शशिकांत गुप्ते
जब भी देश में कोई दर्दनाक घटना घटित होती है।मेरे मित्र राधेश्यामजी बहुत व्यथित हो जातें हैं।राधेश्यामजी की मानसिक स्थिति इस कहावत की तरह हो जाती है। कजीजी दुबले क्यों हैं,शहर के अंदेशे से मतलब व्यर्थ की चिंता करना।
जब राधेश्यामजी को बहुत ही व्यथित अवस्था में देखा तब,मैंने एक प्रचलित सलाह दे दी।
मनुष्य को जब किसी समस्या का कोई हल नहीं मिलता है,तब ऐसा कहा जाता है,ऊपर वाले पर छोड़ देना चाहिए?
राधेश्यामजी झल्लाकर कहने लगे आप आ गए न अपनी औकात पर अंततः आप व्यंग्यकार हो आप इसीतरह बाते करोगे?
राधेश्यामजी कहने लगे ऊपरवाले से क्या गुहार,अलग से करनी पड़ेगी? वह सर्वशक्तिमान है न?क्या उसे कुछ दिखाई नहीं देता है?
व्यंग्यकार महोदय, ऊपरवाले को छोड़ दो यहॉ पर मतलब इस धरा पर जो शीर्ष पर ऐंठ कर बैठें हैं।प्रधान सेवक बनकर बैठे हैं,उनको भी कुछ दिखाई सुनाई नहीं दे रहा है?
मैं समझ गया राधेश्यामजी मानसिक रूप से उत्तरप्रदेश के लखीमपुर खीरी में पहुँच गए हैं?राधेश्यामजी ने अपना आक्रोश जारी रखते हुए कहा की इतनी असंवेदनशीलता तो कभी देखी ही है।सच में जो हो रहा है वह सब पहली बार ही हो रहा है।
एक ओर आठ लोगों की दर्दनाक मौत होती है,बहुत से नागरिक घायल होतें हैं दूसरी ओर अमृत महोत्सव का जश्न मनाया जाता है।
अपने देश में आमजन में इतनी मानवता विद्यमान होती है कि,मोहल्ले में यदि किसी की मृत्यु हो जाती है तो पूरा के पूरा मोहल्ला शोक में डूब जाता है।
हमारे अपने देश में मतलब भारत में यदि मोहल्ले में किसी के भी यहाँ कोई गमी हो जाती है, सभी वहाँ चले जातें हैं,और सेवा कार्य में लग जातें हैं
भलेही इहलोक सिधारने वाले व्यक्ति से या उसके परिजनों में किसी से मतभेद हों,ऐसी गमी के समय सब कुछ भूल कर मानवता का परिचय देतें हैं।
विचर भिन्नता तो मानवीय गुण है।लेकिन दुर्भाग्य से संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त लोग विचार भिन्नता को वैमनस्यता समझतें हैं।
उपर्युक्त आचरण लोकतांत्रिक सोच के विपरीत है।
मैंने राधेश्यामजी को शांत किया,उन्हें समझाया,और कहा कि,आप अपने क्रोध पर संयम रखिए।
राधेश्यामजी संभल गए,सामान्य हुए।खुद ही कहने लगे अति का अंत सुनिश्चित है।अहंकार कभी भी लंबे समय तक टिकता नहीं है
अहंकार तीनों गए,धन वैभव और वंश
यकीन हो तो देख लो रावण,कौरव और कंस
शशिकांत गुप्ते इंदौर