~ कृष्ण कांत त्रिपाठी
हिंसक होकर आप नेताओ के तलवे चाटे,राजनीति कहें तो आप भोंके,राजनीति कहें तो आप काटे।”
‘विवेक विद्यार्थी’ जी की उपर्युक्त पंक्तियां वर्तमान समय में राजनीति के बदलते परिवेश पर युवाओं के लिए सटीक बैठती हैं।
साधारणतः युवाओं के बारे में ऐसी बातें प्रचलित हैं कि उनकी इच्छाशक्ति हिमालय से भी विशाल होता है वे जो ठान लें कर सकते हैं।परन्तु वर्तमान समय में युवाओं कि इच्छाशक्ति समाप्त होती जा रही है और उसका मुख्य वजह है स्वविवेक का अभाव।युवाओं से उम्मीद की जाती रही है कि उनका अतीत से रिश्ता कमजोर रहेगा और वे सुनहरे भविष्य को पाने हेतु नए दुर्गम रास्तों को चुनेंगे।मगर वास्तव में वर्तमान समय में युवा “लकीर के फकीर” बनते दिख रहे हैं।उनके सोचने समझने की शक्ति आज भी अपने अतीत के साथ हीं बढ़ रही है।
अतीत के साथ चलना बुरा नहीं है मगर अतीत को हीं वर्तमान में जारी रखना कहीं न कहीं रूढ़िवादिता है और रूढ़िवादिता विकास की बाधक है।गांधी उन्नीसवीं शताब्दी में प्रासंगिक थे उनके विचार अनुकरणीय थे,परन्तु आज के परिपेक्ष्य में जब दुनिया मिसाईल बना चुकी है और परमाणु बम की धमकियां हर रोज मिल रही हों ऐसे में अहिंसा के बल पर दुश्मन से दो हांथ करना कहीं भी तर्कसंगत नहीं है।जब विश्व में इंसानों से ज्यादा हथियार हो गए हों तो ऐसे में आप निहत्थे होकर हथियार वालों को डरा तो नहीं सकते हैं हां उनके रहमोकरम पर जीवित जरूर बच सकते हैं।
कांग्रेस ने भारत पर लगभग साठ वर्षों तक एकनिष्ठ शासन किया।उसने अपने स्तर तक विकास में भी कोई कोताही नहीं किया।मगर कांग्रेस ने भी अहिंसा को उतना हीं अख्तियार किया जितनी आवश्यकता थी।जरूरत पड़ने पर उसने भी 1962 में भारत चाइना युद्ध हो,1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध हो,1971 का भारत पाकिस्तान युद्ध हो या फिर 1975 का ऐतिहासिक इमरजेंसी हो किसी भी कड़े निर्णय को लेने से गुरेज नहीं किया।क्योंकि तत्कालीन शासकों ने इस बात को समझ लिया था कि गांधी के विचार अनुकरणीय हैं मगर सर्वदा नहीं।
भारत में सत्ता परिवर्तन के उपरांत एक ऐतिहासिक माइंडेड के साथ नरेंद्र मोदी का सत्ता में आगमन हुआ और देश की जनता इस उम्मीद के साथ ऐतिहासिक जीत दिलाई क्योंकि उन्हें एक सशक्त शासक कि आवश्यकता थी जो आवश्यकता पड़ने पर कड़े से कड़े फैसले लेने में न हिचके।इस जीत के जो आधार स्तम्भ थे वो इस देश के युवा थे,जिन्होंने अपनी इच्छाशक्ति को सशक्त किया और विशाल जीत के भागीदार बने।हालांकि शुरुआती दौर में मोदी ने जनता के विश्वास को खूब जीता और जनता के फैसले को सही साबित किया।परन्तु सत्ता की कुर्सी में हीं दोष है, जो भी इस पर बैठता है और ज्यादा देर बैठने की लालसा जगा देती है।यह लालसा हीं गलत फैसलों को भी मंजूरी देने को मजबुर कर देती है।जिसे सत्ता की सहिष्णुता कह सकते हैं।
वर्तमान मोदी सरकार ने भी सत्ता के सहिष्णुता को हीं अपनाया है और एक के बाद एक गलत फैसले ले रही है मगर दुर्भाग्य है देश के युवाओं का उन्होंने उन फैसलों का विरोध नहीं किया।वो चाहते तो एहसास दिला सकते थे कि आखिर हमने सत्ता की बागडोर सौंपी क्यों है।मगर उन्होंने गलत फैसलों को या तो स्वीकार कर लिया या फिर विरोध के नाम पर दो चार सोशल साइट्स पर पोस्ट कर दिए।विरोध को कभी धरातल पर नहीं लाए।चाहे किसान कानून की मनमानी नीतियां रही हों या फिर सुप्रीम कोर्ट के एससी एसटी एक्ट को बदलने का फैसला,किसी भी फैसले का युवाओं द्वारा विरोध दर्ज नहीं हुआ।विरोध का काम किया तो बुजुर्गों ने,वे बुजुर्ग जो अतीत के अंश थे।अतीत कभी भी वर्तमान संग मिलकर नहीं रह सकता क्योंकि अतीत का दाग वर्तमान के साथ साथ चलता है।परन्तु यह जानते हुए भी युवाओं ने उनसे आंदोलन अपने हांथो में नहीं लिया।युवाओं ने बस सोशल मीडिया से आंदोलन जारी रखा।
कल जब भारत के प्रधानमंत्री का चुनावी रैली पंजाब में आयोजित थी और मौसम के हाल को देखते हुए रूट डाइवर्जन की वैकल्पिक सुविधा उपलब्ध थी।ऐसे में प्रधानमंत्री के सुरक्षा में चूक कहीं न कहीं सरकारी व्यवस्था के लचर कानून व्यवस्था को उजागर करता है और ऐसे में केंद्र सरकार और पंजाब सरकार के बीच एक दूसरे पर जिम्मेवारी थोपने की प्रक्रिया और गैरजिम्मेदाराना है।आखिर आप देश के प्रधानमंत्री हैं आपके पास एक ऐतिहासिक माइंडेड की सरकार है फिर आप राजनीतिक इच्छाशक्ति क्यों नहीं दिखा रहे हैं?क्यों नहीं कोई सशक्त निर्णय ले रहे हैं?आखिर क्यों अपने आप को असहाय साबित कर रहे हैं?देश की जनता ने एक सशक्त शासक को कुर्सी दिया था,असहाय राजनेता को नहीं।यदि कड़े निर्णय ले पाना संभव नहीं है आपके लिए, तो फिर छोड़ दीजिए कुर्सी और त्याग दीजिए सत्ता के अभिलाषा को,क्योंकि सत्ता की अभिलाषा हीं शासक को नपुंसक बना देती है।
युवाओं ने सुरक्षा में इस चूक को मजाक में लिया और अतीत का अनुसरण किया जबकि वास्तव में युवाओं को इस चूक के लिए केंद्र और राज्य दोनों से सवालात करने थे कि आखिर जब देश के प्रधानमंत्री के सुरक्षा में इतनी बड़ी चूक हो सकती है तो फिर आम नागरिक की सुरक्षा का क्या होगा?राजनैतिक कारण जो भी बताए जाएं कि भीड़ कम थी तो यह कहानी रची गई या फिर अचानक मार्ग परिवर्तन से ऐसा हुआ परन्तु वास्तविकता यही है कि जब भारत ने सुरक्षा कारणों में हीं अपने दो दो प्रधानमंत्री गवां दिए हैं साथ हीं साथ ताशकंद की घटना जगजाहिर है ऐसे में इस प्रकार की असावधानी मजाक का विषय कैसे बन सकता है?
आखिर जिम्मेवार कब तय होंगे?जब कुछ बहुत बड़ी अनहोनी घटित हो जाएगी तब?जबकि पुलवामा से लेकर,प्रथम सीडीएस के प्लेन क्रैश तक में कोई जिम्मेवार तय नहीं हुआ?आखिर अब किस बात का इंतजार है?सरकार के लिए यह एक सबक है कि यदि वो इसी तरह जिम्मेवारियों से भागते रहेंगे तो समस्याएं और विकराल रूप धारण करती जाएंगी और युवाओं को भी यह सोचना होगा कि सोशल मीडिया की क्रांति यदि धरातल पर नहीं आई तो कभी भी जिम्मेवारी तय नहीं होगी।फिर आप भेड़ चाल में पक्ष विपक्ष के लिए लड़ते रह जाएंगे।इसलिए यह आवश्यक है कि जिम्मावरों की जिम्मेवारी तय किया जाए और उनपर कार्यवाही हो।।
~ कृष्ण कांत त्रिपाठी
हिंसक होकर आप नेताओ के तलवे चाटे,राजनीति कहें तो आप भोंके,राजनीति कहें तो आप काटे।”
‘विवेक विद्यार्थी’ जी की उपर्युक्त पंक्तियां वर्तमान समय में राजनीति के बदलते परिवेश पर युवाओं के लिए सटीक बैठती हैं।
साधारणतः युवाओं के बारे में ऐसी बातें प्रचलित हैं कि उनकी इच्छाशक्ति हिमालय से भी विशाल होता है वे जो ठान लें कर सकते हैं।परन्तु वर्तमान समय में युवाओं कि इच्छाशक्ति समाप्त होती जा रही है और उसका मुख्य वजह है स्वविवेक का अभाव।युवाओं से उम्मीद की जाती रही है कि उनका अतीत से रिश्ता कमजोर रहेगा और वे सुनहरे भविष्य को पाने हेतु नए दुर्गम रास्तों को चुनेंगे।मगर वास्तव में वर्तमान समय में युवा “लकीर के फकीर” बनते दिख रहे हैं।उनके सोचने समझने की शक्ति आज भी अपने अतीत के साथ हीं बढ़ रही है।
अतीत के साथ चलना बुरा नहीं है मगर अतीत को हीं वर्तमान में जारी रखना कहीं न कहीं रूढ़िवादिता है और रूढ़िवादिता विकास की बाधक है।गांधी उन्नीसवीं शताब्दी में प्रासंगिक थे उनके विचार अनुकरणीय थे,परन्तु आज के परिपेक्ष्य में जब दुनिया मिसाईल बना चुकी है और परमाणु बम की धमकियां हर रोज मिल रही हों ऐसे में अहिंसा के बल पर दुश्मन से दो हांथ करना कहीं भी तर्कसंगत नहीं है।जब विश्व में इंसानों से ज्यादा हथियार हो गए हों तो ऐसे में आप निहत्थे होकर हथियार वालों को डरा तो नहीं सकते हैं हां उनके रहमोकरम पर जीवित जरूर बच सकते हैं।
कांग्रेस ने भारत पर लगभग साठ वर्षों तक एकनिष्ठ शासन किया।उसने अपने स्तर तक विकास में भी कोई कोताही नहीं किया।मगर कांग्रेस ने भी अहिंसा को उतना हीं अख्तियार किया जितनी आवश्यकता थी।जरूरत पड़ने पर उसने भी 1962 में भारत चाइना युद्ध हो,1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध हो,1971 का भारत पाकिस्तान युद्ध हो या फिर 1975 का ऐतिहासिक इमरजेंसी हो किसी भी कड़े निर्णय को लेने से गुरेज नहीं किया।क्योंकि तत्कालीन शासकों ने इस बात को समझ लिया था कि गांधी के विचार अनुकरणीय हैं मगर सर्वदा नहीं।
भारत में सत्ता परिवर्तन के उपरांत एक ऐतिहासिक माइंडेड के साथ नरेंद्र मोदी का सत्ता में आगमन हुआ और देश की जनता इस उम्मीद के साथ ऐतिहासिक जीत दिलाई क्योंकि उन्हें एक सशक्त शासक कि आवश्यकता थी जो आवश्यकता पड़ने पर कड़े से कड़े फैसले लेने में न हिचके।इस जीत के जो आधार स्तम्भ थे वो इस देश के युवा थे,जिन्होंने अपनी इच्छाशक्ति को सशक्त किया और विशाल जीत के भागीदार बने।हालांकि शुरुआती दौर में मोदी ने जनता के विश्वास को खूब जीता और जनता के फैसले को सही साबित किया।परन्तु सत्ता की कुर्सी में हीं दोष है, जो भी इस पर बैठता है और ज्यादा देर बैठने की लालसा जगा देती है।यह लालसा हीं गलत फैसलों को भी मंजूरी देने को मजबुर कर देती है।जिसे सत्ता की सहिष्णुता कह सकते हैं।
वर्तमान मोदी सरकार ने भी सत्ता के सहिष्णुता को हीं अपनाया है और एक के बाद एक गलत फैसले ले रही है मगर दुर्भाग्य है देश के युवाओं का उन्होंने उन फैसलों का विरोध नहीं किया।वो चाहते तो एहसास दिला सकते थे कि आखिर हमने सत्ता की बागडोर सौंपी क्यों है।मगर उन्होंने गलत फैसलों को या तो स्वीकार कर लिया या फिर विरोध के नाम पर दो चार सोशल साइट्स पर पोस्ट कर दिए।विरोध को कभी धरातल पर नहीं लाए।चाहे किसान कानून की मनमानी नीतियां रही हों या फिर सुप्रीम कोर्ट के एससी एसटी एक्ट को बदलने का फैसला,किसी भी फैसले का युवाओं द्वारा विरोध दर्ज नहीं हुआ।विरोध का काम किया तो बुजुर्गों ने,वे बुजुर्ग जो अतीत के अंश थे।अतीत कभी भी वर्तमान संग मिलकर नहीं रह सकता क्योंकि अतीत का दाग वर्तमान के साथ साथ चलता है।परन्तु यह जानते हुए भी युवाओं ने उनसे आंदोलन अपने हांथो में नहीं लिया।युवाओं ने बस सोशल मीडिया से आंदोलन जारी रखा।
कल जब भारत के प्रधानमंत्री का चुनावी रैली पंजाब में आयोजित थी और मौसम के हाल को देखते हुए रूट डाइवर्जन की वैकल्पिक सुविधा उपलब्ध थी।ऐसे में प्रधानमंत्री के सुरक्षा में चूक कहीं न कहीं सरकारी व्यवस्था के लचर कानून व्यवस्था को उजागर करता है और ऐसे में केंद्र सरकार और पंजाब सरकार के बीच एक दूसरे पर जिम्मेवारी थोपने की प्रक्रिया और गैरजिम्मेदाराना है।आखिर आप देश के प्रधानमंत्री हैं आपके पास एक ऐतिहासिक माइंडेड की सरकार है फिर आप राजनीतिक इच्छाशक्ति क्यों नहीं दिखा रहे हैं?क्यों नहीं कोई सशक्त निर्णय ले रहे हैं?आखिर क्यों अपने आप को असहाय साबित कर रहे हैं?देश की जनता ने एक सशक्त शासक को कुर्सी दिया था,असहाय राजनेता को नहीं।यदि कड़े निर्णय ले पाना संभव नहीं है आपके लिए, तो फिर छोड़ दीजिए कुर्सी और त्याग दीजिए सत्ता के अभिलाषा को,क्योंकि सत्ता की अभिलाषा हीं शासक को नपुंसक बना देती है।
युवाओं ने सुरक्षा में इस चूक को मजाक में लिया और अतीत का अनुसरण किया जबकि वास्तव में युवाओं को इस चूक के लिए केंद्र और राज्य दोनों से सवालात करने थे कि आखिर जब देश के प्रधानमंत्री के सुरक्षा में इतनी बड़ी चूक हो सकती है तो फिर आम नागरिक की सुरक्षा का क्या होगा?राजनैतिक कारण जो भी बताए जाएं कि भीड़ कम थी तो यह कहानी रची गई या फिर अचानक मार्ग परिवर्तन से ऐसा हुआ परन्तु वास्तविकता यही है कि जब भारत ने सुरक्षा कारणों में हीं अपने दो दो प्रधानमंत्री गवां दिए हैं साथ हीं साथ ताशकंद की घटना जगजाहिर है ऐसे में इस प्रकार की असावधानी मजाक का विषय कैसे बन सकता है?
आखिर जिम्मेवार कब तय होंगे?जब कुछ बहुत बड़ी अनहोनी घटित हो जाएगी तब?जबकि पुलवामा से लेकर,प्रथम सीडीएस के प्लेन क्रैश तक में कोई जिम्मेवार तय नहीं हुआ?आखिर अब किस बात का इंतजार है?सरकार के लिए यह एक सबक है कि यदि वो इसी तरह जिम्मेवारियों से भागते रहेंगे तो समस्याएं और विकराल रूप धारण करती जाएंगी और युवाओं को भी यह सोचना होगा कि सोशल मीडिया की क्रांति यदि धरातल पर नहीं आई तो कभी भी जिम्मेवारी तय नहीं होगी।फिर आप भेड़ चाल में पक्ष विपक्ष के लिए लड़ते रह जाएंगे।इसलिए यह आवश्यक है कि जिम्मावरों की जिम्मेवारी तय किया जाए और उनपर कार्यवाही हो।।
~ कृष्ण कांत त्रिपाठी