रूपेश रंजन सिंह
शूटिंग में जब से अभिनव बिंद्रा ने ओलिंपिक्स में गोल्ड मेडल जीता है, इस खेल से भारतीयों की उम्मीद अचानक से बहुत ज्यादा बढ़ गई। शूटर्स ने भी निराश नहीं किया। बिंद्रा के बाद ओलिंपिक्स में भारतीय निशानेबाजों ने और तीन मेडल जीते। इनमें दो सिल्वर और एक ब्रॉन्ज था, लेकिन रियो ओलिंपिक्स में शूटर्स देश के लिए मेडल नहीं जीत सके। और अब तोक्यो पहुंचे शूटर्स की खराब शुरुआत ने विवाद का रूप ले लिया है। शूटिंग के पहले दिन भारत की ओर से गोल्ड मेडल के सबसे बड़े दावेदार सौरभ चौधरी उतरे थे। क्वॉलिफिकेशन में शीर्ष पर रहते हुए फाइनल के लिए पहुंचे, लेकिन यहां उनका निशाना चूक गया और सातवें स्थान पर ही ठहर गए। अपूर्वी चंदेला और इलावेनिल वालारिवन के एक अन्य स्पर्धा के फाइनल में भी क्वॉलिफाई नहीं कर पाने की खबर ने निराशा को हताशा में बदल दिया।
फिर दूसरे दिन शूटिंग में जब भारत की एक और पदक की दावेदार मनु भाकर फाइनल के लिए क्वॉलिफाई करने में नाकाम रहीं, तो ऐसा लगा फैंस के सब्र का बांध टूट गया। 10 मीटर एयर पिस्टल स्पर्धा के लिए क्वॉलिफिकेशन के दौरान मनु के पिस्टल में तकनीकी खराबी आ गई। पिस्टल सही करवाने में उनके 17-18 मिनट जाया चले गए। जब मनु वापस लौटीं, तो उन्हें स्पर्धा में बने रहने के लिए करीब 40 मिनट के भीतर 44 शॉट्स लेने थे। बहुत मुश्किल काम था यह, लेकिन फिर भी मनु ने जोरदार वापसी की, 575 अंक बटोरे। शीर्ष आठ में शामिल आठवें नंबर की शूटर और मनु के टोटल में सिर्फ दो अंक का फासला था। यदि मनु आखिरी शॉट में दस अंक बटोर लेतीं, तो वह फाइनल के लिए भी क्वॉलिफाई कर सकती थीं।
मनु के खिलाफ लोगों की प्रतिक्रिया से पूर्व वर्ल्ड नंबर वन महिला शूटर हिना सिद्धू खफा नजर आईं। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘मनु की पिस्टल के साथ जो हुआ, उससे उनका काफी समय जाया हो गया।’ मनु के कोच रौनक पंडित ही हिना के पति हैं और उनसे सारी सारी स्थिति को समझने के बाद हिना ने आगे लिखा, ‘मनु दबाव में टूटी नहीं बल्कि इसके खिलाफ खड़ी हुईं। 34 मिनट के भीतर 575 का स्कोर मानसिक तौर पर उनकी जीत है। एथलीटों को संख्या के आधार पर आंकना बंद करें, शायद यही एक चीज है, जिसे आप समझ सकते हैं। प्रदर्शन को समझना शुरू करें।’
वहीं लंदन ओलिंपिक्स में महज कुछ अंकों से पदक से चूककर चौथे स्थान पर रहने वाले शूटर जॉयदीप कर्माकर ने कहा, ‘मैं समझ सकता हूं कि जब एथलीटों से उम्मीदें होती हैं, तो भावनाएं उफान मारती ही हैं। लेकिन वे ‘रेस के घोड़े’ नहीं हैं। यदि ओलिंपिक्स के इतर बरसों में हम उनकी खैर-खबर नहीं लेते, तो फिर अब जब वे खेलों के उच्चतम स्तर पर आपका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, तो हमें उनका सम्मान करना चाहिए।’
मनु और सौरभ अभी 20 साल के भी नहीं हुए हैं। फैंस को समझना होगा कि उनके करियर की यह शुरुआत भर है और बिंद्रा ने भी अपने तीसरे ओलिंपिक में जाकर गोल्ड जीता था। ओलिंपिक्स में हर किसी के हाथ मेडल नहीं लगता, लेकिन ताउम्र एथलीटों को इज्जत दिलाने के लिए ओलिंपियन का तमगा ही काफी रहता है। ओलिंपिक्स में भाग ले पाने की लड़ाई भी आसान नहीं। बरसों गुमनामी में रहकर मेहनत करते हुए एथलीट इस खेल में खेलने के मानक को हासिल करते हैं। वे दुनिया में भले ही शीर्ष पर नहीं, लेकिन अपने-अपने देश में जरूर शीर्ष के खिलाड़ी हैं। वे आपसे, हमसे बेहतर होते हैं, तभी वहां होते हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि लड़ाई का अंजाम बहुत महत्व रखता है, लेकिन उतना ही महत्व इस बात का भी होता है कि लड़ाई किस तरह लड़ी गई। हमारे एथलीट हर लड़ाई पूरी शिद्दत और ताकत के साथ लड़ रहे हैं। अगर सफलता का एकमात्र पैमाना मेडल ही होता, तो फिर मिल्खा सिंह का नाम पूरी दुनिया में रोशन नहीं होता।