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असहमति को कुचलना लोकतंत्र नहीं हैं!

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अनिल त्रिवेदी
लोकतंत्र अकेली सहमति का तंत्र नहीं हैं।हर बात में सबको सहमत होना ही होगा यह राजशाही ,सामंतशाही या  तानाशाही की जीवनी शक्ति तो हो सकती है पर लोकतंत्र में असहमति की मौजूदगी हीं लोकतंत्र को जीवन्त बनाती  हैं।सब एक मत हो और एक अकेला  व्यक्ति भी असहमत हो तो ऐसी अकेली और निर्भय   आवाज को अल्पमत मान अनसुना कर देना, नकारना या कुचल देने को  भले ही कोई तत्वत: तानाशाही न माने। महज़ मनमानी या बहुमत का विशेष अधिकार मानें पर ऐसा व्यवहार किसी भी रूप में जीवन्त लोकतांत्रिक व्यवस्था तो  निश्चित ही नहीं माना जा सकता हैं।

लोकतंत्र नाम से नहीं, निर्भय अकेली आवाज को निरन्तर उठाने देने और उठाते रहने से हीं परिपूर्ण और प्रभावी बनता हैं। लोकतंत्र पक्ष विपक्ष की विवेकजन्य समझदारी का तंत्र है। लोकतंत्र में असहमति को हर किसी को अपना विचार या मत अभिव्यक्त करने का मूलभूत अधिकार निहित होता हैं। किसी को भी वैचारिक अभिव्यक्ति से रोका नहीं जा सकता।  लोकतंत्र में निर्णय भले ही बहुमत से होते हो पर बहुमत से असहमत होने का मूलभूत अधिकार तो असहमतों को हर हाल में उपलब्ध ही हैं। लोकतंत्र में बहुमत और अल्पमत दोनों को यह अधिकार हैं की वे निर्भय होकर अपनी अपनी बात खुलकर रखें एक दूसरे को सुनें समझें तब निर्णय करे। लोकतंत्र में प्रतिबंध लगाने की प्रवृति ही नाजायज हैं ।केवल प्रतिबंध लगाने की प्रवृति पर ही प्रतिबंध जायज़ है ।बाकी सारे प्रतिबंध लोकतंत्र विरोधी ही मानें जायेगे। भारत में लोकतंत्र को आये ७५साल गुज़र गये। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं। फिर भी भारत के लोगों और भारत के राजनैतिक सामाजिक पारिवारिक और प्रशासनिक तंत्र में असहमतों और असहमतियों को हाथों हाथ नहीं लिया जाता ।सारे के सारे सहमत विचार असहमतों के विचारों पर तत्काल हमलावर हो जाते हैं।सहमतों को लगता है की असहमत उनके काम में अड़ंगा हैं। यदि असहमतियों का कोई मतलब ही नहीं होता तो दुनिया में लोकतंत्र के विचार का जन्म ही नहीं होता।इस नजरिए से सोचा जाए तो असहमतियों और सहमतियों के सह-अस्तित्व से ही वास्तविक लोकतंत्र निरन्तर सही मायने में चलाया और निखारा जा सकता है।   

 भारतीय लोकतंत्र में जनता को तो अपना जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार है पर जनप्रतिनिधियों को हमेशा अपना नेता चुनने का अधिकार होते हुए भी कई बार चुनने का अवसर ही नहीं मिलता। भारत के अधिकांश राजनैतिक दल अपने सांसद विधायक को स्वतंत्र रुप से नेता चुनने का अवसर या अधिकार ही नहीं देते हैं। प्रायः चुनाव का स्वांग रचते हैं। संविधान बोलने की आजादी देता हैं पर लोकतंत्र में राजनैतिक दलों द्वारा अपने अपने दल में खुल कर बोलने का अवसर या अधिकार कार्यकर्ताओं और नेताओं को  प्रायः नहीं मिल पाते। साथ ही लोकतान्त्रिक राजनैतिक दलों में भी आम कार्यकर्ता अपने ही नेतृत्व से सवाल जवाब की हिम्मत नेताओं की नाराज़गी के भय से नहीं कर पाते।सभी लोकतांत्रिक राजनैतिक  दलों में भी सवाल खड़े करने वाले का स्वागत नहीं होता।इसी कारण आजादी के पचहत्तर वर्षों के बाद भी भारत के राजनैतिक दल कार्यकर्ताओं और सार्वजनिक जीवन में लोकतंत्र जीवन्त नहीं बन पाया। सभी दलों में हांजी हांजी का साम्राज्य खड़ा हो गया। आजादी के पचहत्तर साल बाद भी हमारा निजी और सार्वजनिक जीवन सामन्ती सोच से ऊपर नहीं उठ पाया है। यहीं हाल लगभग भारत के आम और खास नागरिकों का भी बन गया है । हम बात तो लोकतंत्र की करते हैं परन्तु हम सबका आचरण प्रायः सामंती प्रवृत्ति का पोषक ही बना हुआ है।तभी तो भारतीय राजनीति में सर्वोच्च नेतृत्व चाहे वह किसी भी पक्ष का हो उसका तो निरन्तर महिमा मंडन होता रहता है पर नागरिकोंऔर राजनैतिक कार्यकर्ताओं का निर्भीक व्यक्तित्व एवं कृतित्व  पचहत्तर साल के लोकतंत्र और आजादी में भी वैसा निखर नहीं पाया है जैसा होना चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जीवन्त नागरिक और राजनैतिक दलों में विचार-विमर्श करने वाले विचारशील कार्यकर्ताओं का अभाव या पराभव भारतीय लोकतंत्र को पूरी तरह यांत्रिक भीड़तंत्र में बदल रहा है।दो राजनैतिक दलों के कार्यकर्ता या एक ही राजनैतिक दल के कार्यकर्ताओं के विचारों में मत-मतांतर होना लोकतांत्रिक व्यवस्था की मौजूदगी का प्रतीक है। पर हम सब देख रहे हैं आज हमारे राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं और परिपक्व नेताऔर नागरिक भी विचार विमर्श से दूर जाने लगे हैं और बहस करने से कतराते हैं। लोकतंत्र में यदि बहस से परहेज़ होगा तो राजनीति तो यंत्रवत जड़ता में बदल ही जावेगी। आज़ादी के पचहत्तर साल बाद यदि आपसी विचार-विमर्श खत्म सा हो जाय तो फिर नागरिक और लोकतंत्र नाम के ही होंगे, काम के नहीं। भारत के लोकतंत्र को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है और वह हैं भी।पर बड़ा होना उतना उल्लेखनीय नहीं हैं जितना जीवन्त और जागरूक नागरिकता का निरन्तर लोकमानस में मौजूद न होना। 

     भारतीयों पर सदियों से राजाओं, मुगलों और अंग्रेजों का राज रहा और इन सारे राज्यकर्ताओं की राजाज्ञाओं को प्रजा को मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। इसी से आजादी के बाद अस्तित्व में आये लोकतंत्र का पचहत्तर साल बाद भी पूरा चरित्र दलों और सरकार के स्तर पर भी लोकतांत्रिक नहीं बन पाया है। आज भी भारत का लोकमानस बहुत कम मात्रा में लोकतांत्रिक बन पाया हैं।आज भी जनतंत्र पर सामंती सोच और संस्कारों का गहरा प्रभाव दिखाई देता है।देश प्रदेश और नगरीय निकाय के शासन प्रशासन की बात भी नहीं करें।केवल ग्रामीण क्षेत्रों में ग्राम पंचायत में लोकतंत्र की चर्चा करें तो सरपंच भी ग्राम सभा को जीवन्त नहीं करना चाहता और ग्रामीण जनता भी ग्राम सभा को सफल और प्रभावी बनाने में रुचि लेती नहीं दिखाई देती। ज्यादातर ग्राम सभाओं में कोरम भी उपस्थित नहीं हो पाता और कागज़ पर औपचारिक रूप से ग्राम सभा हो जाती है।यह हमारी लोकतंत्र के प्रति जागरूकता की समझ है।विधायी कार्य व्यापक विचार विमर्श से न होकर प्रायः जल्दबाजी में होता हैं।नीचे से ऊपर तक हमारे यहां लोकतंत्र की यहीं समझ है की चुनाव होना और कैसे भी चुनाव जीतना यहीं लोकतंत्र का मूल है। कार्यपालिका न्यायपालिका और विधायिका से लेकर शासन प्रशासन और नगरीय निकाय ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के जीवन क्रम में लोकतंत्रात्मक तौर तरीकों में वैसी समझ संस्कार भारत के लोकमानस में पचहत्तर साल के बाद भी खड़ी नहीं हो सकीं हैं जो एक जीवन्त लोकतंत्रात्मक समाज और सरकार में होना चाहिए।यह हमारे लोकजीवन और लोकतंत्र की सच्चाई है। आज पौन सदी के बाद भी हम लोकतांत्रिक मूल्यों और मानस को भारत के लोकजीवन में निखार नही  पाए। इसीसे नागरिकों और व्यवस्था दोनों में लोकतंत्र के प्रति समर्पण भाव और जागरूकता नहीं दिखाई देती हैं। जागरूकता के बगैर और जी हुजूरी से जीवन ही चलना संभव नहीं है फिर भी हम मानतेऔर गर्व करते हैं की हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश है। हमारे लोकतंत्र में कई  सारी कमजोरियां महसूस हो रही हैं या स्पष्ट दिखाई देती  हैं। आमलोगों की भागीदारी और ताकत सबको महसूस होनी चाहिए। चुनीं हुई सरकार को लोकतंत्र को हर संभव कोशिश कर बेहतर बनाने में मदद करने में सक्षम और सफल होना ही चाहिए। लोकतंत्र का लोगों का लोगों के द्वारा और लोगों के लिए ही जन्म हुआ है। लोकतंत्र का यह मूल स्वरूप बनायें रखना जनता ,सरकार और चुने हुए नेतृत्व या बिना चुने हुए आगेवान लोगों  का निरन्तर व्यक्तिश: कर्तव्य और सामूहिक उत्तरदायित्व भी है। यदि सभी लोकतंत्र को लेकर अनमने ही बने रहे तो हम अपनी आजादी और लोकतंत्र का नाम स्मरण तो करते रह सकते हैं, पर आजादी और लोकतंत्र को निजी और सार्वजनिक जीवन में साकार नहीं कर सकेंगें। यहीं आज के भारत की सबसे बड़ी चुनौती है।
              अनिल त्रिवेदीत्रिवेदी परिसर ३०४/२ भोलाराम उस्ताद मार्ग ग्राम पिपल्या राव आगरा मुम्बई राजमार्ग इन्दौर (म.प्र.)

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