अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

तालिबान से बात करने में हर्ज ही क्या है

Share

भरत कर्नाड

युद्ध होते हैं, जनांदोलन उभरते हैं, विदेशी दखल नाकाम हो जाती है, सरकारें गिरती हैं, नया निजाम सामने आता है। तीसरी दुनिया के अधिकतर देशों में ऐसा ही हाल दिखता रहा है। लिहाजा अफगानिस्तान में पिछले दिनों जो कुछ हुआ, उसमें कोई हैरत की बात नहीं थी। अमेरिका का राजनीतिक साहस चुक गया और वहां एक-दूसरे से तकरार होने लगी कि अफगानिस्तान किसके चलते हाथ से निकल गया। अशरफ गनी खतरनाक होते हालात के बीच देश से निकल गए और अफगानिस्तान की नैशनल आर्मी गायब सी हो गई। कुछ उसी तरह, जैसे वे दो लाख करोड़ डॉलर हवा हो गए, जिन्हें अमेरिका ने इस ‘कभी न खत्म होने वाली जंग’ में झोंका था। इन सबका का अनुमान पहले से था। हैरत की बात केवल एक रही। जिस तेजी से तालिबान का काबुल पर दोबारा कब्जा हुआ, उससे सब हैरान रह गए।

डेमोक्रेसी तो आने से रही

इसके बाद अब नफा-नुकसान के हिसाब-किताब का मामला है। तालिबान मॉडर्न डेमोक्रेसी की राह तो पकड़ेगा नहीं। मुल्ला उमर को जब अमीर घोषित किया गया, तब 1998 में कुछ इस्लामिक विद्वानों ने ‘दस्तूर एमारात इस्लामी अफगानिस्तान’ तैयार किया था। 2020 में इसी तरह एक और दस्तावेज ‘मंसूर एमारात इस्लामी अफगानिस्तान’ तैयार किया गया। दोनों ही दस्तावेजों में लोकतंत्र की मुखालफत की गई। जहां तक ताजा हालात की बात है तो हैबतुल्ला अखुंदजादा और अब्दुल गनी बरादर की कमान में तालिबान लीडरशिप का रुख अब तक ठीक-ठाक दिखा है। उन्होंने सबका खयाल रखने वाली सरकार बनाने और आम माफी देने का वादा किया है।

लेकिन विपक्षी खेमा भी लामबंद हो रहा है। तालिबान में काफी हद तक गिलजई कबीले के लोग हैं। ऐसे में दूसरे पश्तून कबीले ताजिक, बलूच और शिया हजारा लड़ाकों के साथ जा सकते हैं। वे पिछली सरकार के उप-राष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हमदुल्ला मोहिब से जुड़ना बेहतर मान सकते हैं। सालेह और मोहिब के साथ अफगान आर्मी की कई यूनिट्स अब भी हैं। पंजशीर घाटी में बैठे अहमद मसूद के वफादार ताजिक भी इनके साथ हैं। उधर, कर्नल अब्दुल दोस्तम भी उज्बेक खेमे को एकजुट कर रहे हैं। ऐसे में पिछली बार नॉर्दर्न अलायंस ने जैसी टक्कर तालिबान को दी थी, उससे कहीं ज्यादा प्रतिरोध इस बार उभर सकता है।

भारत, पाकिस्तान, चीन और रूस को डर है कि तालिबान चाहे जो वादे कर रहा हो, वह अल-कायदा, इस्लामिक स्टेट, लश्कर ए तैयबा और जैश ए मुहम्मद के लोगों से हाथ मिला सकता है। वे कश्मीर में दिक्कत बढ़ा सकते हैं और पाकिस्तान में तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान के जरिए चरमपंथ को हवा दे सकते हैं। डर यह भी है कि वे वाखन बॉर्डर के जरिए घुसपैठ कर चीन के शिनच्यांग में उइगुर मुसलमानों को भड़का सकते हैं और रूस के दक्षिणी हिस्से में मुस्लिमों की ज्यादा आबादी वाले इलाकों में ‘टेररिस्ट आइडियॉलजी’ की जमीन मजबूत कर सकते हैं।

चीन का मानना है कि तालिबान के हाथ तंग हैं, लिहाजा वह भारी-भरकम कर्ज देकर और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स के जरिए तालिबान को अपने साथ जोड़ सकता है। रूस अब तक सबके सामने तालिबान के पक्ष में दिख रहा है, लेकिन उसकी सोच यह है कि वह मध्य एशिया के आसपास के देशों को पंजशीर घाटी के लड़ाकों का साथ देने को तैयार कर लेगा। ताजिकिस्तान तो पहले ही उनके साथ है। उधर, पाकिस्तान मान रहा है कि उसकी खुफिया एजेंसी ISI क्वेटा और पेशावर की शूरा के साथ तालमेल बनाकर तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान के मिजाज ठंडे कर देगी। तीनों देशों की राय बन चुकी है कि तालिबान शासन को जल्द से जल्द औपचारिक मान्यता दे देनी चाहिए ताकि उसके बाद वे अपने मकसद पूरे कर सकें।

इधर भारत का हाल यह रहा कि अमेरिका का मुंह देखकर बिना सोचे-समझे कदम बढ़ाए जाते रहे आौर इस चक्कर में अफगान गेम से बाहर हो गए। अमेरिका ऐसी हालत में आ गया है कि अब वह अफगान धरती पर अपने हितों का बहुत खयाल नहीं रख सकता। ऐसे में इंतजार करने के बजाय भारत को तुरंत कदम बढ़ाना चाहिए और अफगान अमीरात को मान्यता दे देनी चाहिए। मान्यता देने पर तालिबान भारत का एहसान मानेगा और भारत के हितों का ध्यान रखेगा। इससे पाकिस्तान के खिलाफ बढ़त मिलेगी। कूटनीतिक तौर पर अफगानिस्तान में पकड़ बनाने से भारत का प्रभाव बढ़ेगा और गुलबुद्दीन हिकमतयार की हिज्ब ए इस्लामी जैसी भारत विरोधी ताकतों को कायदे से पस्त किया जा सकेगा, जो काबुल में सक्रिय हैं। बॉलिवुड की फिल्मों और IPL में अफगान क्रिकेटरों की मौजूदगी जैसी बातों से अफगानिस्तान में भारत पहले से लोकप्रिय रहा है। ऐसे में दोबारा अपना प्रभाव बढ़ाने में भारत को कुछ खास दिक्कत नहीं आएगी। तालिबान का भी इसमें फायदा है क्योंकि उसे वहां की करीब 30 फीसदी शहरी आबादी से राब्ता कायम करना है।

तालिबान को लुभाना होगा

बरादर और अखुंदजादा की अनुभवी जोड़ी को पता है कि अमीरात का सिस्टम बनाना एक बात है और सबको साथ लेकर चलने वाली सरकार बनाना दूसरी बात। लोकतांत्रिक भारत के साथ जुड़ने से अफगान अमीरात की इमेज को कुछ हद तक फायदा होगा और दुनिया में उसकी मकबूलियत बढ़ेगी। भारत ने अफगानिस्तान में जरंज-डेलारम हाइवे बनाने के लिए पैसा दिया था। उस हाइवे के चलते अफगानिस्तान के सुदूर इलाकों से अफीम को ईरान बॉर्डर तक लाने में आसानी हुई है। ईरान बॉर्डर पर अफीम की प्रोसेसिंग यूनिट्स हैं। अफीम की तस्करी से अफगानिस्तान को राजस्व का नुकसान होता था। हाइवे के चलते उसका रेवेन्यू बढ़ा।

इस तरह की जमीनी और साफ रुख वाली पॉलिसी का फायदा यह है कि भारत को पंजशीर घाटी के गठबंधन से अपने पुराने रिश्ते बनाए रखने में भी उलझन नहीं होगी। भारत के सामने जो भी विकल्प हैं, उनमें सबसे अच्छा यही है कि तालिबान शासन को जल्द मान्यता देकर उसे लुभाया जाए और यह डर भी दिखाया जाए कि बात नहीं बनी तो विरोधी खेमे से रिश्ता मजबूत कर लिया जाएगा।

(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में नैशनल सिक्यॉरिटी स्टडीज के एमेरिटस प्रफेसर हैं)

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें