श्रवण गर्ग
अफ़ग़ानिस्तान में अल क़ायदा के ख़िलाफ़ अमरीका द्वारा अक्टूबर 2001 में किए गए हमले और वहाँ से कोई ‘बीस साल बाद ‘ अपनी फ़ौजों की वापसी की कहानी को समझने के लिए न्यूयॉर्क स्थित उस स्मृति-स्थल, जिसे दुनिया ग्राउंड ज़ीरो’ के नाम से जानती है, के सामने दो मिनिट के लिए अपनी आँखें बंद करके खड़े होकर उस सुबह जो कुछ भी भयावह घटा होगा उसकी कल्पना करना ज़रूरी है.इस स्थान पर मुझ जैसे भारतीय का खड़े होकर कुछ तलाश करना उस आम अमेरिकी से काफ़ी अलग था जो उसने उस ग्यारह सितम्बर को पहली बार बीस साल पहले महसूस किया होगा जिसमें पलक झपकते ही कोई तीन हज़ार लोग राख और हज़ारों अन्य ज़ख़्मी हो गए थे. यही वह जगह है जहां 11 सितम्बर 2001 को अमेरिकी आकाश में सूरज उगने तक वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के नाम से पहचान रखने वाले न्यूयॉर्क की शान ‘ट्विन टावर्स’ खड़े हुए थे.
अफगानिस्तान से वापसी के बाद अमेरिका ने बीस सालों में पहली बार इस ग्यारह सितम्बर को एक अवर्णनीय पीड़ा के साथ याद किया होगा. एक ऐसी पीड़ा जिसे कोई सवा लाख लोगों की 31 अगस्त तक पूरी कर ली गई वापसी के बावजूद अमेरिका उन चार करोड़ अफ़ग़ानियों के आंसुओं में छोड़ आया है जो अब तालिबान से आज़ाद होकर उड़ने के लिए नाटो के विमानों का काबुल के हवाई अड्डे के आसपास और अन्य स्थानों पर छुप कर इंतज़ार कर रहे हैं. पिछले दो दशकों मेंअमेरिका के तीन राष्ट्रपतियों ने पुराने अफगनिस्तान के भीतर ही एक नए आधुनिक देश का निर्माण कर दिया था.
कल्पना करके देखना चाहिए कि अमेरिका जैसी महाशक्ति ने अपने यूरोपीय मित्र देशों के साथ मिलकर वॉशिंगटन से ग्यारह हज़ार किलो मीटर दूर स्थित एक अनजान देश में दो दशकों तक अल क़ायदा के कुछ ही हज़ार इस्लामी आतंकवादियों के ख़िलाफ़ इतनी लम्बी लड़ाई क्यों लड़ी होगी और उसके अब क्या परिणाम निकल रहे हैं ? अपनी दो दशकों की मौजूदगी के बावजूद अमेरिका अफगानिस्तान में आतंकवाद को तो पूरी तरह कभी ख़त्म नहीं कर पाया, पर वहाँ से अपनी वापसी के ज़रिए एक देश को ज़रूर ख़त्म कर दिया . कहा जाता है कि अफगानिस्तान में इस समय तालिबान के लड़ाकुओं के अलवा कोई दस हज़ार के क़रीब दूसरे आतंकवादियों का जमावड़ा है और इनमें अधिकांश का सम्बन्ध अल क़ायदा से है.
अमेरिका में तब के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने जब नाइन-इलेवन की दुनिया को दहला देने वाली घटना के पच्चीस दिन बाद 7 अक्तूबर को काबुल पर हमला करने का फ़ैसला लिया होगा तब कल्पना भी नहीं की होगी कि वे क्या करने जा रहे हैं. अल क़ायदा के ख़िलाफ़ छेड़ा गया अमेरिकी युद्ध तो कुछ ही महीनों में ख़त्म हो गया था पर किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने उसे ख़त्म घोषित नहीं किया. बराक ओबामा की व्हाइट हाउस में मौजूदगी के दौरान ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में समाप्त कर दिया गया था. तब भी अमेरिका ने काबुल से अपनी फ़ौजों की वापसी की घोषणा नहीं की. बुश की तरह ही डॉनल्ड ट्रम्प ने भी इस्लामी कट्टरवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई को सत्ता में बने रहे का हथियार बनाकर रखा.
तालिबान के लिए अफगानिस्तान का मौजूदा संकट मंत्रिमंडल गठन नहीं बल्कि यह है कि उन नागरिकों की मौजूदगी उसे कैसे हासिल हो जिन्हें उसने अमेरिकी हमले के पहले अंतिम बार बीस साल पहले देखा और छोड़ा था. इस समय तालिबानी अफगानिस्तान में अपने 1996 से 2001 के बीच के क्रूर अतीत की वापसी तलाश रहे हैं और इसके विपरीत वहाँ के नागरिक उस अतीत की जो अमेरिका और उसके मित्र पश्चिमी देशों ने बीस सालों के दौरान दिया था और अब उन्हें लावारिस हालत में छोड़ कर चले गए हैं. अपनी 19 साल 47 सप्ताह की उपस्थिति के दौरान अमेरिका ने अफगानिस्तान में एक ऐसा देश खड़ा कर दिया था जिसका वह शासक नहीं था पर वहाँ उसका दिया हुआ लोकतंत्र अवश्य था.
अमेरिका ने 31 अगस्त 2021 तक की निर्धारित अवधि तक अपने बचे सवा लाख नागरिकों, सैनिकों और राजनयिकों को तो सुरक्षित बाहर निकल लिया पर उस देश को बाहर नहीं निकाल पाया जो उसके कारण पूरी तरह से पश्चिमी सभ्यता, वहाँ जैसी नागरिक आज़ादी , संस्कृति, आधुनिकता, शिक्षा, संगीत और खुलेपन का अभ्यस्त हो चुका था. किसी भी राष्ट्र के जीवन में बीस सालों का वक्त कम नहीं होता. इतने समय में अमेरिका में वह पीढ़ी जवान हो चुकी है जो नाइन-इलेवन के समय गर्भ में थी और आँखें खोलने पर अपने पिताओं की सूरतें नहीं देख पाई होगी. इधर अफगानिस्तान में भी उस पीढ़ी ने तालिबानी जुल्म नहीं देखे थे जिसने 27 अक्तूबर 2001 के बाद जन्म लिया और अब जवान हो चुकी है. काबुल और अन्य स्थानों पर इस समय जो युवा और महिलाएँ तालिबानी बन्दूकों के ख़ौफ़ से बिना डरे आज़ादी के लिए प्रदर्शन कर रही हैं उनमें ज़्यादातर उसी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं.
नागरिकों को ग़ुलामी देकर उसे उनसे वापस छीन लेना इस बात से सर्वथा भिन्न है कि उन्हें आज़ादी देकर वापस छीन ली जाए.लोगों की आँखों में लोकतंत्र के सपने भर देने के बाद उन्हें फिर से अतीत की अंधेरी गुफाओं में धकेल दिया जाए.अफगानिस्तान में यही हो रहा है. इसीलिए हामिद करजाई हवाई अड्डे से जब आख़िरी अमेरिकी सैनिक मेज.जन.क्रिस्टोफ़र टी डॉनह्यू ने अफ़ग़ान ज़मीन को विदाई दी तो तालिबानी लड़ाकों ने तो काबुल की सड़कों पर हर्ष फ़ायरिंग करते हुए जश्न मनाया पर अफ़ग़ान नागरिकों की आँखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा.
अमेरिका ने अफगानिस्तान में कुछ भी हासिल नहीं किया. नाइन-इलेवन के आतंकवादी हमलों में उसके 2977 नागरिक मारे गए थे और पिछले बीस सालों के दौरान उसके 2461 सैनिकों और अन्य नागरिकों को अफगानिस्तान में अपनी जानें गँवाना पड़ीं. दो ख़रब डालर से ज़्यादा के धन की बर्बादी एक अलग कहानी है. क्लायमेक्स यह है कि अफगानिस्तान भेजे गए कोई आठ लाख अमेरिकी सैनिकों को उनकी स्वदेश वापसी के बाद भी पता नहीं चल पाया है कि उन्हें अपनी ज़मीन से ग्यारह हज़ार किलो मीटर दूर किस मक़सद से भेजा गया था और इतनी क़ुर्बानियों के बाद भी वह मक़सद पूरा हुआ कि नहीं ? हम अपने यहाँ भारत में जिस अफगानिस्तान को लेकर चिंताएँ ज़ाहिर कर रहे हैं वह अब वहाँ उपस्थित नहीं है और अमेरिका भी वहाँ वापस नहीं लौटने वाला है.
यह कहना कि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी हुई है भी पूरी तरह से ठीक नहीं है.अमेरिका तो वहाँ कभी रहने के लिए गया ही नहीं था. न ही वह देश अमरीकियों का कोई पुश्तैनी ठिकाना रहा है.उसे तो कभी न कभी वहाँ से बाहर निकलना ही था. नई दिल्ली से सिर्फ़ हज़ार किलो मीटर दूर , अफगानिस्तान तो हमारा घर है.अमेरिका की तरह सिर्फ़ बीस सालों से नहीं सैंकड़ों वर्षों से. पृथ्वीराज चौहान के साम्राज्य के पूर्व से. उस वक्त के भी पहले से जब वहाँ बामियान में भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमाओं का निर्माण वहाँ हुआ होगा.सिर्फ़ वर्ष 1990 के लिए उपलब्ध आँकड़ों के ही अनुसार, वहाँ रहने वाले भारतीय मूल के नागरिकों की संख्या तब 45,000 थी.इनमें अधिकांश पंजाब क्षेत्र से थे और मुख्यतः काबुल,जलालाबाद में उनकी रिहाइश रही है.हम स्वीकार ही नहीं करना चाहते हैं कि वहाँ से वापसी तो असल में हमारी हुई है. अमेरिका ने तो दुनिया को जता भी दिया है कि वह अब वहाँ (या और भी कहीं) वापस नहीं जाने वाला है .सवाल तो यह है कि हमें आधिकारिक तौर पर यह नहीं बताया गया है कि क्या भारत को भी अब अमेरिका की ही तरह अफगानिस्तान कभी वापस नहीं लौटना है !
अभी यह भी साफ़ किया जाना बाक़ी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चिंता सिर्फ़ अफगानिस्तान की ज़मीन का आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देने तक ही सीमित है या लोकतंत्र की बहाली के लिए वहाँ चल रहे संघर्ष को भी भारत का समर्थन प्रदान करने की है . और क्या प्रधानमंत्री रूस और चीन की नाराज़गी की परवाह किए बग़ैर ऐसा करने का साहस दिखा सकेंगे ? निश्चित ही देश इस नाइन-इलेवन पर अफगानिस्तान की स्थिति को लेकर अपने प्रधानमंत्री के संकल्प के बारे में जानना चाहता है .