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सवाल नीति का है, कानून का नहीं

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राजेन्द्र चौधरी

हालांकि किसानों का लम्बा आंदोलन नये कृषि कानूनों को लेकर है, पर मसला केवल कानूनी नहीं है। यद्यपि नये कृषि कानूनों की आलोचना में एक सवाल कृषि पर केंद्र द्वारा कानून बनाने की वैधानिकता का भी उठाया गया है, पर किसानों के नजरिये से देखें तो यह सब से बड़ा मुद्दा नहीं है। असली मुद्दा इन कानूनों के पारित करने की विधि एवं प्रक्रिया का नहीं है अपितु इनकी अंतर्वस्तु, इनके सार का है। खेती करने का कौन-सा तरीका भारत जैसे देश के लिए उपयुक्त है, यह नीति का विषय है न कि कानून का।

इसलिए किसानों ने अदालत का रुख न कर के सरकार का रुख किया। बड़े पैमाने पर न केवल किसानों बल्कि अर्थशास्त्रियों समेत व्यापक बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा इन कानूनों की कड़ी आलोचना के बावजूद सरकार की हठधर्मिता के चलते यह अहसास व्यापक हुआ था कि सरकार के लिए अब यह नाक का सवाल हो गया था। सरकार हर तरह से इन कानूनों में बदलाव करने को तो तैयार थी पर कानूनों को रद्द करने को तैयार नहीं थी। इस परिस्थिति में अदालत से गतिरोध तोड़ने की एक आस बनी थी। हालांकि, अदालत की भूमिका, पंच की भूमिका केवल कानूनी विवाद में ही हो सकती है पर अदालत की इस टिप्पणी से कि इन कानूनों को एक साल के लिए लंबित कर दिया जाए, इस गतिरोध को तोड़ने की एक आस बनी थी। यह एक ऐसा रास्ता हो सकता था जो तात्कालिक रूप से किसानों की चिंता का समाधान कर सकता था क्योंकि फिलहाल कम से कम एक साल के लिए ये कानून निष्प्रभावी हो जाते और सरकार की नाक भी बची रहती क्योंकि कानून तत्काल रद्द नहीं होते।

परन्तु विडंबना कि किसानों को यह राहत भी नहीं मिली। हालांकि ऊपरी तौर पर अदालत ने तीनों कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी है परन्तु अपने 12 जनवरी के आदेश के अगले ही पैरा (14(ii)) में इसको सीमित करते हुए अदालत ने कहा है कि अगले आदेश तक न्यूनतम समर्थन मूल्य की वर्तमान व्यवस्था जारी रहेगी एवं नये कानूनों के तहत किसान से ज़मीन छीनने की कोई कार्रवाई नहीं की जा सकेगी। आमतौर पर अगर अदालत अपने निर्णय को सीमित न कर के अतिरिक्त स्पष्टीकरण हेतु कुछ जोड़ती है तो उसके पूर्वार्ध में ‘अन्य बातों के अलावा’ होता है। इस मामले में अदालत ने ऐसा कुछ नहीं किया। इस का अर्थ है कि अदालत के इस आदेश में ऐसा कुछ नहीं है जो किसानों ने मांगा हो या जो सरकार ने देने से मना किया हो, और अब अदालत ने दे दिया हो। अदालत के नवीनतम आदेश के बिना भी अभी भी जैसी आधी-अधूरी न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था है, वह चल ही रही है, और फिलहाल किसी अदालत में नए कृषि कानूनों के चलते किसान की ज़मीन छीनने का कोई मुकदमा नहीं चल रहा है। इसलिए अदालत के निर्णय से नया कुछ नहीं हुआ सिवाय इस बात के कि अब अगर किसान चाहें तो कोरोना और सर्दी के अगले दो महीने सरकार से वार्ता न कर के अदालत द्वारा गठित कमेटी से बात करें। सरकार अगर चाहे तो किसानों से वार्ता करने से ही इनकार करके उन्हें कमेटी से बात करने को कहे।

न केवल नये कृषि कानून परन्तु सरकार का मनमाना रवैया, केवल किसानों के लिए हानिकारक न होकर पूरे देश के लिए चिंता का विषय है। हालांकि, सरकार की हठधर्मिता के लिए किसी अतिरिक्त सबूत की ज़रूरत नहीं है फिर भी अदालत द्वारा गठित कमेटी की संरचना ही इसकी पुष्टि करती है। अगर सरकार चाहती तो अदालती कार्रवाई के अवसर के माध्यम से वर्तमान गतिरोध को समाप्त करने की कोशिश कर सकती थी। अगर वह ऐसा चाहती तो अदालत के पहले के सुझाव को मान कर कम से कम एक साल के लिए नए कृषि कानूनों को पूरी तरह से निष्प्रभावी करने की घोषणा कर के अपनी नाक भी बचा सकती थी। जनता की अदालत के कुछ हिस्सों में शाबाशी भी लूट सकती थी। जब तक आंदोलनकारी किसान संगठन अपने आंदोलन को शांतिपूर्वक बनाए रखेंगे, तब तक जनता की अदालत उनके साथ बनी रहेगी। शायद अब समय है कि देश और जनता के अन्य प्रबुद्ध तबके भी नैतिक समर्थन से आगे बढ़कर स्पष्ट रूप से सरकार को बता दें कि वे नये कृषि कानूनों और उसकी मनमानी के विरोध में हैं।

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