एल्गार परिषद मामले में जांच के हिस्से के तौर पर प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) पार्टी की सक्रिय सदस्या के आरोपों में अगस्त 2018 को पुणे पुलिस के द्वारा गिरफ्तार की गई ट्रेड यूनियन नेता और मानवाधिकार मामलों की वकील सुधा भारद्वाज को पिछले माह 9 दिसंबर को क्षेत्राधिकार के आधार पर जमानत पर रिहा कर दिया गया था। इस मामले में गिरफ्तार किये गए 16 आरोपियों में से वह पहली हैं, जिन्हें जमानत प्राप्त हुई है। इसमें वरवर राव को जहाँ पूर्व में मेडिकल ग्राउंड पर अंतरिम जमानत मिली थी, वहीं ईसाई पादरी स्टेन स्वामी की हिरासत में मौत हो गई थी।
भारद्वाज की जमानत के लिए तय शर्तों में से एक यह था कि वे मामले की कार्यवाही पर कोई भी बयान नहीं देंगी। हाल ही में उन्हें ठाणे जाने के लिए मुंबई की सीमा से बाहर जाने की इजाजत मिल गई थी।
साक्षात्कार के कुछ प्रमुख बिंदु:
प्रश्न: क्या आप हमसे जेल के अपने कुछ अनुभवों को साझा कर सकती हैं, जो पहले पुणे की येरवडा सेंट्रल कारागृह में और फिर भायखला महिला जेल में आपने गुजारे हैं?
सुधा भारद्वाज: पहला अनुभव तो बेहद डरावना था। यह पूरी तरह से आत्मसम्मान, निजता और पहचान के खात्मे का था। मुझे याद है जब मैं येरवडा जेल पहुंची थी तो देर रात हो चुकी थी। मुझसे कहा गया कि जांच के लिए कपड़े उतारो। इसके बाद सिपाहियों द्वारा आपके सामान की जांच की जाती है। मुझे पहले अस्पताल के अहाते में रखा गया, और फिर एक अलग यार्ड में ले जाया गया, जिसे फांसी यार्ड कहा जाता है। मुझे बताया गया कि ऐसा इसलिए क्योंकि मुझे जिन आरोपों (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया गया है, उसकी वजह से यहाँ पर रखा जा रहा है। इस अहाते में कई सारी कोठरियां हैं, जो पिंजरे नुमा बंद हैं। मुझे और डॉ. शोमा सेन (एल्गार परिषद मामले की एक सह आरोपी) को इस यार्ड में अलग-अलग कोठरियों में रखा गया था। हमारे सेल्स के बगल में दो मौत के सजायाफ्ता मुजरिम भी थे। हमें आपस में बातचीत करने से मना किया गया था। हमें तभी बाहर जाने दिया जाता था जब बाकी के कैदी अपनी बैरकों में बंद होते थे।
भायखला में, हमें सब लोगों के साथ एक साझा बैरक में रखा गया था। लेकिन यह जगह काफी लोगों से भरी हुई थी। सुबह के वक्त भारी मजमा लगा रहता था क्योंकि सिर्फ चार बाथरूम थे और इस्तेमाल करने वाले 56 लोग थे।
दोनों ही जेलों में पानी की कमी का सामना करना पड़ा। हर चीज के लिए लाइन में लगना पड़ता था, वो चाहे पानी, भोजन, दवाई, और कोविड-19 प्रतिबंधों के दौरान फोन कॉल्स के लिए भी।
भायखला में जब मुकदमे की प्रतीक्षा वालों को पता चला कि मैं एक वकील हूँ तो उनमें से कई मुझसे मदद मांगने लगे। मैंने संभवतः सैकड़ों जमानत याचिकाएं लिखी होंगी। जेल ने याचिकाओं को भेजने के मामले में काफी सक्रिय भूमिका निभाई क्योंकि वे पहले से भी भीड़भाड़ वाली जेल में बंदियों की संख्या को कम रखने में रूचि रखते थे।
प्रश्न: एक वकील के तौर पर खुद को पाले के दूसरी तरफ देखना कैसा लगा?
सुधा भारद्वाज: जब आप क़ानूनी सलाह देते हैं, तो आपका ध्यान मामले पर लगा रहता है। लेकिन जब आप इसे भीतर रहकर देखते हैं तो आप पाते हैं कि कैदी सभी क़ानूनी उपायों से मरहूम है। विशेषकर कोविड प्रतिबंधों के तहत। इस संबंध में मैंने जिला क़ानूनी सेवा अधिकारी को एक पत्र लिखकर उन बंदियों जिन्होंने वकालतनामा पर दस्तखत कर दिए थे लेकिन उन्हें आरोपपत्र दाखिल हो जाने के बाद भी अपने वकीलों के नाम या फोन नंबर नहीं पता थे। उन्हें तो अपने खिलाफ पेश किये गए साक्ष्यों तक के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। क़ानूनी पक्ष हासिल करने का उनके पास संवैधानिक अधिकार हासिल है। छत्तीसगढ़ क़ानूनी सेवा नियामक में काम करने की वजह से मुझे इस बात की मालूमात है कि क़ानूनी सहायता प्रदान करने वाले वकीलों को मिलने वाला पारिश्रमिक पर्याप्त नहीं होता है। मैंने सुझाया था कि विचाराधीन कैदियों के साथ अनिवार्य क़ानूनी साक्षात्कार के बदले में कुछ भत्ता या बढ़ा हुआ पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए। इन सुझावों के जवाब में जानते हैं डीएलसीए की तरफ से क्या जवाब मिला? क्या मुझे किसी क़ानूनी सहायता के लिए वकील की जरूरत है!
मुझे इस बारे में वकीलों, नागरिक आजादी वाले संगठनों से बातचीत करने की जरूरत है। मैं क़ानूनी सहायता में सुधार के लिए एक पीआईएल दाखिल करने पर गंभीरता से विचार कर रही हूँ।
प्रश्न: आपके अनुभव में क्या गरीब और वंचित समुदाय के लोग जेलखानों में कहीं अधिक संख्या में रह रहे हैं?
सुधा भारद्वाज: जी, गरीब, मुस्लिमों का निश्चित रूप से कहीं अधिक संख्या में प्रतिनिधित्व हो रहा है। दो अन्य समूहों जिनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार हो रहा है, वे हैं पारधी, जो कि एक गैरअधिसूचित जनजाति है। इसके अलावा बांग्लादेश से भी हैं। उनके साथ भारतीय नागरिकों या अन्य विदेशी नागरिकों के समान व्यवहार नहीं किया जाता है, वे खुद को दोनों ही दुनिया के सबसे बदतर हालातों में पाते हैं। कईयों की जिंदगी तो जेलों में सस्ती लेबर के तौर पर गुजर जाती है।
प्रश्न: आपकी जमानत की शर्तों को देखते हुए लगता है आप जल्द ही छत्तीसगढ़ में अपने ट्रेड यूनियन, किसानों, आदवासियों के साथ काम करने के लिए नहीं जा सकती हैं। मुंबई में रहकर काम करने के बारे में आपने क्या विचार किया है?
सुधा भारद्वाज: मुझे लगता है कि मैं निर्वासन में हूँ क्योंकि मैं छत्तीसगढ़ नहीं जा सकती और वहां पर अपने लोगों से मुलाक़ात नहीं कर सकती हूँ। यह बेहद कष्टकर है। मेरी जिंदगी में सिर्फ दो ही चीजें हैं। एक मेरा क़ानूनी काम और दूसरा लोगों के साथ मेरा काम। मैं इसे कागज की लड़ाई (क़ानूनी लड़ाई) और सड़क की लड़ाई कहा करती हूँ। इसलिए, सिर्फ एक वकील के तौर पर बने रहना मेरे लिए अजीब सा है।
जब मुझे गिरफ्तार किया गया था, तो मैं पढ़ा रही थी। अब मैं उस काम को कर पाउंगी, इसमें मुझे संदेह है। कैदियों और श्रमिकों को क़ानूनी मदद प्रदान करने को भी मैं पसंद करुँगी। मुझे अभी भी एक स्थाई पता ठिकाने की तलाश है। मुझे उम्मीद है कि मार्च में मैं मुंबई में वकालत का काम शुरू कर दूँ।
जेलों के बारे में सबसे अविश्वसनीय चीज यह है कि जहाँ वहां पर कैदियों के बीच झगड़े बेहद आम हैं, वहीं पर विचित्र दोस्तियाँ भी देखने को मिलती हैं। वास्तव में, मुझे नहीं लगता कि कोई भी इंसान जेल में दोस्ती के बगैर जिंदा रह सकता है। अलग-अलग पृष्ठभूमि और मनोदशा के लोग एक साथ रहते हैं। ऐसे में दोस्तियाँ ही आपको बनाये रखती हैं। जब कभी भी कोई उदास होता है तो हर कोई उसके आसपास इकट्ठा हो जाता है, फिर वे सभी मिलकर उसे खाना खाने के लिए मनाते हैं। मिलने के लिए आने वाले परिवारों में लोग एक-दूसरे की मदद करते हैं, पैसे उधार देते हैं, अदालत जाते वक्त या वीडियो मुलाक़ात के दौरान एक दूसरे को कपड़े-लत्ते देते हैं। मेरी निराशा भी दूसरों के साथ घुलमिलकर काफूर हो जाती थी। मुझे लगता है कि क़ानूनी सहायता के जरिये उनके लिए कम से कम कुछ मदद कर सकती हूँ।
ज्योति जगताप (कबीर कला मंच नामक सांस्कृतिक समूह की एक सदस्या, उनके साथ की सह-अभियुक्त) साक्षरता की क्लास लिया करती थीं, जिसकी काफी मांग थी। महिलाएं लूडो बोर्ड्स बना लेती थीं, ज्योति ने तो जेल के साबुन से शतरंज के प्यादे तक बना डाले थे। मेरे जन्मदिन पर उन्होंने ग्रीटिंग कार्ड्स बनाये थे।
बाहर की दुनिया में, हमने अपने चारों तरफ दीवारों को खड़ा कर असमानता को देखने से इंकार कर दिया है। लेकिन जेल में कोई दीवार नहीं होती। आपको असमानता को नंगी आँखों से देखना पड़ता है। आप के लिए मुर्गा खाना कैसे संभव हो सकता है, जब आपको पता है कि आपके बगल में यह सब उपलब्ध नहीं हो सकता है? जब कभी कोई जमानत पर रिहा होता है या सजा काट चुका होता है तो खूब सारा हो हल्ला और तालियाँ बजती हैं। एक और मजेदार मान्यता भी वहां पर है कि अपने साथ जेल से बाहर किसी भी चीज को नहीं ले जाना चाहिए, आपको उसे यहीं पर छोड़ देना चाहिए। मुझे अच्छा लगा क्योंकि इससे उन लोगों को मदद मिल जाती है जिनके पास पहनने के कपड़े जैसी बुनियादी जरूरतों को हासिल करने की सामर्थ्य नहीं है।
जब मैं जेल छोड़ रही थी, एक स्टाफ ने मुझसे पूछा, ‘मैडम, आप कोई बड़े हो क्या?।’ उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि बाहर इतनी अधिक मीडिया क्यों आई हुई थी। मुझे ढेर सारा आलिंगन मिला, बहुत सारी क़ानूनी मदद की गुजारिशें मिलीं। वे कहा करते थे, ‘आंटी, आप तो हमारे घर की वकील हो’।
(इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित सदाफ मोदक द्वारा सुधा भारद्वाज के लिए गए इस साक्षात्कार का हिंदी अनुवाद टिप्पणीकार और अनुवादक रविंद्र सिंह पटवाल ने किया है।)