निर्मल कुमार शर्मा
हमारे देश में गरी़बी का रोना बहुत रोया जाता है !हमारी सरकारें भी इसी गरी़बी का रोना रोकर शिक्षा के लिए बजट निर्धारित करने में भी खूब कोताही करती नजर आ रही हैं । यहाँ कुल सकल घरेलू उत्पाद मतलब जीडीपी का मात्र 3.83 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च होता है,वहीं भारतीय वाणिज्य एंव उद्योग मंडल यानी एसोचैम के अनुसार अमेरिका,जर्मनी और ब्रिटेन अपनी जीडीपी का क्रमशः 5.22 प्रतिशत,4.95 प्रतिशत और 5.72 प्रतिशत खर्च करते हैं,चूँकि इन देशों का जीडीपी भारत के मुकाबले बहुत ज्यादे है, इसलिए उन देशों में शिक्षा पर होने वाले खर्च की मात्रा भारत से कई गुना ज्यादे है ! एक आकलन के अनुसार भारत में शिक्षा की वर्तमान में जो दयनीय स्थिति है,उस हिसाब से भारत को विकसित देशों के समकक्ष खड़े होने में अभी और 126 साल लग जायेंगे,तब तक यहाँ की छः पीढ़ियाँ गुजर चुकी होंगीं ! आधुनिक समय में दुनिया के तमाम देश अपने देश के लोगों को शिक्षित करने के उद्देश्य से अपने शिक्षा बजट में उत्तरोत्तर वृद्धि कर रहे हैं,वहीं इसके उलट भारत सरकार ने इस शिक्षा के पिछले साल के बजट में से भी आश्चर्यजनकरूप से 18000 करोड़ रूपये की कटौती करके,पिछले साल के शिक्षा बजट में निर्धारित राशि 43000 करोड़ रूपये से घटाकर इस वर्ष का पूरे देश का शिक्षा बजट मात्र 25000 करोड़ रूपये करने का एकदम अतार्किक, अप्रत्याशित और बेहद निराशाजनक फैसला किया है,उन्हीं के पदचिन्हों पर चलते हुए,शिक्षा के क्षेत्र में अत्यन्त पिछड़े प्रदेश,उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री जी भी दुःखद रूप से अपने शिक्षा के बजट में 9000 करोड़ रूपये की कटौती करके सबको और भी निराश किया है,जबकि उत्तर प्रदेश की आबादी 22 करोड़ से ज्यादे है,इस मामले में उत्तर प्रदेश के पड़ोसी राज्य दिल्ली के लोग बहुत खुशनसीब हैं कि उनके राज्य का शिक्षा बजट उनके मात्र लगभग दो करोड़ की आबादी के लिए ही दिल्ली सरकार अपने कुल बजट का 26 प्रतिशत मतलब 13997 करोड़ रूपये खर्च कर रही है ।
अभी पिछले दिनों विश्व बैंक की तरफ से दुनिया के सबसे खरा़ब शिक्षा देने वाले बारह देशों की एक लिस्ट में भारत का बेहद शर्मनाक स दूसरे स्थान पर है,पहले स्थान पर अफ्रीकी महाद्वीप का एक अनजाना सा और अति निर्धन देश मलावी है ! भारत अपने पड़ोसी निर्धन कहे जाने वाले देशों यथा श्रीलंका,म्यांमार और ईरान से भी पीछे है !विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में भारत की छवि अत्यन्त पिछड़े देशों में से एक के रूप में होती है ! इसी परिप्रेक्ष्य में विश्व बैंक के प्रमुख जिम योंग की एक कटु परन्तु सत्य टिप्पणी है कि, ‘ज्ञान का संकट नैतिक और आर्थिक दोनों तरह का होता है,अगर शिक्षा अच्छी दी जाती है,तो वह शिक्षार्थी बढ़िया नौकरी,आय और स्वस्थ्य जीवन पाते हैं नहीं तो वे पूरी जिंदगी गरी़बी में जीने को अभिशप्त होते हैं। ‘ विश्व की एक सम्मानित यूनिवर्सिटी ‘टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी ‘की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 250 शीर्ष उच्च शिक्षा संस्थानों में एक भी भारतीय उच्च शिक्षा संस्थान का नाम नहीं है । भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों में आदर्श माने जाने वाले संस्थानों में आईआईटी दिल्ली, कानपुर,मद्रास,खड़गपुर और रुड़की भी 401-500 की रैंकिंग से लुढ़ककर 501 से 600 के रैंकिंग में चले गये हैं। बीएचयू की हालत तो और भी बदतर है,उसकी रैंक 601 से 800 के बीच है। सिर्फ आईआईटी मुम्बई की रैंकिंग ही 351-400 के बीच में है !
उच्च शिक्षा में भारत सरकार की नीतियां और भी उपेक्षित हैं उच्च शिक्षा में भारतीय बजट सिर्फ 1.2 प्रतिशत की अति दयनीय स्तर पर है ! अभी पिछले दिनों मोदी ऐंड कंपनी सरकार ने सरकारी मेडिकल कालेजों और आईआईटी इंजिनियरिंग कालेजों की फीस में बेतहाशा वृद्धि करके,एक आम भारतीय नौकरीपेशा या मध्यम वर्ग आदमी के बच्चों तक को, गरीबों की बात तो छोड़ ही दीजिए,भारत सरकार के नीति नियंताओं ने उच्च शिक्षा से एकदम वंचित ही कर दिया है ! उदाहरणार्थ सरकारी मेडिकल कालेजों की फीस पहले 7 सात लाख रूपये से एकदम बढ़ाकर 23 लाख रूपये करके भारत सरकार के कर्णधारों ने आम भारतीयों के बच्चों के उच्च शिक्षा प्राप्त करने के सपने देखने तक के मार्ग को भी पूर्णतया अवरूद्ध कर दिये हैं ! अक्सर सरकारें शिक्षा क्षेत्र में भी शिक्षा को गरीब बच्चों के लिए शिक्षा ऋण को समाधान के रूप में गुणगान के रूप में प्रस्तुत करतीं हैं,परन्तु शिक्षा ऋण गरीब बच्चों के लिए वरदान न होकर अभिशाप सिद्ध हो रहा है ! पहली बात भारत में शिक्षा के बाद रोजगार की कोई गारंटी नहीं है,दूसरा अगर किसी गरीब के बच्चे की नौकरी लग भी गई तो उस शिक्षा ऋणी को अपनी आधी जिन्दगी ऋण चुकाने में ही लग जायेगा ! जिससे उसके और जरूरी कार्यों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा,शिक्षा ऋणी को किसी अच्छी नौकरी न मिलने और ऋण न चुकाने की वजह से वर्तमान समय में किसानों की तरह शिक्षार्थियों में भी आत्महत्या की दर अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है !
भारत में पहले से ही बदहाल शिक्षा व्यवस्था वर्तमान समय के मोदी ऐंड कंपनी राज में और भी चरमरा गई है,ढह गई है ! देश भर में फैले प्राथमिक,मिडिल और माध्यमिक शिक्षा के भवनों की हालत अत्यन्त जर्जर हो चुकी है, विशेषकर उत्तर प्रदेश,बिहार,मध्यप्रदेश और राजस्थान के सरकारी स्कूलों की स्थिति अत्यन्त खराब है । इन जर्जर हुए भवनों की वजह से बच्चे बारिश और खुले में पढ़ने को बाध्य हैं ! अधिकतर ग्रामीण स्कूलों में बच्चों को पीने का पानी तक नहीं है,89 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय तक नहीं हैं ! भारतीय समाज में जातिगत् दुर्भावना इतनी गहरे तक बैठी है,कि एक रिपोर्ट के अनुसार कथित उच्च जाति के मंत्रीजी लोग अपनी जाति विशेष के बाहुल्यता वाले गाँवों में सरकारी स्कूल खोलने की अनुशंसा करते हैं,लेकिन बाकी जगहों को ऐसे ही छोड़ देते हैं,जिसके फलस्वरूप यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश के पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के बाहुल्यता वाले अधिकांश गाँवों में अभी तक सरकारी स्कूल ही नहीं हैं ! न भविष्य में खोले जाने की कोई उम्मीद है !
शिक्षा का उद्देश्य भी समाज और सरकारों की जरूरत और महत्व के अनुसार बदलता रहता है,जैसे राजतंत्रीय और अधिनायकवादी व्यवस्थाओं में व्यक्तित्व की,चरित्र निर्माण की उपेक्षा करके कथित समाज और राज्य हित को शिक्षा के सर्वोपरि लक्ष्य के रूप में निर्धारित कर दिया जाता है,जैसे जर्मनी में हिटलर के समय में वहाँ की जनता में शिक्षा का उदेश्य सिर्फ कथित राष्ट्रवादी उफान और स्वयं को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ होने की भावना को लक्ष्य करके सिर्फ अपने देश के प्रति श्रद्धा,अपारभक्ति तथा त्याग की भावना को ही विकसित किया गया,जो करोंड़ों यहूदियों और दुनियाभर में अगणित नर संहार के रूप में सामने आया ! एक प्रसंग में एक दार्शनिक का कथन है कि, ‘स्वेच्छाचारी राज्यों में चाहे वे राजतन्त्र हों अथवा तानाशाही,वहाँ शिक्षा का उद्देश्य केवल अपने शासकों के प्रति अपार श्रद्धा तथा उनकी आज्ञा का पालन करना ही होता है। ‘ आज भी एक विशेष शिक्षा पद्धति में,जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक अनुसांगिक संगठन सेवा भारती द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर कहते हैं,उनकी पुस्तकों मे पूरे भारत से अलग भारत का राष्ट्रीय पशु बाघ की जगह चीता दर्शाया जा रहा है ,जबकि सम्पूर्ण चीता प्रजाति का ही ,इस देश से पिछली शताब्दी में ही राजा-महाराजाओं द्वारा अंधाधुंध शिकार करने की वजह से,पूर्णतया विलोपन हो चुका है,यह सर्वमान्य तथ्य है,इसके अतिरिक्त अत्यन्त दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है,कि इस विशेष शिक्षा पद्धति की किताबों के विद्वान लेखकगणों द्वारा,विश्वप्रसिद्ध मानव विकास के सर्वमान्य सिद्धांत कर्ता, ‘ डार्विन के विकास के सिद्धांत ‘ को नकारते हुए प्राइमरी कक्षाओं में यह पढ़ाया रहा है कि , ‘डार्विन का विकास का सिद्धांत एकदम गलत है,वे उसे नहीं मानते,वे कथित मनु महाराज के सिद्धांत को मानते हैं,जो यह बताता है कि मनुष्य का विकास कपियों से बिल्कुल नहीं हुआ,हमारा जन्म हमारे मनुष्य रूपी पूर्वजों से ही हुआ ‘ ,इनके पूर्वजों का इस पृथ्वी पर उद्भव कहाँ से हुआ ? इस पर ये पाखण्ढ परोसती किताबें पूर्णतया मौन हैं !अब अन्दाजा लगाइये वर्तमान शासन व्यवस्था में भारत के नौनिहालों का सामान्य ज्ञान का क्या स्तर होगा ?जब वे उच्च कक्षाओं में जायेंगे,तब वैज्ञानिक सम्मत किताबें पढ़कर उनके लिए यह निर्णय करना कठिन हो जायेगा,कि आखिर मानव के विकास के लिए कौन सा सिद्धांत सही है ? विश्व में अपने सर्वोत्तम शिक्षा पद्धति के लिए लोहा मनवा चुका फिनलैंड नामक उत्तरी यूरोप के एक छोटे से देश के शिक्षा का परम् उद्देश्य , ‘ केवल अधिकतम नम्बर लाना नहीं बल्कि विद्यार्थी को एक अच्छा इंसान बनाना भी है !’ यह छोटा सा देश एक विश्वस्तरीय संस्था पीसा यानी प्रोग्राम फ़ॉर इंटरनैशनल स्टूडेंट असेसमेंट या पीआईएसए रैंकिंग के आकलन के अनुसार पिछले काफी समय से विश्व के बेहतरीन शिक्षा देने वाले पन्द्रह देशों के क्लब में प्रथम स्थान पर रहकर अपनी सर्वोच्चता कायम रखे हुए है । इस देश में आश्चर्यजनक रूप से भारत से एकदम अलग व्यवस्था है । यहाँ स्कूली स्तर पर शिक्षा का एक भी प्राइवेट स्कूल यानी कथित पब्लिक स्कूल ही नहीं है,यहाँ के 99 प्रतिशत बच्चे सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में उच्चशिक्षित-प्रशिक्षित शिक्षकों द्वारा शिक्षा ग्रहण करते हैं ।
यहाँ शिक्षा के नाम पर भारत जैसे,बच्चों का मानसिक विकास अवरूद्ध नहीं किया जाता ,यहाँ बच्चों का बचपन नहीं छीना जाता,यहाँ के बच्चे छः साल तक खूब शारीरिक और मानसिक विकास करने के बाद अपनी उम्र के सातवें बसंत में स्कूली शिक्षा का शुभारम्भ करते हैं । यहाँ के बच्चों पर हर साल परीक्षा का मानसिक दबाव भी नहीं बनाया जाता ! अपनी उम्र के 16 वें साल में वे एक मानकीकृत परीक्षा में सम्मिलित होते हैं । वहाँ बच्चों को कोई होमवर्क नहीं दिया जाता,स्कूलों में ही योग्य शिक्षकों द्वारा शिक्षा देना पर्याप्त समझा जाता है ! घर पर बच्चों को पूर्ण विश्राम करने से अगले दिन उनका मस्तिष्क खूब तरोताजा रहता है । उस देश में कोई कोचिंग सेन्टर नहीं हैं ! स्कूली शिक्षा पूर्णतया निःशुल्क है ! वहाँ पढ़ने में कमजोर बच्चों को अलग से कक्षाएँ चलाकर स्कूल के शिक्षकों द्वारा ही अतिरिक्त समय में उन्हें बिल्कुल निःशुल्क मदद की जाती है ! वहाँ की कक्षाएँ मात्र 15 मिनट की होतीं हैं,ताकि बच्चे बाकी समय में स्वतंत्र चिंतन कर सकें !तैयारी कर सकें ,तनावमुक्त रह सकें ! वहाँ स्कूल-शिक्षार्थी-अभिभावक यानी स्कूल-स्टूडेंट-पैरेंट्स मतलब एसएसपी को बहुत महत्व दिया जाता है जैसे स्कूल में ही बच्चों को पढ़ाने के लिए होम वर्क कराने के लिए और शारीरिक विकास के लिए प्रतिदिन क्लास के बाद आराम के लिए 15 मिनट का और पूरे दिन में 75 मिनट का अतिरिक्त समय खेलने के लिए दिया जाता है। एक विज्ञान की कक्षा में 16 बच्चों से अधिक नहीं रखा जाता, ताकि हरेक बच्चे को ठीक से पढ़ाया जा सके और प्रैक्टिकल कराने में आसानी हो । वहाँ के सोलह साल की उम्र तक के बच्चों को बिल्कुल निःशुल्क शिक्षा और प्रतिदिन बहुत ही पौष्टिक,साफ-सुधरा और स्वास्थ्यवर्धक मध्यान्ह का भोजन भी बिल्कुल निःशुल्क सरकार द्वारा दिया जाता है । वहाँ के गरीब बच्चों को भी,गरी़बी शिक्षा में कभी भारत जैसे देश की तरह कभी भी बाधक नहीं बनती ! भारत में तो गरी़बी ने शिक्षा की नींह को ही हिलाकर रख दी है । स्वाभाविक तौर पर भूख से बिलबिलाते बच्चे कैसे पढ़ेंगे ? वहाँ के सूदूर ग्रामीण क्षेत्र में भी शिक्षा का वही स्तर बरकरार रखा गया है जो शहरों में है,वहाँ का कोई मंत्री शिक्षा के मन्दिरों में जातिगत् आधार पर भारत की तरह भेद-भाव नहीं करता,समदर्शी विचारधारा अपनाया जाता है । बच्चों को प्राइमरी से उच्च शिक्षा तक अपनी पढ़ाई अपनी मातृ भाषा में पढ़ाई जाती है,ताकि बच्चे शिक्षकों द्वारा पढ़ाई गई एक-एक बात को ठीक से सोच-समझ सकें,भारत जैसे विदेशी भाषा अँग्रजी को वहाँ के विद्यार्थियों पर कभी थोपा नहीं जाता ! परीक्षाएं भी अपनी मातृभाषा में ही ली जातीं हैं,वहाँ अँग्रेजी एक भाषा के रूप में ऐच्छिक विषय के रूप में पढ़ना होता है ।
अन्त में हमारे देश में किसी भी गंभीर समस्या का समाधान,शालीनता,बुद्धिमत्ता,तार्किकता और वैज्ञानिकता से न करके ढोंग,पाखंड और अवैज्ञानिक तरीके से कर,स्वयं को समाचारों की सुर्खियों में रहने की एक परंपरा और एक सामान्य सामाजिक सोच बन गई है,चाहे प्रदूषण का मामला हो,वृक्षारोपण का हो,शिक्षा का मामला हो,भ्रष्टाचार का मामला हो,गरी़बी का मामला हो ,स्वास्थ्य का मामला हो या कोई भी समस्या हो हर जगह झूठ,भ्रम और गलतबयानी की जाती है,पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से कोई काम ही नहीं होता !अमेरिका जैसे विश्व के सबसे अमीर देश में भी भारतीय शिक्षा माफियाओं की तर्ज पर प्रतिवर्ष बच्चों को पाठ्यक्रम बदलकर नई किताबों को खरीदने को बाध्य नहीं किया जाता ,क्योंकि इससे पर्यावरण,प्रकृति,देश,समाज सभी का नुकसान होता है ! प्रति वर्ष करोड़ों-अरबों की संख्या में नई पुस्तकों को प्रकाशित करने में देश के लाखों पेड़ जो हमारी साँसों को स्पंदनयुक्त करने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं,ऑक्सीजन देने के एकमात्र श्रोत हैं,उनको प्रतिवर्ष अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ती है ! आखिर इस मोटी सी बात को यहाँ की नेता-ठेकेदार-ब्यूरोक्रेट्स की तिकड़ी कब समझेगी ? वैसे यथार्थहकीकत और कटुसच्चाई यह है कि उक्त भ्रष्ट व आमजनविरोधी त्रयी प्रति वर्ष अपने अरबों रूपये के फायदे के लिए प्रति वर्ष कथित पब्लिक स्कूलों में पाठ्यक्रम बदलती रहती है ! यक्षप्रश्न है भारत जैसे देश के लोगों में फिनलैंड जैसे देश के लोगों जैसे सभ्य, स्वस्थ्य,सुसंस्कृत और देशहित की सोच कब तक विकसित होगी !
–निर्मल कुमार शर्मा ,प्रताप विहार ,गाजियाबाद ,