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नेहरू से लेकर इंदिरा तक- संविधान ने कैसे बदली हिंदी की हैसियत

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देवेश शर्मा

14 सितंबर को पूरा भारत एक बार फिर राष्ट्रीय हिंदी दिवस मनाने जा रहा है। इस मौके पर याद दिला दें कि जिस देश के संविधान ने देवनागरी लिपि यानी हिंदी को तरजीह देते हुए आधिकारिक राजभाषा का दर्जा देकर उसका उत्थान किया। हिंदी को एक सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए वह एक क्रांतिकारी कदम था, लेकिन फिर भी देश में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता गया। 15 अगस्त, 1947 के दिन जब देश गुलामी की जंजीरों से आजाद हुआ था, तब इस देश में कई भाषाएं और सैकड़ों बोलियां बोलीं जाती थीं। इनमें हिंदी सबसे प्रमुख और ज्यादा बोली जाने वाली भाषा थी।

हिंदी दिवस

 
आज के दौर में विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है और अपने आप में एक समर्थ भाषा है। इंटरनेट सर्च से लेकर विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हिंदी का दबदबा बढ़ा है। 2001 की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.79 करोड़ भारतीय अपनी मातृभाषा के रूप में हिंदी का उपयोग करते हैं, जबकि लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी 50 से अधिक बोलियों में से एक का उपयोग करते हैं। हिंदी की प्रमुख बोलियों में अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली, हरियाणवी, कुमाउनी, मगधी और मारवाड़ी भाषाएं शामिल हैं। 

1949 में मिला था राज भाषा का दर्जा
जब संविधान बनने की प्रक्रिया शुरू हुई तो भारत की भाषा क्या हो? इस सवाल को लेकर लंबी चर्चाओं और विमर्श का दौर चला। किसी भी देश की आधिकारिक भाषा, वह हो सकती है, जो राष्ट्र को जोड़ने का काम करे। उस समय अधिकांश रियासतों में हिंदी बोली, पढ़ी-लिखी जाती थी। उस दौरान हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने की मांग लगातार उठ रही थी। फिर, 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को हमारी राज भाषा का दर्जा दिया गया था। भारतकोश के अनुसार, हिंदी की राज भाषा बनाने को लेकर संसद में तीन दिन 12 सितंबर दोपहर से 14 सितंबर तक दोपहर तक बहस हुई। 

पंडित नेहरू ने दिए थे ये तर्क
13 सितंबर, 1949 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संसद में चर्चा के दौरान तीन प्रमुख बातें कही थीं-
किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता।
कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती।
भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।

278 पृष्ठों में छपी थी बहस
भारतकोश पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, संविधान सभा की भाषा विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई। इसमें डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और गोपाल स्वामी आयंगार की अहम भूमिका रही थी। आखिरकार, अधिकतर सदस्यों ने देवनागरी लिपि को ही स्वीकार किया। भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343 (1) में इस प्रकार वर्णित है- संघ की राज भाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतरराष्ट्रीय रूप होगा। वहीं, अंग्रेजी भाषा को आधिकारिक तौर पर 15 वर्ष बाद यानी 1965 तक प्रचलन से बाहर करने था।

संविधान के साथ 14 भाषाओं संग स्वीकारी गई हिंदी
26 जनवरी, 1950 को जब हमारा संविधान लागू हुआ था, तब देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी सहित 14 भाषाओं को आधिकारिक भाषाओं के रूप में आठवीं सूची में रखा गया था। संविधान के अनुसार 26 जनवरी 1965 को अंग्रेजी की जगह हिंदी को पूरी तरह से देश की राज भाषा बनानी थी और उसके बाद विभिन्न राज्यों और केंद्र को आपस में हिंदी में ही संवाद करना था। इसे आसान बनाने के लिए, संविधान ने 1955 और 1960 में राजभाषा आयोगों के गठन का भी आह्वान किया। इन आयोगों को हिंदी के विकास पर रिपोर्ट देनी थी और इन रिपोर्टों के आधार पर संसद की संयुक्त समिति द्वारा राष्ट्रपति को इस संबंध में कुछ सिफारिशें करनी थीं।

लेकिन फिर शुरू हुआ बवाल और 1963 में हो गया बदलाव
लेकिन दक्षिण भारत के राज्यों में रहने वाले लोगों को डर था कि हिंदी के आने से वे उत्तर भारतीयों की तुलना में विभिन्न क्षेत्रों में कमजोर स्थिति में होंगे। हिंदी विरोधी आंदोलन के बीच वर्ष 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित किया गया था, जिसने 1965 के बाद अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा के रूप में प्रचलन से बाहर करने का फैसला पलट दिया था। हालांकि, हिंदी का विरोध करने वाले इससे पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे और उन्हें लगा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू या उनके बाद इस कानून में मौजूद कुछ अस्पष्टताएं फिर से उनके खिलाफ जा सकती हैं।

हिंसात्मक आंदोलन के कारण 1967 में अंग्रेजी पुन: लौटी
26 जनवरी, 1965 को, हिंदी देश की आधिकारिक राज भाषा बन गई और इसके साथ-साथ दक्षिण भारत के राज्यों, विशेष रूप से तमिलनाडु (तब मद्रास) में आंदोलन और हिंसा का एक जबरदस्त दौर चला और कई छात्रों ने आत्मदाह तक किया। इसके बाद तत्कालीन लाल बहादुर शास्त्री की कैबिनेट में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहीं इंदिरा गांधी के प्रयासों से इस समस्या का समाधान निकला, जिसके परिणामस्वरूप 1967 में राजभाषा अधिनियम में संशोधन किया गया कि जब तक गैर-हिंदी भाषी राज्य चाहे, तब तक अंग्रेजी को देश की आधिकारिक भाषा के रूप में आवश्यक माना जाए। इस संशोधन के माध्यम से आज तक यह व्यवस्था जारी है।

अंग्रेजी हावी हो गई, हिंदी 14 सितंबर तक सीमित
तब से तो कागजी तौर पर तो हिंदी राजभाषा बनी रही, लेकिन फली-फूली और समृद्ध होती गई अंग्रेजी भाषा। धीरे-धीरे देश की सरकारी मशीनरी ने हिंदी पर अंग्रेजी को तरजीह देते हुए उसी का चोला ओढ़ लिया। इसके बाद, अंग्रेजी भाषा की सरकारी व्यवस्था आधिकारिक तौर पर पकड़ और मजबूत होती गई और पूरे सिस्टम पर हावी हो गई।  जब 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया और इससे संबंधित महत्वपूर्ण प्रावधान संविधान के भाग-17 में किए गए। इसी ऐतिहासिक महत्व के कारण राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को 1953 से ‘हिंदी दिवस’ का आयोजन किया जाता है। इस दिन हिंदी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देने के लिए आयोजन किए जाते हैं। 

2014 में सत्ता बदलने के बाद आया बड़ा बदलाव
सत्ता और समय के साथ-साथ कई चीजें बदलती हैं। 2014 में जब केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा नीत एनडीए सरकार बनी तो सियासत से राज-काज और विदेश नीति तक में हिंदी भाषा को तरजीह मिलने लगी है। प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों द्वारा अधिकांश संवाद और ट्वीट भी हिंदी में किए जाने लगे हैं। प्रधानमंत्री भी वैश्विक मंचों पर हिंदी को बढ़ावा देते रहे हैं। और तो और अब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी हिंदी भाषा को प्राथमिकता दी गई है। किशोरावस्था तक बच्चों की पढ़ाई अपनी मातृभाषा में कराने के साथ ही इंजीनियरिंग और मेडिकल शिक्षा पाठ्यक्रम भी हिंदी भाषा में शुरू किए जा रहे हैं।  

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