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तालिबान आ तो गए हैं, लेकिन टिक पाएंगे?

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रंजीत कुमार

पंद्रह अगस्त को काबुल पर तालिबान का कब्जा होने के बाद सात सितंबर को प्रभावशाली कट्टरपंथी हक्कानी गुट के बहुमत वाली अंतरिम सरकार की घोषणा तो जैसे-तैसे कर दी गई, लेकिन उसके तीन सप्ताह बाद भी अफगानिस्तान में सुचारू नागरिक प्रशासनिक व्यवस्था बहाल नहीं हो सकी है। एटीएम में पैसे नहीं हैं। लोग घरों के कीमती सामान बेचने के लिए बाजार में खड़े हैं ताकि शाम के भोजन की व्यवस्था कर सकें। एक तरफ बाजारों में रोजमर्रा की चीजों की किल्लत है तो दूसरी तरफ सड़कों पर तालिबानी गुर्गे अपने हक के लिए प्रदर्शन कर रही औरतों को बंदूक की नोक से धकिया रहे हैं। दफ्तरों में सामान्य कामकाज बहाल नहीं हो सका है। महिला कल्याण मंत्रालय का नाम बदलकर शील और पाप मंत्रालय कर दिया गया है। अफगानी बैंकों के विदेश में जमा धन के इस्तेमाल पर अमेरिका ने रोक लगा दी है, अंतरराष्ट्रीय बैंकों से कर्ज पर पाबंदी लग चुकी है और अफगानिस्तान का अंतरराष्ट्रीय व्यापार ठप हो गया है।

आतंकित है नौकरशाही

तालिबान ने अभेद्य मानी जाने वाली विद्रोही पंजशीर घाटी पर कब्जा तो कर लिया है, लेकिन विद्रोही नेता अहमद मसूद और अमरुल्ला सालेह ने आत्मसमर्पण नहीं किया है। तालिबान पर इस्लामिक स्टेट के मिलिशिया के हमले अचानक तेज हो गए हैं। अफगानिस्तान पर चैन से शासन करने के लिए तालिबान को न केवल अपने गुटों के बीच सौहार्द पैदा करना होगा बल्कि ‘पंजशीर के शेरों’ और इस्लामिक स्टेट को भी काबू में करना होगा। 33 सदस्यों वाली कैबिनेट की घोषणा के बावजूद अंतरिम सरकार के मंत्रियों ने जिम्मेदारी से दफ्तरी दायित्व निबटाने शुरू कर दिए हों, इसके कोई संकेत नहीं मिल रहे। आतंकित नौकरशाह दफ्तरों से नदारद हैं। प्रधानमंत्री पद के दावेदार रहे लेकिन उप-प्रधानमंत्री बनाए गए मुल्ला बारादर काबुल में हक्कानियों द्वारा पीटे जाने के बाद भाग कर कंधार चले गए हैं। दोहा में अंग्रेजी बोलने वाले जो तालिबानी अंतरराष्ट्रीय समुदाय से सौदेबाजी कर रहे थे, वे अपनी जिम्मेदारी संभाालने काबुल नहीं लौट सके हैं। दोहा में तालिबान के अग्रणी वार्ताकार रहे स्टेनिकजाई, जिन्हें विदेश मंत्री बनाने की बात थी, उप-विदेश मंत्री घोषित तो किए गए हैं, लेकिन उनकी बोलती बंद है।

तालिबान ने पाकिस्तानी फौज के बल पर काबुल पर कब्जा तो कर लिया लेकिन अभी तक इसके नेताओं को समझ में नहीं आ रहा कि शासन आतंक के बल पर नहीं बल्कि अपनी जनता के सहयोग और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मिली मान्यता के बल पर ही चलाया जा सकता है। दुशान्बे में शंघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तालिबान के चरित्र का खुलासा करने वाले बयान (जिस पर पाकिस्तान और चीन ने भी एतराज नहीं किया) के बाद जिस तरह तालिबान को आतंक से परहेज करने की सलाह दी गई और जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि तालिबान को मान्यता सामूहिक फैसले से ही दी जाए, उससे तालिबान के गॉडफादर पाकिस्तान के सपने बिखर सकते हैं।

तालिबान को सबसे अधिक अमेरिका और उसके साथी देशों से राजनयिक मान्यता की जरूरत है, तभी उसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय और अन्य व्यापारिक मदद मिल सकती है। यह तभी मुमकिन होगा जब तालिबान वादा करे कि वह आम लोगों के मानवाधिकारों की गारंटी देने के साथ-साथ महिलाओं के प्रति हर तरह का भेदभाव भी खत्म करेगा। इसके बगैर तालिबान को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में शामिल नहीं किया जा सकता।

तालिबान न केवल अपने देश की जनता की मौन नाराजगी झेल रहा है बल्कि बाकी दुनिया से भी वह पूरी तरह कट चुका है। इस वजह से अफगानिस्तान में घोर मानवीय संकट पैदा हो गया है और वहां अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के जरिए मानवीय सहायता पहुंचाने की कवायद शुरू हो चुकी है। दिक्कत यह है कि सड़कों पर आम लोगों को आतंकित कर रहे अनपढ़ तालिबानी लड़ाकों को लगता है, अफगानिस्तान का शासन और समाज केवल शरिया कानूनों से ही चलेगा। इसकी हिमायत पाकिस्तान सरकार भी कर रही है, लेकिन इमरान खान को डर है कि कहीं अफगान तालिबान से प्रेरणा लेकर पाकिस्तानी तालिबान (टीटीपी) वहां भी इस्लामी अमीरात की स्थापना को लेकर हमलावर तेवर न अपना लें। चीन की यह चिंता भी दूर नहीं हुई है कि शिनच्यांग प्रदेश के उइगुर विद्रोही तालिबान से प्रेरणा लेकर उसके लिए परेशानी बढ़ा सकते हैं। भारत को आशंका है कि तालिबान राज में खाली और बेरोजगार हो चुके जिहादी कहीं कश्मीर की ओर अपना मुंह न मोड़ लें। अमेरिका और पश्चिमी देशों की चिंता है कि अफगानी धरती से अल कायदा फिर अपना फन न उठाने लगे।

तालिबान अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ऐसा कोई विश्वसनीय भरोसा नहीं दे सका है, जिससे उसकी सरकार के साथ सभी देश सामान्य रिश्ते बहाल कर सकें। इस स्थिति का फायदा चीन और पाकिस्तान उठाना चाहेंगे, लेकिन वे दोनों भी एक फलते-फूलते अफगानिस्तान से ही लाभ उठा सकते हैं। पाकिस्तान ने सोचा था कि तालिबान का इस्तेमाल वह भारत के मुकाबले अधिक सामरिक क्षमता हासिल करने के लिए करेगा। चीन को लग रहा था कि तालिबान को पाकिस्तान की तरह पिट्ठू बनाकर अपने बेल्ट एंड रोड प्रॉजेक्ट का विस्तार करते हुए उसे मध्य एशिया और पश्चिम एशिया तक ले जाने में कामयाब होगा। मगर ये मंसूबे पूरे होते नहीं दिखते। तालिबान राज में एक महीने में ही जर्जर हो चुके अफगानिस्तान से चीन और पाकिस्तान भी क्या दोहन करेंगे?

अंधकारमय भविष्य

इस स्थिति में एक बड़ा सवाल यह उठता है कि तालिबान कब तक काबुल पर विराजमान रह पाएगा। तालिबान में आपसी कलह और हिंसक झगड़े भी तेज होते जाएंगे क्योंकि सत्ता में सभी गुटों को भागीदारी नहीं मिली है। विभिन्न तालिबानी गुट कह रहे हैं कि उन्होंने जो कुर्बानियां दी हैं उनका इनाम उन्हें नहीं मिला तो वे चुप नहीं बैठेंगे। ऐसी स्थिति में अफगानिस्तान का भविष्य काफी अंधकारमय लग रहा है। पाकिस्तान और चीन की परोक्ष मदद की बदौलत तालिबान काबुल की सत्ता पर बैठ तो गया है, लेकिन वहां टिकेगा कब तक?

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