सौमित्र रॉय
भारत में किसी भी प्रेस क्लब के भीतर हथियार लेकर कोई नहीं घुस सकता। लेकिन क्या आप यकीन करेंगे कि किसी प्रेस क्लब के बाहर एके 47 लिए पुलिसवाले खड़े हों, बख़्तरबंद गाड़ियों से घेराबंदी की गई हो और क्लब के भीतर सादे कपड़ों में CID के लोग घुसे हों? सिर्फ़ इसलिए, क्योंकि मोदी सरकार और जम्मू-कश्मीर प्रशासन को प्रेस की आज़ादी छीननी है?
मोदी के भारत में यह तमाशा भी हो गया। कश्मीर प्रेस क्लब को भारत सरकार ने बंदूकों के साये में अपने कब्जे में ले लिया। लेकिन नोयडा के पेडिग्री चैनल ही नहीं, प्रेस की आज़ादी की पैरवी करने वाली संस्थाएं और आलोचक तक चुप हैं।
यह सारा खेल शुक्रवार को तब शुरू हुआ, जब क्लब के वाट्सअप ग्रुप में सूचना फैली कि शनिवार, यानी बीते कल पत्रकारों का एक समूह बैठक करेगा।
इसके बाद पुलिस ने क्लब की घेराबंदी की और कल दोपहर पौने 2 बजे टाइम्स ऑफ इंडिया के सहायक संपादक एम सलीम पंडित बुलेटप्रूफ़ गाड़ी में आये और 11 साथियों के साथ तख्तापलट कर दिया। कार्यकारिणी बन गई। तख्तापलट की वजह यह बताई गई कि चूंकि पिछली कार्यकारिणी ने 6 माह से चुनाव नहीं करवाए, इसलिए क्लब ने अगले चुनाव तक कार्यकारिणी बना ली।
सलीम पंडित 2019 में क्लब का चुनाव हार चुके थे। नवंबर 2019 में ही पंडित की सदस्यता इसलिए रद्द कर दी गयी थी, क्योंकि उन्होंने एक खबर में कश्मीरी पत्रकारों को जिहादी बताया था। पंडित और उसके साथियों को घाटी में अमन-चैन दिखाने की मोदी की स्टंटबाज़ी का हिस्सा बनाया गया था।
साफ़ है कि सलीम पंडित के पीछे मोदी सरकार खड़ी है और उसी ने तख्तापलट करवाया है, ताकि स्वतंत्र प्रेस का गला घोंटा जा सके। कश्मीर प्रेस क्लब के चुनाव इसलिए नहीं हुए, क्योंकि 370 हटने के बाद सोसाइटी एक्ट में पंजीकृत क्लब का पुनः पंजीकरण नहीं हो पाया।
मई 2021 में क्लब की कार्यकारिणी ने पुनः पंजीकरण का आवेदन दिया था, जिसे प्रशासन ने लंबित रखा। इस मुद्दे पर भारत की कोई भी जिंदा कौम, बिरादरी या संस्था शायद ही मुंह खोले, विरोध जताए, क्योंकि कश्मीर का नाम आते ही राष्ट्रवाद उबलने लगता है।