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डॉ. कोटणीस की अमर कहानी

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छिंदरपाल

चीन के शिजियाझुआंग में डॉ. द्वारकानाथ कोटणीस की प्रतिमा“उसकी याद केवल आपके या हमारे लोगों की ही नहीं, बल्कि समूची मानवता की मुक्ति और विकास के लिए लड़ने वाले महान योद्धाओं की है। भविष्य उसे वर्तमान से कहीं अधिक सम्मान देगा, क्योंकि उसने भविष्य के लिए संघर्ष किया।
फ़ौज़ ने मददगार हाथ खो दिए हैं, एक देश से एक दोस्त खो गया है। आओ हम उनकी अंतरराष्ट्रीय भावना को हमेशा के लिए मनों में बसा लें।”


डॉक्टर कोटणीस की मौत पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और समाजवाद के निर्माता माओ-त्से-तुंग के ये शब्द डॉक्टर कोटणीस की महानता व्यक्त करते हैं। डॉक्टर कोटणीस एक बलिदान भरी, निष्काम और मानवतावादी ज़िंदगी का नाम है, जिसने अपने डॉक्टरी पेशे को सही मायनों में लोगों को समर्पित किया। डॉक्टर कोटणीस ने ज़िंदगी के आख़िरी पाँच साल चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में मानवता की मुक्ति के लिए लड़ रहे लाल सैनिकों की सेवा में लगाए, जिससे उन्होंने चीन के लाखों लोगों का दिल जीत लिया। अपने पेशे और मानवता की मुक्ति के लिए चल रही योजना को समर्पित होकर कोटणीस ने अपनी आख़िरी सांस भी चीन में ही ली।
डॉक्टर कोटणीस का पूरा नाम द्वारकानाथ शांताराम कोटणीस था। कोटणीस का जन्म महाराष्ट्र के सोलापुर में एक मध्य वर्गीय परिवार के घर 10 अक्टूबर 1910 को हुआ। विश्व के अलग-अलग हिस्सों में स्वास्थ्य विज्ञान का अभ्यास करने के मक़सद से कोटणीस ने बॉम्बे यूनिवर्सिटी के सेठ जी.एस. मेडीकल कॉलेज से डिग्री हासिल की। उस समय जब 1930 और 40 के दशक में चीन और भारत, दोनों में ही उथल-पुथल का दौर चल रहा था, चीन की जनता कम्यूनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सामंतवाद और उपनिवेशवाद के गठबंधन के ख़िलाफ़ जूझ रही थी और उसी समय भारत में भी अंग्रेज़ उपनिवेशवादियों से आज़ादी की लड़ाई ज़ोरों पर चल रही थी। उथल-पुथल के इस दौर में भारत में से पाँच डॉक्टर चीन में अपनी सेवाएँ देने के लिए गए। डॉक्टर कोटणीस जिन्होंने 1938 में अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई ख़त्म कर, अगली पढ़ाई की तैयारी शुरू कर दी थी। इस मौक़े पर जब चीन में सेवाएँ देने की बात आई तो उन्होंने अपनी सेवाओं के लिए खु़द को पेश किया। परिवार के विरोध के बावजूद भी कोटणीस अपने इस फ़ैसले पर अटल रहे। परिवार के लिए चीन लड़ाई का घर था। कोटणीस नागपुर के डॉ. एम. चोलकर, कलकत्ता के डॉ. बी.के. बासू और दीबेश मुखर्जी और इलाहाबाद के डॉ. एम. अटल के साथ चीन गए।
डॉ. कोटणीस के इस फ़ैसले ने उनकी अगली ज़िंदगी ही बदल दी। मानवता के लिए प्यार, सेवा भावना और बलिदान के जज़्बे से लबालब कोटणीस चीनी जनता के संघर्ष की ओर खींचे गए। सामंती और उपनिवेशवादी ज़ंजीरों से मुक्ति हासिल करके अपने भाग्य के मालिक बनने की लड़ाई लड़ रहे चीनी समाज ने कोटणीस को मंत्रमुग्ध कर दिया। कोटणीस के साथ भारत से गए पाँच डॉक्टरों ने पूरी शिद्दत से ज़ख़्मी सैनिकों का इलाज किया, उन्होंने सेना के साथ सचल क्लीनिकों में अपनी सेवाएँ दीं। काम इतना ज़्यादा था कि हर रोज़ तक़रीबन 800 सैनिक डॉक्टरी सहायता के लिए उनके पास आते थे। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पुरालेखों के अनुसार, 1940 में जापानी सैनिकों के ख़िलाफ़ चल रहे दीर्घ युद्ध में, डॉक्टर कोटणीस ने बिना सोए, बिना रुके लगातार 72 घंटे ऑप्रेशन किए। एक पखवाड़े में कोटणीस ने अपनी छोटी-सी टीम के साथ हर रोज़ 50 ऑप्रेशन किए। डॉक्टर कोटणीस को चीनी सेना में प्लेग की बीमारी की रोकथाम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और बिना किसी संकोच के वैक्सीन के लिए सबसे पहले खु़द को पेश किया। जापानी साम्राज्यवाद के साथ चली इस लड़ाई में जहाँ चीनी सेना सख़्त प्रयास कर रही थी, वहीं डॉक्टरों का जीवन भी कोई आसान नहीं था। उन्हें भी सैनिकों की तरह बहुत थोड़े साधनों के साथ ग़ुज़ारा करना पड़ता था। डॉक्टर कोटणीस ने युद्ध के हालातों में किसी भी तरह की विशेष तवज्जो लेने से इंकार किया। एक दफ़ा किसी एक छात्र द्वारा चोरी से कोटणीस के बर्तन में चावल रख दिए गए तो उन्होंने इन चावलों को खाने से इंकार किया, कि जब देश की समूची जनता अभाव भोग रही है तो वे इसे कैसे खा सकते हैं। जब जापान के साथ युद्ध समाप्त हुआ तो सारे डॉक्टर भारत लौटने के लिए तैयार हो गए, लेकिन डॉक्टर कोटणीस ने चीन में ही रहने का फ़ैसला किया। वे चीनी जनता द्वारा एक जनपक्षधरता वाले समाज, समाजवाद की स्थापति के लिए लड़ी जा रही जंग के अंतरराष्ट्रीय महत्व को समझ गए थे और इस महान ऐतिहासिक परिवर्तन में अपनी सेवाएँ देना अपना फ़र्ज़ समझ रहे थे। चीन में चल रहे युग परिवर्तनकारी संघर्ष का ज़िक्र वे आम तौर पर भारत, अपने घर भेजे ख़तों में लगातार करते रहते थे। उन्हें इस बात की ख़ुशी होती कि चीनी जनता उन्हें बेग़ाना नहीं बल्कि अपना मानते हुए, उनकी दी गई सेवाओं के लिए उनका शुक्रिया अदा करने आती है।
डॉक्टर कोटणीस अपनी लगन और प्यार की बदौलत चीनी जनता में लोकप्रिय हो गए। कोटणीस ने अब चीनी समाज में इंसान के हाथों इंसान की लूट के अंत के लिए चल रही लड़ाई को ही पूरी तरह अपना जीवन समर्पित कर दिया और ख़ुद को चीनी समाज का ही हिस्सा बना लिया। सैनिकों की सेवा करते हुए कोटणीस उनकी विचारधारा, मार्क्सवाद से भी प्रभावित थे। उन्होंने धीरे-धीरे चीनी भाषा भी सीख ली। चीनी लोग कोटणीस को केडीहुया दाइफ़ू कहा करते थे। केडीहुया, कोटणीस का चीनी नाम और दाइफ़ू का मतलब था डॉक्टर। उत्तरी चीन में चल रही लड़ाई में सेवाएँ देने के बाद कोटणीस 1939 में कॉमरेड माओ के नेतृत्व वाली आठवीं सैन्य टुकड़ी में भी शामिल हुए। यहाँ भी डॉक्टर कोटणीस दिन के अधिकतर पल, बिना थके, बिना सोए मरीज़ों के इलाज में जुटे रहते। उनकी इस भावना को देखते हुए ही डॉक्टर कोटणीस को कैनेडीयन डॉक्टर नार्मन बैथ्यून, जिन्होंने निष्काम होकर समाजवादी चीन के निर्माण की योजना में अपनी डॉक्टरी सेवाएँ उपलब्ध कराईं, के नाम पर बने बैथ्यून अंतरराष्ट्रीय शांति अस्पताल का निर्देशक बनाया गया।
यहीं डॉक्टर कोटणीस को ग्यू किंगलिन नाम की एक नर्स से प्रेम हुआ। दिसंबर 1941 में दोनों लोगों ने शादी कर ली और अगस्त 1942 में उनके घर बेटे ने जन्म लिया। लेकिन डॉक्टर कोटणीस विवाहित जीवन में ज़्यादा देर नहीं रह सके। लगातार काम के बोझ के चलते उनका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था और 9 दिसंबर 1942 को बेटे के जन्म के कुछ ही समय बाद मिर्गी के दौरे से उनकी मौत हो गई। उन्हें चीन में नानकुयान गाँव में योद्धाओं की धरती पर बाइज़्ज़त दफ़नाया गया।
चीनी जनता डॉक्टर कोटणीस की निष्काम सेवा भावना को अथाह प्यार करती थी। उनके लिए यह पूरी न की जा सकने वाली क्षति थी। साथ ही यह कामरेड माओ के शब्दों में पूरी दुनिया में मानवता की मुक्ति में जुटे लोगों के लिए क्षति थी। डॉक्टर कोटणीस अपनी मौत के तक़रीबन आठ दशक बाद भी लोगों की यादों में ज़िंदा हैं। डॉक्टर कोटणीस की ज़िंदगी एक अंतरराष्ट्रीय, मानवतावादी, सेवा भावना और जनमुक्ति के लिए आत्म बलिदान की परंपरा की एक मशहूर मिसाल है। उनके जन्म दिवस की वर्षगाँठ पर उन्हें याद करने का मतलब केवल एक इंसान के रूप में नहीं, बल्कि मानवता के प्रति उनके समर्पण और भावना को अपनाते हुए, जनता की मुक्ति योजना की चल रही जद्दोजहद में शामिल होना है।
*– छिंदरपाल*

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