मनीष आज़ाद
मैं ‘चौरी-चौरा’ की घटना में भारत में फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत देखता हूँ.
- 1922 में एक पत्रकार [शाहिद आमीन की ‘चौरी चौरा’ पर लिखित पुस्तक से उद्धृत]
कोरोना काल में ‘क्वॉरन्टीन’ शब्द सभी की जुबान पर चढ़ गया है. लेकिन इतिहास की किताबों में किसी घटना को ‘क्वॉरन्टीन’ कर देने का चलन बहुत पुराना है. विशेषकर ऐसी घटना को जो इतिहास लिखने वालों की अपनी विचारधारा से मेल न खाते हो. 4 फरवरी 1922 को घटी यह घटना एक ऐसी ही घटना है, जिसे ‘मुख्यधारा’ के इतिहासकारों ने लम्बे समय तक जबरदस्ती क्वॉरन्टीन कर रखा था और इससे अपनी राजनीतिक-विचारधारात्मक दूरी बना रखी थी।
नक्सलबारी आंदोलन के प्रभाव में जब एक बार फिर समाज में क्रांतिकारी आलोड़न शुरू हुआ तो चौरी चौरा जैसी अनेक घटनाओं को क्वॉरन्टीन से मुक्त करके उनका महत्त्व स्थापित करने का प्रयास किया जाने लगा. शाहिद आमीन, अनिल श्रीवास्तव, सुभाष चन्द्र कुशवाहा जैसे लेखको ने ‘चौरी चौरा’ को स्थापित करने में शानदार काम किया है.
चौरी चौरा घटना से पहले गांधी के असहयोग आंदोलन ने भावी क्रांतिकारी धारा को भी अपने मे समेट रखा था और पूरा देश क्रांतिकारी सम्भावना से भर गया था। इसी असहयोग आंदोलन में बनारस में जब चंद्रशेखर आज़ाद को 30 कोड़े मारे गए तो महज 16 साल के चंद्रशेखर आज़ाद ने हर बार महात्मा गांधी की जय बोला था।
लेकिन चौरी चौरा में जब गरीब मुस्लिम दलित-पिछड़े किसानों ने असहयोग आंदोलन के दौरान ही सरकार व पुलिस के अत्याचार पर पलटवार करते हुए थाने को फूंक दिया और तत्कालीन DSP समेत 23 पुलिसकर्मियों को मार डाला तो गांधी ने न सिर्फ इतना बड़ा आंदोलन वापस ले लिया, बल्कि चौरी चौरा के क्रांतिकारियों पर अभद्र टिप्पणी करते हुए उनसे यह आह्वान कर डाला कि वे सभी अपने आपको पुलिस के हवाले कर दे। गांधी के इस गैर-जिम्मेदार कृत्य से चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी काफी दुखी हुए और इसके बाद इन क्रांतिकारियों ने अपना अलग रास्ता बनाया।
ब्रिटिश काल मे पहली बार कोर्ट ने इस केस में 172 लोगो को फांसी की सजा सुनाई । एम. एन. राय ने इसे उचित ही ‘न्यायिक हत्या’ की संज्ञा दी। तत्कालीन ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ ने भी इसका संज्ञान लेते हुए पूरी दुनिया मे इसके खिलाफ आंदोलन करने का आह्वान किया। अंततः 19 लोगों को फाँसी पर लटकाया गया। फांसी पर चढ़ने वाले लोगों का जज़्बा इसी से समझा जा सकता है कि उन्होंने अपने परिवार वालों से कहा कि 10 साल के अंदर वो ‘पुनर्जन्म’ लेंगे और अपनी लड़ाई जारी रखेंगे। पिछले वर्ष के किसान आंदोलन में भी हम उन्हें पहचान सकते हैं।
बाकी लोगों को आजीवन कारावास समेत लंबी लंबी सजाएं दी गई। हद तो तब हो गयी जब 1935 में संयुक्त प्रान्त (यूपी) में कांग्रेस की सरकार बनी और उसने भी इन कैदियों को जेल से आज़ाद नहीं किया।
‘आजादी’ के बाद भी इनकी उपेक्षा जारी रही और तमाम आंदोलनों-धरनों-दबावों के बाद 1993 में जाकर ही इन शहीदों का स्मारक बन सका। जबकि मारे गए पुलिस वालों के स्मारक पर ‘आज़ादी’ के बाद भी सलामी ठोकी जाती रही। ‘आज़ाद’ भारत की पुलिस के लिए अंग्रेजों की पुलिस अभी भी प्रेरणास्रोत बनी हुई है।
चौरी चौरा की इस घटना में जिन्हें फांसी पर लटकाया गया, एक नज़र उन नामों पर डाल लीजिये- लोटू, महादेव, मेघू , नजर अली, रघुबीर, रामलगन, रामरूप, रूदली, सहदेव, सम्पत, श्यामसुन्दर, सीताराम, अदुल्ला, भगवान अहिर, विक्रम अहिर, दुधई, कालीचरन, लालमुहम्मद व सम्पत।
नाम से ही स्पष्ट है कि यह गरीब दलितों, पिछड़ों, मुस्लिमों का एक ‘सबाल्टर्न विद्रोह’ था। यदि यह विद्रोह राष्ट्रीय आंदोलन का ‘टेम्पलेट’ बनता तो शायद आज हमें फासीवाद का सामना नहीं करना पड़ता।
अल्जीरिया के क्रांतिकारी लेखक फ्रेंज फ़नान (Frantz Fanon) ने कहीं लिखा है कि जनता अपनी बगावतों से अपने लिए ‘सांस लेने की जगह’ (breathing space) भी बनाती है। ऐसी कितनी ही बगावतों के कारण अब तक हमें जो थोड़ी बहुत ‘सांस लेने की जगह’ हासिल थी, आज वहां एक बार फिर फासीवादी घुटन बढ़ती जा रही है। अब यह हमारा कार्यभार है कि हम इस घुटन के खिलाफ लड़ते हुए इस ‘breathing space’ को ज्यादा से ज्यादा बढ़ा सकें ताकि आने वाली पीढ़ियां खुल कर सांस ले सकें।
मनीष आज़ाद