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सत्य स्वीकारने का साहस होना चाहिए*

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शशिकांत गुप्ते

सन 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म सिंकदर-ए-आजम में गीतकार राजेंद्रकृष्णजी ने लिखे इस गीत का स्मरण हुआ,
जहाँ डाल-डाल पर
सोने की चिड़ियां करती है बसेरा
वो भारत देश है मेरा
जहाँ सत्य, अहिंसा और धर्म का
पग-पग लगता डेरा
वो भारत देश है मेरा
यह गीत का मुखड़ा है।
राजेंद्रकृष्णजी ने गीत के प्रत्येक बन्द में भारत की महिमा को वर्णित किया है।
यह महिमा सिर्फ गीतों में ही पढ़ने सुनने में कर्णप्रिय लगती है।
सत्य अहिंसा और धर्म,यह तीनों शब्द पढ़ सुन कर हर कोई गौरवाविन्त हो जाता है।
राधेश्यामजी इस गाने यह पंक्ति भी गा रहे थे
जहाँ आसमान से बाते करते
मंदिर और शिवाले।
इन पंक्तियों का स्मरण करतें ही गर्व का अनुभव होता है।
जहाँ आसमान से……
राधेश्यामजी यह पंक्ति दोहरा रहे थे,उसी समय उनके घनिष्ठ मित्र सीतारामजी ने उनपर व्यंग्य कर दिया।
जरा नीचे भी देख लिया करो?
राधेश्यामजी मुस्कुराते हुए बोले कोई भी मौका मत छोड़ना व्यंग्य करने का?
सीतारमजी ने कहा नीचें से ऊपर नहीं देखना चाहिए।ऊपर से नीचे देखना चाहिए,तब जमीनी हक़ीक़त दिखाई देती है।
नीचें से ऊपर देखना अहंकार का प्रतीक होता है।गर्दन भी अकड़ जाती है।अकड़ शब्द घमंड का पर्यायवाची शब्द है।
भूखे भजन न होई गोपाल इस मुहावरे का भी स्मरण कर लेना चाहिए।
मौको कहाँ ढूंढे है रे बन्दे मैं, तो तेरे पास में
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना काशी कैलाश मेें
सीतारामजी ने उक्त पंक्तियां सुनाते हुए यह स्पष्टीकरण भी दे दिया कि,यह पंक्तियां लगभग सात सौ वर्ष पूर्व संत कबीर साहबजी ने कही है।इनदिनों स्पष्टीकरण देना बहुत अनिवार्य है।
राधेश्यामजी ने कहा आप जैसे प्रगतिशील कहलाने वालों की यही आदत होती है।हर मुद्दे पर व्यंग्य करना आलोचना करना और राजनीति करना।
सीतारामजी ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि, हर एक गलत नीति का विरोध,अन्याय का विरोध,ही राजनीति है।राजनीति सिर्फ सत्ता प्राप्त करने के लिए ही नहीं होती है?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सदुपयोग करना ही तो आलोचना होती है?
व्यंग्य तो समाज सुधार की सशक्त विधा है।
राधेश्यामजी ने कहा अच्छे तर्क कर लेतें हो।
सीताराम ने जवाब दिया कि, भगवत गीता पढ़ने पर यही शिक्षा मिलती है,बगैर तर्क के कोई भी बात नहीं मानना चाहिए।
तार्किक बहस ही तो तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता का प्रमाण है।
तर्क से ही वैचारिक क्रांति होती सम्भव है।
किसी भी मुद्दे को जस का तस मान लेना मानसिक अपरिपक्वता की निशानी है। धार्मिक,राजनैतिक,सामाजिक,आर्थिक और सांकृतिक क्षेत्र में हो रही विकृति का परिणाम तार्किक बहस का न होना ही है।
समाजवादी विचारक,चिंतक,
स्वतंत्रता सैनानी डॉ रामनोहर लोहियाजी ने लोगों को धारा के विपरीत चलने की प्रेरणा दी है।धारा के साथ तो तिनका भी बह जाता है।
राधेश्यामजी ने सीतारमजी को प्रणाम करते हुए कहा कि,मैं समझ गया कि आपके पास सिर्फ तर्क नहीं है,तथ्यपूर्ण अध्ययन भी है।
सीतारामजी कहा सिर्फ मेरी प्रशंसा कर मुद्दों से पलायन करने की कौशिश मत करों, स्वयं में सत्य को स्वीकार करने का साहस पैदा करों।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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