डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर,
सत्य धर्म केवल सत्य-सत्य कबोलना ही नहीं है किन्तु जो जीवों के हित में, उसकी प्रारक्षा में कहा जाय वह भी सत्य है। जीव रक्षा में भले ही कुछ झूठ भी बोलना पड़े तो भी सत्य व्रत में दोष नहीं कहा है। ‘सम्यं बू्रयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।’’ सत्य बोलना चाहिए, प्रिय भी बोलना चाहिए, ऐसा त्य भी न बोलें जो अप्रिया हो, जिससे किसी प्राणी की हिंसा हो रहीं हो उसकी जान जा रही हो।
कथानक है- एक राजकुमार को ज्ञात था कि अमुक संत मन की बात जान लेते हैं। वह उन्हें झूठा साबित करने के लिए एक चिड़िया लेकर भरी सभा में उनके सामने गया। पूछता है यह चिंडिया जीवित है या मृत? वह जीवित चिड़िया के गले पर हाथ का अंगूठा लगाये था, सोच कर गया था यदि उन्होंने बोला जीवित है तो अंगूठा से गला दबा कर मार संत को झूठा सावित कर देगा। और मृत बोला तो जीवित तो है ही। सन्त सारी बात समझ गये। उन्होंने राजकुमार के प्रश्न के उत्तर में कहा- ‘तुम यह मृत चिड़िया हाथ में लिये हुए हो। राजकुमार ने तुरत मुट्ठी खोल कर चिड़िया उड़ा दी और कहा इन संत को कुछ ज्ञात नहीं हो पाता ये झूठे हैं, देखो थोड़ी सी बात भी नहीं बता सके, इनके विषय में व्यर्थ कहा जाता है कि ये मन की बात जान कर सच बता देते हैं।संत ने कहा- राजकुमार! मैं तुम्हारे मन की सारी बात जान गया था, यदि में उसे जीवित बता देता तो तुम उसे मार देते। मेरे एक झूठ से यदि उस जीव की जान की रक्षा हो गई तो यह झूठ भी सत्य की श्रेणी में आता है। इसीलिए कहा है कि सत्य बोलें किन्तु प्रिय बोलें।
इसी तरह का एक और प्रसिद्ध उदाहरण आचार्य सुनीलसागरजी ने लिखा है। एक सन्यासी मार्ग पर पेड़ के नीचे बैठे ध्यान कर रहे हैं। वहाँ से एक हिरण भागता हुआ गया, कुछ ही देर में पीछे से शिकारी भागते हुए आ रहे हैं। बाबाजी सारा मामला समझ गए। रास्ते मेें कोई और दिखाई नहीं दे रहा, वह शिकारी सीघे बाबा के पास रुका व पूछा- ‘कोई हिरण यहाँ गया है क्या? किस दिशा में गया, आप बताओ।’ अब सन्यासी के लिए बड़ा घर्म संकट। सच बोल दें, कि हां, हिरण यहाँ से गया है, तो निश्चित रूप से ये शिकारी उसे मार डालेंगे, प्राणों का घात हो जाएगा। ऐसी विपदा में अब झूठ भी बोले तो व्रतों में दोष लगे, नियम टूट जाएँ। जहाँ अहिंसा की भावना हो, प्रशस्त मन हो, तो विवेक से रास्ता खोज निकालते हैं। बाबाजी वहां से खडे हो गए, अब मौन रहते हैं, तो खुद की जान का भी खतरा था, शिकारी पीछे-पीछे जाए तो हिरण के लिए जानलेवा हो जाए। तब खडे़ होकर सन्यासी बोले ‘देखो भाई साहब- जब से मैं खड़ा हूँ तब से यहाँ से कोई भी नहीं गया। ‘सच भी हो गया जान भी बच गई, समझे कुछ? हिरण तो जब वह बैठे थे तब वहां से गया था, पर यह नहीं कहना है। खडे़ हैं, फिर तो कोई नहीं गया, सच बात है। शिकारी ने बात मान ली, ज्यादा दिमाग नहीं लगाया व वापिस लौट गए। यह है सच्ची घर्मनिष्ठता।
सत्यवादी यदि ये पांच कार्य- परिवाद, रहोभ्याख्यान, पैशून्य, कूटलेखकरण और न्यासापहरण करता है तो उसके सत्य व्रत में दोष लगता है ये अतिचार कहलाते हैं। चारों ओर से दोषों का उल्लेखन करना ‘परिवाद’ है। सबसे सस्ता काम यदि कुछ है तो किसी की बुराई करना। आज कल बहुत बढ़ गया है सच्ची बात को झुठलाना। प्रायः व्यक्ति दिन रात दूसरों का लेखा- जोखा करता है। फलाना ऐसा है, ढिकाना ऐसा है। जिसकी बुराई कर रहे हैं उसका बुरा हो या न हो, तुम पक्के नीच गोत्र के पात्र बन रहे हो। दूसरों की बुराई में आपका परिवाद है, उसका त्याग करें। कहा है-
करो भलाई पर की, भला स्वयं का होगा।
करो बुराई पर की, बुरा स्वयं का होगा।।
विज्ञान भी स्वीकार करता है, जब हम दूसरों की बुराई करते हैं, हमारे कलुषित परिणामों के द्वारा जो आभा मण्डल का निर्माण होता है, वह काला व टूटा रहता है। शरीर में भी घातक रसायन होते हैं, मतलब पर निंदा, झूठा उपदेश देना तन, मन, जीवन की बर्बादी है।
किसी की गोपनीय बातें किसी अन्य को बता देना ‘रहोभ्याख्यान’ है। आपको किसी तरह कोई बात चाहे व्यापार की हो, घर-परिवार की हो, कुछ भी पता चला तो दूसरों को न बताएं वरना आप का व्रत टूटेगा, सामनेवाले का मन खराब होगा, हो सकता है रिश्ते भी टूट जाएं। इसलिए कहाँ कैसे सावघानी रखना चाहिये यह कहा गया है। पैशून्य का मतलब चुगली करना। चुगली करने से दूसरों का अपकार होता है, कलह होता है और हमारे सत्य व्रत में दोष लगता है।
झूठे दस्तावेज बनाना, झूठे हस्ताक्षर करना, पुरानी लिखावट में नई मिला देना अथवा उनमें काट छाँट कर देना आदि ‘कूटलेखकरण क्रिया’ है। पहले के समय में कुछ बेइमान महाजन सोना चाँदी आदि घन रखकर दूसरों को पैसा देते थे। कुछ समय बाद वह लेने आए तो बहाने बनाकर चीज हड़प लेते थे। विश्वास तोड़कर किसी की चीज ले लेना। कहकर बात मुकर जाना ‘न्यासापहारिता’ है।
घर गृहस्थी में रहते हुए इन सब दोषों की संभावना रहती है, इसलिए इन दोषों से बचने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिये। सत्व व्रत का पालन करने वाले को इन सब से भी दोष लगता है। हमें सत्य नहीं छोड़ना चाहिए, अन्त में सत्य की ही विजय होती है।
-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’,