भोपाल। मध्यप्रदेश ऐसा प्रदेश है, जिसका इलाका छत्तीसगढ़ इलाके से लगा इलाका नक्सल प्रभावित माना जाता है। इस नक्सल प्रभावित इलाके में प्रदेश के दो जिले बालाघाट व मंडला हैं। इन जिलों में उप निरीक्षकों व थानेदारों की पदस्थापना की जाती है, जो पहले इस इलाके में नहीं होती थी। इन्हें दुर्गम सेवा के नाम पर इन जिलों में दो साल के लिए पदस्थ किया जाता है उसके बाद उन्हें उनकी मनचाही जगहों पर पदस्थ करने का नियम है। पुलिस मुख्यालय के इस नियम पर राजनैतिक रसूख इतना भारी पड़ रहा है कि इन थानेदारों द्वारा पदस्थापना अवधि पूरी कर लेने के बाद भी उन्हें नई जगह पदस्थ करने में पुलिस मुख्यालय भी पूरी तरह असहाय बना हुआ है। खास बात यह है कि इन थानेदारों की नई पदस्थापना करने की जगह पुलिस मुख्यालय इन थानेदारों व निरीक्षकों की पदस्थापना आदेश में कोई कोताही नहीं बरत रहा है, जिनका राजनैतिक रसूख है। दरअसल नक्सल प्रभावित जिलों में पदस्थ उपनिरीक्षकों व निरीक्षकों ने जो जगह अपनी नई पदस्थापना के लिए बताई है, उनमें पहले से ही राजनैतिक पहुंच वाले अफसर पदस्थ हैं। इसकी वजह से पुलिस मुख्यालय को राजनेताओं की नाराजगी का डर सता रहा है। अगर पुलिस मुख्यालय द्वारा जून 2019 को आदेश जारी कर अधिकारियों और सीधी भर्ती के 65 उप निरीक्षकों को बालाघाट और मंडला जिले से हटा कर उनके मनचाहे स्थानों पर पदस्थ करती है तो उसे उन अफसरों को दूसरी जगह पदस्थ करना होगा जो पहले से राजनैतिक सिफारिशों की वजह से पदस्थ किए गए हैं। इसके चलते सरकार और उससे जुड़े लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है। यही वजह है कि तय की दो साल की तय अवधि निकल जाने के बाद भी उनकी नई पदस्थापना नहीं की जा रही है। दरअसल बालाघाट और मंडला वो जिले हैं, जो नक्सल प्रभावित होने के अलावा बेहद दुर्गम वाले हैं। इस वजह से इन दोनों ही जिलों में कोई भी पुलिस अधिकारी अपनी मर्जी से नहीं जाना चाहता है।
इन इलाकों में अफसरों को कई तरह की परेशानियों का सामना करना होता है। यही वजह है कि तय किया गया था कि उप निरीक्षकों और निरीक्षकों को 2 साल के लिए अनिवार्य रूप से दोनों जिलों में पदस्थ किया जाएगा। इस पदस्थापना के बदले में उन्हें वहां से हटाने पर उनके मनपसंद स्थान पर पदस्थापना का नियम बनाया गया है। नई पदस्थापना से पहले उनसे वे तीन जिले पूछे जाएंगे जहां पर वे नई पदस्थापना चाहते हैं। इसके बाद उनकी रिक्त पदों के आधार पर बताए गए एक जिले में पदस्थ कर दिया जाएगा। इस नियम को लागू हुए कई साल हो चुके हैं। इसके तहत उपनिरीक्षकों, निरीक्षकों व नए डीएसपी की पदस्थापना की जाती है। यह तीनों तरह के अफसर वहां पर मैदानी सुरक्षा व्यवस्था की कमान संभालते हैं।
इस वजह से बनी है मुश्किल
पदस्थापना के लिए तय दो साल का समय हो जाने के बाद भी इन दोनों जिलों में पदस्थ किए गए पुलिस अफसरों की नई पदस्थापना अटकी हुई है। सूत्रों का कहना है कि बालाघाट और मंडला से हटाए जाने वाले पुलिस अफसरों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा विभाग के ही वे अफसर हैं, जो पहले से उन जिलों में पदस्थ हैं, जहां यह अफसर अपनी पदस्थापना मांग रहे हैं। पहले से पदस्थ अफसरों को हटाने में सबसे बड़ी दिक्कत पुलिस मुख्यालय के सामने यह है कि पूर्व से पदस्थ अफसरों की पदस्थापना उन विधायकों की सिफारिशों पर की गई है, जो सत्ताधारी दल के हैं। इसकी वजह से अवधि समाप्त होने के बाद भी नक्सल प्रभावित जिलों से हटाए जाने के मामले को अब पुलिस मुख्यालय द्वारा फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।
तीन गुना अधिक हैं पदस्थ
पुलिस मुख्यालय सूत्रों के मुताबिक बालाघाट और मंडला जिलों में पदस्थ 2012 बैच के उप निरीक्षकों में से अधिकांश अब पदोन्नत होकर निरीक्षक बन गए हैं। इस वजह से अकेले बालाघाट में यह स्थिति बन गई है कि यहां के लिए स्वीकृत 26 निरीक्षकों की जगह उनकी संख्या 70 से अधिक हो गई है। यह संख्या स्वीकृत पदों की तुलना में तीन गुना अधिक है। इतनी अधिक संख्या हो जाने की वजह से उनकी वेतन भी बामुश्किल से निकल पा रही है। इसमें खास बात यह है कि प्रदेश के कई जिले ऐसे हैं, जिनमें निरीक्षकों की बेहद कमी है, जिसकी वजह से उन जिलों में उपनिरीक्षकों को थानों का प्रभार देकर जैसे तैसे काम चलाया जा रहा है।
मारा जा रहा थानेदारों का हक
जिले से इन निरीक्षकों की संख्या अधिक होने की वजह से उपनिरीक्षक वाली चौकियों पर अब निरीक्षकों की पदस्थापनाएं कर दी गई है, जिसकी वजह से उपनिरीक्षकों को चौकी प्रभारी बनने का मौका नहीं मिल पा रहा हैै, जिसकी वजह से उनका हक भी मारा जा रहा है। यही नहीं निरीक्षक होने के बाद भी उनसे उपनिरीक्षक का काम लिए जाने से निरीक्षकों में भी नाराजगी बढ़ रही है। इसकी वजह से उनमें हीन भावना भी पनप रही है।