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समतामूलक समाज ..जब तक पूरे समाज का संतुलित विकास नहीं होगा, सभी वर्गों का सर्वांगीण विकास नहीं होगा

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डॉ. सुधा कुमारी

प्रकृति ने इस धरती पर सब तरह के जीव-जन्तु बनाए हैं। सबके लिए धूप-हवा-पानी और भोजन की व्यवस्था की है। सभी जीवों में प्राण और शरीर की व्यवस्था की है। सभी जीवों के अंदर मूल भावनाएँ भी दी हैं, जैसे-भूख-प्यास, जीने की इच्छा, प्रेम। मानव प्रजाति को तो प्रकृति ने एक उन्नत और उर्वर मस्तिष्क भी दिया है जिससे वह कई महान कार्य करता है। फिर भी यह विश्व सुखी और शांत क्यों नहीं है? दुनिया में सब कुछ प्राप्त करने के बाद भी मानव प्रजाति के पास शांति क्यों नहीं हैं? कभी देशों और महादेशों के बीच युद्ध, कभी सरकार और जनता के बीच टकराव, कभी उच्च वर्ग द्वारा निर्धन वर्ग का शोषण, कभी निम्न आय वर्ग द्वारा उच्च वर्ग के साथ लूटपाट, पॉकेटमारी और सामाजिक अपराध, कभी पुरुष वर्ग द्वारा स्त्री का शोषण और अपराध और कभी स्त्री द्वारा पुरुष पर अत्याचार- आखिर इसका कारण क्या है और इसका निदान क्या है? इस पर शोध करने की आवश्यकता है और प्रबुद्ध लोगों द्वारा काफी मनन चिंतन की आवश्यकता है।

जब तक पूरे समाज का संतुलित विकास नहीं होगा, उसके सभी अंगों और वर्गों का सर्वांगीण विकास नहीं होगा, जब तक अलग-अलग हिस्सों में धूप-छाँव का खेल चलता रहेगा, तब तक समाज और विश्व में संघर्ष चलता रहेगा। इसलिए तरह-तरह की असमानताएँ या विषमताएँ और असंतुलन जो विश्व के हर हिस्से में फैली हुई है, उसे न्यूनतम करना होगा। असंतुलित और असमान समाज से निकलकर एक न्याय परक और समता मूलक समाज की ओर बढ़ना होगा।

जीवन-प्रवृत्ति (लाइफ इन्स्टिंक्ट) एक सामान्य और मौलिक प्रवृत्ति है। इसके अंतर्गत, सामान्य प्रवृत्तियाँ जैसे भूख-प्यास, जीने की इच्छा, नींद, बच्चों से प्रेम, साथी से प्रेम, अपने झुंड के प्रति वफादारी और सुरक्षा की आवश्यकता- सभी जीवों में होती हैं। किन्तु एक अन्य मौलिक प्रवृत्ति भी है जो करीब-करीब सभी प्रजातियों में पाई जाती है जिसे मनोविज्ञान मृत्यु-प्रवृत्ति (डेथ इन्स्टिंक्ट) के नाम से पुकारता है। जहाँ जीवन-प्रवृत्ति (लाइफ इन्स्टिंक्ट) जीवों को प्रेम, विकास और वंश वृद्धि की ओर उन्मुख करती है, वहीं मृत्यु-प्रवृत्ति जीवों को क्रोध, हिंसा और विध्वंस की ओर उन्मुख करती है। इस प्रवृत्ति के कारण हिंसा, अपराध और युद्ध का उन्माद देखने को मिलते हैं। मौलिक (बेसिक) प्रवृत्ति होने के कारण ये भावनाएँ पूर्णतः समाप्त नहीं हो सकतीं किन्तु उसपर नियंत्रण बहुत आवश्यक है और इसकी शिक्षा बचपन से ही मिलनी चाहिए। ‘अहिंसा परमोधर्मः’ ऐसी धारणा सिर्फ भारत की है, पूरे विश्व की नहीं। और भारत में भी यह धारणा हर किसी व्यक्ति की नहीं है। यदि ऐसा होता तो पूरा देश संत-मुनियों से भरा होता।

जीव-हत्या, बलिप्रथा, मारपीट, शारीरिक अत्याचार-इन सभी के कारण और उद्देश्य अलग-अलग हैं, जैसे भोजन के कारण जीवहत्या होती है, किसी अदृश्य शक्ति या देवता को प्रसन्न करने के कारण बलि होती है, झगड़े या विवाद के कारण मारपीट और मानसिक रुग्णता के कारण शारीरिक अत्याचार होता है। किन्तु कारण अलग-अलग होने के बावजूद उसका प्रभाव एक जैसा होता है क्योंकि इन सभी क्रियाओं से जीव को घातक चोट लगती है और वह दर्द से तड़पता है।

एक सैनिक द्वारा युद्ध में लड़ने का कारण देशभक्ति की उत्तम भावना है। किन्तु युद्ध का उन्माद और वातावरण पैदा करना कुछ लोगों की कार्य-योजना होती है, सोची-समझी साजिश होती है। कोई देश अपनी बढ़ती जनसंख्या के लिये अधिक जमीन हड़पना चाहता है और अपनी भौगोलिक सीमा बढ़ाना चाहता है तो कोई अपने अस्त्र-शस्त्र के कारोबार को जीवित रखने की गरज से युद्ध की स्थिति बनाए रखना चाहता है। कोई इस पक्ष या उस पक्ष का साथ देने की गरज से ही युद्ध और हिंसा की भावना फैलाता है। पर सभी के कारण अलग होने पर भी उसका प्रभाव एक-सा पड़ता है- सैनिक एक दूसरे पक्ष पर आक्रमण करते हैं, घातक वार किए जाते है, कितने लोगों की जान जाती है, परिवार उजड़ जाते हैं, रक्त की लोहित नदियाँ बहती हैं, आँसुओं के खारे सागर बनते है। क्या सभी विवादों का हल युद्ध है? बातचीत, आपसी सहयोग, सदभाव से विवाद हल नहीं हो सकते? कूटनीति, समझौते, व्यापार-विनिमय क्या ये सभी व्यर्थ हो चुके है? उत्तर है, नहीं।

मनुष्य का मन, भावनाएँ, प्रतिक्रियाएँ, जरूरतें- अन्य सभी जीवों से अधिक उन्नत और जटिल बनाई गई हैं। इसके कई सारे सुपरिणाम हैं कि मनुष्य शिक्षा प्राप्त करता है, बड़े-बड़े अनुसंधान करता है, सागर के तल और आकाश-अंतरिक्ष के पार पहुँचने को निरंतर प्रयासरत रहता है। धन जमा कर उसका विनिवेश करता है, बड़े-बड़े उद्योग-कारखाने चलाता है। मनुष्य कला-शिल्प में नई-नई दिशाएँ ढूँढता है, मनोरंजन और सुविधा के लिये तरह-तरह के यंत्र और साधन बनाता है। दीन-दुखी की सहायता के लिए दान-कोष, ट्रस्ट और समितियाँ बनाता है, सामाजिक जीवन में अनुशासन के लिये एक संविधान, नियम-क़ानून बनाने के लिए संसद, उनके कार्यान्वयन के लिए कार्यपालिका और उन नियमों की अवमानना करनेवालों को दण्डित करने के लिए न्यायपालिका भी बनाता है। इतना ही नहीं, मनुष्य तपस्या और योग साधना कर ईश्वरत्व को भी प्राप्त करता है।

मनुष्य जैसे विकसित प्राणी को प्रकृति ने अदभुत इच्छाशक्ति और चिंतनशक्ति दी है। उसे जंगली जीव-जंतुओं की तरह उग्र, आक्रामक और हिंसक होने की कोई जरूरत नहीं है। युद्ध के अलावा बहुत से शांतिपूर्ण उपाय हो सकते हैं जैसे- आर्थिक- सामाजिक- सांस्कृतिक सम्बन्ध का विकास, हिंसा की जगह मित्रता को बढ़ावा देना।

इसी प्रकार, हिंसक अपराध करने का कारण कभी गरीबी है और कभी मानसिक रुग्णता या बीमारी। गरीबी के कारण नौकर मालिक की हत्या कर धन प्राप्त करता है, अशिक्षा या तनाव या अवसाद या कुंठा के कारण विवाह-संबंधी अपराध होते हैं। यदि विवाह के पूर्व स्त्री-पुरुष को उचित परामर्श तथा मेडिकल सहायता और परामर्श दिये जायँ तो उनका उचित दिशा-निर्देश हो सकता है और विवाह के बाद भी दिशा-निर्देश या परामर्श नियमित मिलता रहे तो मानसिक बीमारियाँ, तनाव या कुंठा आदि व्याधियों से विवाहित जोड़ों को बचाया जा सकता है।

ध्यान से देखें तो पाएंगे कि सभी अपराधों के पीछे अशिक्षा, तनाव, दिशाहीनता या बेरोजगारी मुख्य कारण होते हैं। यहाँ प्रसिद्ध रूसी लेखक दोस्तोएव्स्की की पुस्तक ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ का उल्लेख अति आवश्यक है जिसमें वे एक धनी व्यक्ति के गरीब हत्यारे के गंदे और अँधेरे कमरे का जिक्र करते हुए कहते हैं कि अँधेरे, सीलन भरे और नीची छत वाले घर में रहनेवाला व्यक्ति अपराध के बारे में ही सोच सकता है…। कितना ह्रदय-विदारक और सत्य कथन है ! निर्धनता को दूर करना अति आवश्यक है, उच्च वर्ग भी तभी चैन से रह सकता है।

अपराध कम करने के लिये युवाओं का आह्वान आवश्यक है। यदि जयप्रकाश नारायण डाकुओं को परिवर्तित कर सामान्य धारा में ला सकते हैं तो जयप्रकाश नारायण के परम अनुयायी और समर्थक अन्य छोटे-मोटे चोर-उचक्कों और गुंडे-बदमाशों को क्यों नहीं सुधार सकते? उन्हें सामान्य धारा में आकर रोजगार चाहिये। तभी वे अपराध के जंगल से बाहर आएंगे।

अपराध कोई शौक नहीं है क्योंकि इसमें जान का खतरा और क़ानून का डर होता है। यदि रोजगार-व्यवसाय की व्यवस्था हो तो लोग व्यस्त रहेंगे। उनके पास फालतू वक्त नहीं रहेगा।

बेरोजगारी को दूर करने के लिए उद्योग-धंधे, कला-शिल्प, कृषि-संबंधी रोजगार और स्व-रोजगार का प्रयास करना आवश्यक है।सबको शिक्षा मिले, इसके लिये विद्यालय के साथ-साथ अनौपचारिक रूप से भी शिक्षा दी जानी चाहिये। गाँव में अनौपचारिक रूप से कुछ जगहों की व्यवस्था कर उन लोगों को शिक्षा दी जा सकती है जो विद्यालय आने में असमर्थ है या विद्यालय में उतना समय नहीं दे सकते। उन्हें किताब-कॉपियाँ और कलम दिये जा सकते हैं जिससे घर में रहकर भी बड़े-बूढ़े, गृहिणी-बच्चे सीख सकें। प्रतिदिन दो घंटे भी यदि उन्हें शिक्षा मिले तो उनका मानसिक धरातल ऊँचा होगा, आत्मविश्वास बढ़ेगा और उनमें जागरूकता आएगी। फिर अनौपचारिक रूप से आय अर्जित करने का प्रशिक्षण दिया जाय। यह प्रक्रिया नियमित रूप से चले।

महिलाओं के साथ अपराध को रोकने के लिए उन्हें आत्मनिर्भरता की शिक्षा और आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देना आवश्यक है। उन्हें अपने घर से आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा देने के लिये संपत्ति मिलना जरुरी है। साथ ही, अपने माता-पिता की देखभाल भी करनी है। उन्हें घर में रहकर या बाहर जाकर रोजगार या उद्योग में भाग लेना है। यदि विश्व की जनसंख्या का 50% हिस्सा लाचार, असमर्थ या आलसी बनाकर घर में बंद कर दिया जाय तो पूर्ण रोजगार की स्थिति कैसे आएगी? सकल राष्ट्रीय उत्पाद कैसे बढ़ेगा? क्या घर में बैठकर झाड़ू लगाने से सकल उत्पाद या जी.डी.पी. बढ़ सकती है?

आर्थिक अधिकार तो महिला को अपने घर से मिलना चाहिए और आत्मनिर्भरता भी वहीं से आरंभ होनी चाहिए, शिक्षा और आर्थिक साधनों से आरंभ होनी चाहिए। इससे उसे स्वतः गरिमा और सम्मान प्राप्त होंगे। निर्धन, परतंत्र और अशिक्षित महिला को सम्मान और अधिकार माँगना पड़ता है जो अक्सर नहीं मिलता। अतः उसे आर्थिक आत्मनिर्भरता और संपन्नता अवश्य प्राप्त करनी चाहिए। इसमें पूरे परिवार और समाज की भलाई है। 3000 साल पुरानी महिला विरोधी कट्टर रूढ़ियों से समाज की गाड़ी के पहिए पुनः असंतुलित हो जाएंगे। कोई भी गाड़ी तभी चल सकती है जब उसके सभी पहिये समान शक्ति के हों।

उसके प्रेम, विवाह या वैवाहिक स्थिति पर कोई चर्चा, प्रश्न या विवाद नहीं खड़ा करे। समाज पूरी शांति से चले, पुरुष-महिला दोनों को समान भाव से कार्य करने दे। हर दस्तावेज में पिता, पति या अभिभावक का नाम लिखना और इसके लिये उसे कानून द्वारा बाध्य करना महिला का सरासर अपमान है। क्या वह असमर्थ या लाचार है? विशेष रूप से जब बायोमेट्रिक्स द्वारा हर व्यक्ति की जैविक पहचान सुनिश्चित है तो उसमें पिता, पति या अभिभावक का नाम क्यों दिया जाय? फिर आँख और उंगलियों के फोटो से क्या लाभ? यदि पति-पिता-पुत्र का नाम लिखना अनिवार्य ही है तो बायोमेट्रिक्स क्यों लगाया? यदि वंशानुगत पहचान आवश्यक है तो माता-पिता दोनों क्यों नहीं हो सकते?

आज की गंभीर परिस्थिति में हमें एक न्यायपरक समाज की बेहद आवश्यकता है। नकारात्मक शक्तियाँ- कट्टरता, पोंगापंथी, ढकोसला, अशिक्षा, प्रतिक्रियावादी ताकतें चारों ऑर से देश को निगलने को आतुर हैं, बस मौके की तलाश है। इनसे बचने के लिए एक न्यायपरक, शांतिपूर्ण, समानतामूलक समाज की स्थापना हमारा परम लक्ष्य है। ऐसा समाज सबका आदर करता है, सबको अनुशासित रखता है और सबको आगे बढ़ने का अवसर देता है। समानतामूलक समाज में सबके लिये स्थान है, सहयोग है, विद्वेष या शत्रुता नहीं है। शिक्षा और आर्थिक विकास जनसँख्या को संतुलित करने वाले महत्त्वपूर्ण तत्व के रूप में जाने जाते हैं।

मनुष्य में एक प्रवृत्ति है जो अन्य जीवों में नहीं है। इसे मनोविज्ञान ‘नीड फॉर अचीवमेंट’ के नाम से पुकारता है। इसे महत्वाकांक्षा की भावना भी कह सकते हैं। इसी भावना ने उसे अंतरिक्ष के पार जाने का साहस दिया, समुंद्र की तलहटी खंगालने का बल दिया। यंत्रों की सृष्टि करवाई, नए-नए अनुसंधान करवाए। यदि वह चाहे तो ऐसा समाज अवश्य स्थापित होगा जहाँ हर प्रकार के लोग मिलकर रहें। सहयोग और एक दूसरे का आदर करें, टकराव की जगह शांति-सहिष्णुता से कार्य करें। सिर्फ परिवार के लिये ही नहीं, राज्य, देश और पूरे विश्व के लिये आदर का भाव रखें।

यदि हम मिलकर बचपन से संकल्प करें कि हमें एक शांतिपूर्ण सुंदर परिवेशित समाज बनाना है, उसे भूख से मुक्ति, बीमारी से मुक्ति, भेदभाव से मुक्ति, भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाना है तो हमारा सामूहिक संकल्प, सामूहिक इच्छाशक्ति और समवेत प्रयास अवश्य इस सुंदर समाज के स्वप्न को अवश्य सत्य करेगा।

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