वहां लाशों की ढेर लग गयी। और गंगा में मानव शवों के उतराने से लेकर नदी के किनारे बालू में उनके दफनाए जाने के जो दृश्य सामने आए वो हाहाकारी थे। यह सूबे की योगी सरकार की प्रशासनिक नाकामी का जिंदा उदाहरण था। और यह बात किसी से छुपी नहीं है कि पूरे संकट काल में सरकार सूबे से नदारद रही और आलम यह था कि कैबिनेट मंत्रियों और प्रशासन के आला अफसरों के परिजनों तक को आक्सीजन और बेड मुहैया नहीं कराए जा सके। और इसी का नतीजा था कि बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व को मजबूरी में चुनाव से ठीक पहले नेतृत्व परिवर्तन पर विचार करना पड़ा। हालांकि लंबा विचार-विमर्श चला और संघ समेत बीजेपी के शीर्ष नेताओं की कई बैठकें हुईं और सूबों के दौरे तक हुए लेकिन अंत में नतीजा यह निकला कि युद्ध के दौरान घोड़ा बदलना उचित नहीं रहेगा। लिहाजा योगी की कुर्सी सलामत रही। वरना उनके हटाए जाने के हर संभव तर्क मौजूद थे।

बात केवल सूबों की नहीं है। केंद्र की मोदी सरकार भी प्रशासनिक क्षमता के पैमाने पर बहुत पीछे खड़ी है। देखने में वह कितनी ही तानाशाह दिखती हो लेकिन जब बात काबिलियत की आती है तब वह फिसड्डी ही साबित हो रही है। अनायास नहीं है कि कैबिनेट में पूर्व नौकरशाहों की भरमार है और न केवल उन्हें शामिल किया गया है बल्कि महत्वपूर्ण मंत्रालयों से उन्हें नवाजा भी गया है। विदेश मंत्री एस जयशंकर हों या फिर शहरी विकास मंत्री हरदीप पुरी या फिर बिहार के वक्सर से चुने गए आरके सिंह हों जो यूपीए के दौर में गृह सचिव रह चुके हैं, सरकार की रीढ़ बने हुए हैं। इतना ही नहीं जब सहयोगी जेडीयू खेमे से एक कैबिनेट मंत्री बनाने की बात आयी तो मोदी ने आरसीपी सिंह को चुना जो खुद एक नौकरशाह रह चुके हैं। निर्मला सीतारमन को भी इसी कटेगरी में रखा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि बीजेपी में नेताओं की कमी है। लेकिन बात क्षमता की है। वह कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आती है। ऐसे में जरूरत पड़ने पर उसके पास स्रोत के तौर पर दूसरे दल हैं या फिर उसे नौकरशाही का रुख करना पड़ता है जिसके पास एक स्तर तक शासन चलाने का अनुभव होता है।

इसके पीछे प्रमुख कारण संघ और बीजेपी का बुद्ध और शिक्षा विरोधी रवैया है। जिसमें भक्ति पर ज्यादा विश्वास किया जाता है। तर्क और विवेक को ताक पर रख दिया जाता है। ऐसे में किसी ज्ञान से परिपूर्ण और क्षमतावान व्यक्ति के विकास की गुंजाइश बहुत कम हो जाती है। हां उनसे दंगा चाहे जितना करा लो। नफरत और घृणा को फैलाने के मामले में उनका कोई सानी नहीं है। हर तरह के झूठ और अफवाह के वो मास्टर होते हैं। लेकिन ये सारी चीजें तो एक दौर तक के लिए जरूरी होती हैं। लेकिन जब पार्टी सत्ता में होती है तो उसको कुछ करके दिखाना पड़ता है यहीं आकर बीजेपी के नेताओं की गाड़ी फंस जाती है। जिनके पास न तो कोई दृष्टि होती है और न ही विजन है और न ही मंजिल तक पहुंचाने की काबिलियत।

महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक

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