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खादी अगर ठान ले तो सुधर जाएगी खाकी

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वंदना सिंह

लखीमपुर खीरी हो या हाथरस, दिल्ली के दंगे हों या जेएनयू हिंसा का मामला, या फिर हाल ही में कासगंज पुलिस कस्टडी में हुई युवक की मृत्यु, पिछले कुछ सालों में खाकी का रोल विवादास्पद रहा है। देश के अलग-अलग राज्यों में पुलिस कभी अपनी संवेदनहीनता या राजनीतिक झुकाव की वजह से चर्चा में रहती है, तो कभी कार्रवाई में देरी या भ्रष्टाचार की वजह से। ज्यादातर केसों में पुलिस समय से चार्जशीट तक फाइल नहीं कर पाती है। पिछले 20 सालों में पुलिस हिरासत में 1888 लोगों की मौत हुई है, पर सजा सिर्फ 26 पुलिसकर्मियों को हुई।

आखीर पुलिस व्यवस्था इतनी बदनाम और खराब क्यों है? हम इस व्यवस्था से जुड़ी समस्याओं का समाधान निकालने की तरफ निर्णायक कदम कब उठाएंगे? पुलिस व्यवस्था को नजदीक से देखें तो समझ आता है कि एक तरफ यह संसाधनों और संख्या बल की कमी से जूझ रही है तो दूसरी तरफ पुलिसकर्मियों में संवेदनशीलता की भारी कमी है।

यूएन रिकमेंडेशन है कि पुलिस-जनसंख्या का अनुपात 222 प्रति लाख होना चाहिए, जो देश में केवल 195.39 है। 2017 में संसद में एक प्रश्न के जवाब में केंद्रीय मंत्री ने बताया था कि देश में पुलिस बल अपनी निर्धारित क्षमता से लगभग 5 लाख कम हैं। देश की राजधानी दिल्ली की पुलिस भी लगभग 21 फीसद कमी के साथ काम कर रही है। पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक देश में पुलिस की निर्धारित क्षमता 26.23 लाख की है, जबकि पुलिस की असल क्षमता मात्र 20.91 लाख ही है। यह समस्या आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है।

राजधानी दिल्ली में भी हालात बहुत खराब हैं। दिल्ली की लगभग 25 फीसद पुलिस वीआईपी सुरक्षा में लगी रहती है। राजधानी होने की वजह से ज्यादातर बड़े राजनीतिक कार्यक्रम या प्रदर्शन यहीं होते हैं, जिनमें इनकी ड्यूटी लगती है। दिल्ली महिला आयोग में ज्यादातर केस पुलिस के संवेदनहीन और बुरे व्यवहार के आते हैं। शिकायतकर्ता बताते हैं कि कई बार पुलिस उन्हीं को डराने व धमकाने लगती है या उनके विपक्षी से पैसे लेकर कोई एक्शन नहीं लेती। यही नहीं, पुलिस का राजनीतिक इस्तेमाल भी सामने आया है। इससे यह जरूरी हो गया है कि राज्य स्तर पर एक स्टेट पुलिस बोर्ड का गठन हो, जो ट्रांसफर, पोस्टिंग या प्रमोशन से जुड़े मामले देखे। साथ ही पुलिस के खिलाफ शिकायतों के लिए राज्य और जिला स्तर पर पुलिस कंप्लेन अथॉरिटी बने।

देश में पुलिस रिफॉर्म की कहानी कई दशक पहले शुरू हुई थी, लेकिन आज भी यह निर्णायक कदम के इंतजार में है। नेशनल पुलिस कमीशन (1978-82), पद्मनाभैया कमिटी (2000), मलिमथ कमिटी (2002-03) ने पुलिस सुधार के लिए सुझाव दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केंद्र और सभी राज्य सरकारों द्वारा पुलिस रिफॉर्म सुझावों पर एक्शन की प्रगति जानने के लिए रेबेरो कमिटी (1998) भी बनी।

सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई 2008 को अपने 22 सितंबर 2006 के आदेश के तहत दिए गए विभिन्न सुझावों को लागू करवाने के लिए जस्टिस केटी थॉमस की अध्यक्षता में एक कमिटी बनाने का आदेश दिया था। बीच-बीच में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से प्रगति पर रिपोर्ट भी मांगी। इस केस की आखिरी सुनवाई 16 दिसंबर 2012 को हुई थी और सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों से जवाब मांगा था। गृह मंत्रालय ने एफिडेविट के जरिए अपना जवाब 26 फरवरी 2013 को जमा करवाया। मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।

किसी भी देश की पुलिस व्यवस्था वहां के आम लोगों के लिए न्याय पाने की दिशा में पहली सीढ़ी होती है। इसलिए जरूरी है कि हमारी पुलिस व्यवस्था दुरुस्त हो। हमारे पास आधुनिक तकनीक से लैस पर्याप्त पुलिस बल हो, और वह संवेदनशील हो। पुलिस राजनीतिक प्रभाव से दूर रहे। मगर पुलिस चूंकि राज्य का विषय है तो देश में पुलिस सुधार का रास्ता इतना आसान नहीं है। फिर भी मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो कुछ भी संभव है। राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में देश को माननीय सुप्रीम कोर्ट से ही बदलाव की उम्मीद है।

(लेखिका दिल्ली महिला आयोग की सदस्य हैं।)

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